Tuesday, February 20, 2024

बयान कर दो या भुला दो


बयान कर दो या भुला दो 

ज़िन्दगी की हर सच्ची कहानी को 

हिम्मत जुटाकर बयान कर देना 

दिल को एक बोझ से मुक्त कर देता है।

हालाँकि आसान नहीं होता 

ऐसे एक-एक बोझ को उतार फेंकना।

सच्ची कहानियांँ या तो भूल जानी चाहिए 

या सुना देनी चाहिए 

नहीं तो वे चुपचाप सुलगती रहती हैं, 

दिल में राख की ढेरी 

इकट्ठा होती रहती है 

और धुएँ से नज़रें कड़वाती रहती हैं।

**

(20 Feb 2024)

Monday, February 19, 2024

नौकरशाह


 अल साल्वाडोर के मशहूर क्रांतिकारी वामपंथी कवि रोखे दाल्तोन (Roque Dalton) की एक कविता

नौकरशाह

नौकरशाह नीरसता और ऊब के तूफ़ानी सागर में तैरते रहते हैं। 

वे पहले लोग होते हैं जो कोमलता की हत्या करते हैं अपनी घिनौनी जम्हाइयों के बाद

उनका अंत होता है बीमार जिगर के साथ  और वे मरते हैं टेलीफोन को मुट्ठी में भींचे हुए

उनकी पीली आँखें गड़ी होती हैं दीवार घड़ी पर। 

उनके हाथ की लिखावट उम्दा होती है और वे अपने लिए नेकटाइयाँ ख़रीदते हैं

जब उन्हें पता चलता है कि उनकी बेटियाँ हस्तमैथुन करती हैं तो उन्हें दिल का दौरा पड़ जाता है

उनके ऊपर उनके दर्ज़ी के बिल का बक़ाया होता है और  वे बार में शराब पीने के आदी होते हैं

वे रीडर्स डाइजेस्ट और नेरूदा की प्रेम कविताएँ पढ़ते हैं

वे इतालवी ऑपेरा के शौक़ीन होते हैं और ख़ुद को  गौरवान्वित महसूस करते हैं

वे घनघोर कम्युनिस्ट-विरोधी घोषणापत्रों पर दस्तख़त करते हैं

व्यभिचार उन्हें बर्बाद कर देता है और वे आत्महत्या करते हैं बिना किसी ग़ैरत के

वे खेलकूद से लगाव का दिखावा करते हैं और इस बात पर शर्मिन्दा रहते हैं

भयंकर रूप से शर्मिन्दा रहते हैं

कि उनका बाप एक बढ़ई था। 

**


अल साल्वादोर के क्रांतिकारी वामपंथी कवि  रोखे दाल्तोन की एक छोटी कविता जो हमारे मुल्क़ के बुद्धिजीवियों के लिए भी एक ज़रूरी चेतावनी के समान है:

एक सुझाव... 

कभी भी मत भूलो

कि फ़ासिस्टों में 

जो सबसे कम फ़ासिस्ट हैं

वे भी

फ़ासिस्ट हैं। 

**


Sunday, February 18, 2024

रक्तपात के दिनों में प्यार


रक्तपात के दिनों में प्यार 

शहर की सुनसान सड़कों पर

हत्यारों के बूटों की धमक

गूँजती रहती है। 

वधस्थल पर कविता की गर्दन पर

गिरता है एक कुल्हाड़ा। 

ऐसे ही दिनों में अचानक किसी एक रात

खिड़की के शीशे से आती

चाँदनी के पीले मद्धम आलोक में

एक थके हुए हृदय पर

गिरती है 

एक परछाईं ज्वरग्रस्त काले गुलाब की। 

गहरी नींद में सुनाई देती है

डाकिये की साइकिल की

घण्टी की आवाज़। 

**

(18 Feb 2024)


Friday, February 16, 2024

कलुषित मनुष्यता


कलुषित मनुष्यता

हम निर्दोष और निष्कलुष तो कतई नहीं थे। 

द्वंद्व और दुविधाओं से भी मुक्त नहीं थे

और हमारी संवेदनाओं के संसार में 

कई बार स्वार्थ और क्षुद्रताओं की

घुसपैठ भी होती रहती थी। 

फिर भी सबसे अहम बात यह थी कि

हमें सच्चाई और मनुष्यता से

प्यार था और हम सच्चे दिल से

न्याय के लिए लड़ना चाहते थे। 

लेकिन इसके लिए हम निर्दोष और निष्कलुष

लोगों का साथ चाहते थे

जैसा कि हम ख़ुद भी नहीं बन सके थे। 

फिर हमें पता चला धीरे-धीरे कि

अन्याय से कलुषित जीवन ने

कम या ज़्यादा अंधकार और कलुष

उन सबकी आत्माओं में उड़ेला है

जो सच्चाई और न्याय से प्यार करते हैं, 

जिन्होंने जिया है तलछट का 

वंचित-लांछित जीवन, या देखी है

किसी न किसी रूप में आधुनिक सभ्यता की

बर्बरता, घृणिततम असभ्यता। 

ऐसे ही लोग एक दिन यह मानने के लिए

मजबूर हो जाते हैं कि इन चीज़ों को 

जड़मूल से बदलने के लिए

विद्रोह न्यायसंगत है और अनिवार्य भी। 

तब हमें अहसास हुआ कि हमें

ऐसे लोगों के बीच जाना होगा

और उनका अपना बनना होगा। 

मूल बात यह है कि हमारे भीतर होनी चाहिए

बुनियादी ईमानदारी और साहस से भरा एक

पारदर्शी हृदय, 

आँसू, पसीने और गर्म ख़ून की

तरलता में सराबोर, 

और न्यायबोध और तमाम दबे-कुचले 

लोगों के लिए प्यार

और एक ऐसी काव्यात्मक उदात्तता 

जो हमेशा आत्मालोचन के लिए

उकसाती रहती हो और 

सभी सच्चे लोगों की ओर

दोस्ती का हाथ बढ़ाने को

प्रेरित करती रहती हो। 

इसतरह हमने जाना कि 

चीज़ों को बदलने की प्रक्रिया में ही

लोग अपने आप को बदलते हैं

और अलौकिक शुद्धता से भरे मनुष्य की

कल्पना सिर्फ़ ऐसे कवियों और बुद्धिजीवियों के

दिमाग़ों में निवास करती है

जो आम लोगों की ज़िन्दगी से

और संघर्षों की आँच से कोसों दूर रहते हैं

और जिनकी अपनी ज़िन्दगी 

सुनिश्चित सुरक्षा, क्रूर महत्वाकांक्षाओं

और घृणित समझौतों में लिथड़ी होती है। 

बार-बार न्याय से वंचित, 

सताये और दबाये गये, 

रौंदे और कुचले गये लोगों में से 

अगर चंदेक लोग, दिशाहीन, निरुपाय,

प्रतिशोध में अंधे, 

चल पड़ते हैं अपराध और आतंक की राह पर तो भी एक बर्बर हत्यारी सत्ता की

सेवा में सन्नद्ध घुटे हुए, 

सुसंस्कृत विद्वानों और कलाकारों के मुक़ाबले

बहुत अधिक होती है उनके भीतर मनुष्यता

और अगर कोई रोशनी नज़र आये

तो उनके लौटने की उम्मीद भी

हमेशा बनी रहती है। 

लेकिन महज भय, सुरक्षा, यश, पद, पुरस्कार

और अशर्फियों के लिए जो कवि-लेखक-विचारक

अपने ज़मीर को बेच आते हैं

वे मनुष्यता के पक्ष में कभी वापस नहीं आते

और अगर आते भी हैं तो कोई नया, 

और भी भीषण षड्यंत्र या जघन्य विश्वासघात

का मायावी जाल रचने के लिए आते हैं। 

**

(16 Feb 2024)

Thursday, February 08, 2024

 

रवींद्रनाथ टैगोर (1916 में प्रकाशित उपन्यास ‘घरे बाइरे’ से कुछ उद्धरण )


“देश की सेवा करने को तैयार हूं, पर देश की वंदना करना देश का सत्यानाश करना है”। 


“(देश की) पूजा करने को मैं मना नहीं करता पर अन्य देशों में जो नारायण है, उसके प्रति विद्वेष रखते हुए यह पूजा किस प्रकार पूर्ण हो सकती है”।


“मेरा विश्वास है कि जो लोग देश को साधारण और सत्य भाव से देश समझकर मनुष्य पर मनुष्यवत श्रद्धा रखकर सेवा और भक्ति का उत्साह नहीं पाते, जो गुल मचाकर, मां कहकर देवी कहकर, मंत्र पढ़कर केवल उत्तेजना की ही खोज में रहते हैं, उनके मन में देश भक्ति का नहीं बल्कि नशेबाजी का ध्यान रहता है”।


“भारतवर्ष यदि कोई वास्तविक वस्तु है, तो उसमें मुसलमान भी मौजूद है”।


“देश से मतलब देश की मिट्टी से नहीं है, बल्कि देश की जनता से है”। 


“केवल गाय को ही अवध्य मानें और भैंस को अवध्य न मानें तो यह धर्म नहीं कोरा कट्टरपन है”।

***


Wednesday, February 07, 2024

साहित्य के विदूषक युग की क्रूर और वीभत्स विडम्बनाएँ


साहित्य के विदूषक युग की क्रूर और वीभत्स विडम्बनाएँ

कइयों को मैंने देखा है कहीं भी सार्वजनिक स्थल पर बैठे हुए नाक या कान से ध्यानस्थ योगी जैसी तल्लीनता के साथ मैल निकालते रहते हैं या पाकेटमार जैसी कुशलता से कहीं हाथ घुसाकर खुजली करने का आनंद लेते रहते हैं, ऐसा दिव्य आनंद जो कामोत्तेजना के आनंद से बस कुछ ही सीढ़ी नीचे होता है। ऐसे लोगों का यह भ्रम दुनिया के सबसे बड़े भ्रमों में से एक होता है कि वे कुशल छापामार की तरह अपनी गुप्त कार्रवाई कर रहे हैं और उन्हें कोई देख नहीं रहा है। 

मेरा विनम्र विचार है कि कविता के वैचारिक मूल्य और सौन्दर्य का तक़ाज़ा है कि वह अपने में मगन होकर पब्लिक प्लेस में नाक से नकटी और कान से खोंठ निकालने का या गुप्तांगों को खुजलाकर आनन्द लेने का काम न करे। ऐसा काम अक्सर आत्मरतिरत या आत्ममुग्ध अवांगार्द "विद्रोही" कविगण करते हैं और एक छोटे से मनोरुग्ण साहित्यिक समाज की मनोग्रंथियों को सहला कर लाइमलाइट में रहने के लिए बहुविध धतकरम किया करते हैं। 

ऐसे अवांगार्द सूरमा जैसे-जैसे अपने काव्यात्मक प्रयोगों में आगे बढ़ते जाते हैं, वैसे-वैसे सामाजिकता के प्रदेश से निकलकर असामाजिकता के प्रदेश में गहरे धँसते चले जाते हैं। राजनीति उन्हें कविता के लिए एकदम अनुपयुक्त लगती है या फिर राजनीति में कोई पक्ष लिये बिना वे समूची राजनीति को ही मनुष्यता के लिए नुकसानदेह बताने लगते हैं और कहने लगते हैं कि "भई, हम तो सत्य के आग्रही और प्रेम के पुजारी हैं। यही प्रेम हमें अयोध्या, काशी, मथुरा, मगहर, सारनाथ -- यहाँ-वहाँ भटकाता रहता है। गुजरात से दिल्ली तक राजनीति का ख़ूनी रथ घरघर चलता रहे, हमें क्या! और हम कर भी भला क्या सकते हैं,  प्रेम और शान्ति की बातों के सिवा?" 

हिन्दी के इन कवियों में कुछ रामभद्राचार्य, धीरेन्द्र जोशी, चम्पक राय, शंकराचार्य समान हैं तो कुछ आसाराम और राम रहीम के समतुल्य हैं। इन्हें देश में जारी फ़ासिस्टों के हत्या और आतंक की मुहिम से कुछ भी नहीं लेना-देना। सौन्दर्य के आराधक और ऐन्द्रिक व आध्यात्मिक आनन्द मार्ग के साधकों को राजनीति से भला क्या लेना-देना! 

इनके अतिरिक्त कुछ वे चतुर सुजान भी हैं जो कभी-कभार कविता में उपरोल्लिखित प्रयोग भी कर लिया करते हैं, और फिर अपने को जन पक्षधर राजनीतिक प्राणी बताते हुए फ़ासिस्ट उभार पर एक चिन्तित कविता भी लिख डालते हैं जिसमें फ़ासिज़्म की वैचारिक समझदारी के अतिरिक्त और सबकुछ हुआ करता है। 'ऑपरेटिव पार्ट' के तौर पर ये सभी कविताएँ बस प्रेम, करुणा, शान्ति आदि के क़सीदे पढ़ती हैं और एक ऐसे विकट ऐतिहासिक समय में जनता को वैचारिक तौर पर निश्शस्त्र करने का काम करती हैं जब उसे जगाने और एक सैलाब की तरह सड़कों पर उतरकर फ़ासिस्ट शैतानों से आरपार की लड़ाई लड़ने के लिए ललकारने की ज़रूरत है। मज़े की बात है कि ऐसे "राजनीतिक" कवियों की ऊपर वर्णित "अराजनीतिक" अवाँगार्द कवियों से ख़ूब गलबहियांँ और चूमाचाटी चलती है और समय-समय पर लेख और साक्षात्कार आदि में अमूर्त लच्छेदार भाषा में  ये एक-दूसरे को 'युग का महानतम कवि' आदि घोषित करते रहते हैं। 

ऐसे जंतु एक साथ पूँजी और सत्ता के भव्य सांस्कृतिक-साहित्यिक महोत्सवों में जा पहुँचते हैं ताकि 'जनता के बड़े हिस्से तक पहुँचा जा सके।' सच तो यह है कि शाहरुख़, सलमान और अक्षय आदि तो बहुत पैसा लेकर रजनीगंधा बेचते हैं। हमारे ये साहित्यकार बस थोडे़ से सिक्कों और "बड़े मंच" पर चेहरा दिखाने के निकृष्ट लोभ में रजनीगंधा बेचते हैं, वैचारिक-साहित्यिक गाँजे की पुड़िया के साथ-साथ! बेशर्मी की यह लहर ऐसी चली है कि कलतक जिन प्रगतिशील कवियों की कविताओं से हमने बहुत कुछ सीखा था उनमें से भी कई अपनी धोती-पैंट-कमीज़ उतारकर लाल लंगोट और जनेऊ धारण किये इस फ़ासिस्ट कुम्भ में डुबकी मारने के लिए उस नदी में उतर पड़े हैं जिसमें ख़ून बहता है और लाशें तैरती हैं। और कुछ तो ऐसे हैं जो इस फ़ासिस्ट समय को चिरस्थायी मानते हुए सीधे हत्यारों की गोद में जा बैठे हैं या उनके दरबार में सारंगी बजाने लगे हैं। कुछ कुशल मौसम वैज्ञानिक भी हैं जो मौसम का रुख बदलते ही फिर जनवाद की पिपिहरी बजाने लगेंगे। 

साठ के दशक में हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में अवांगार्द कविता का जो प्रवाह आया था वह परम्परा और व्यवस्था के विरुद्ध एक अराजक मध्यवर्गीय विद्रोह था। उसमें आवेग था और आग थी। ये जो आजके अवांगार्द अराजक प्रयोगधर्मी कवि हैं, ये घोर अराजनीतिक लम्पट हैं जिनका छद्म वामपंथियों के साथ एक मज़बूत संयुक्त मोर्चा बना हुआ है। ये दरअसल नवउदारवाद के सांस्कृतिक 'नियोकॉन्स' हैं। इनकी अराजकता और कामुकता में और प्रेम की अभिव्यक्तियों में वित्तीय पूँजी की बीमार और अराजक संस्कृति ही परावर्तित हो रही है। फ़ासिस्ट और हर किस्म की बुर्जुआ निरंकुश सत्ता के लिए ये उतने ही काम के लोग हैं जितने किसिम-किसिम के बुर्जुआ लिबरल्स और सोशल डेमोक्रेट्स! 

पहले के ज़माने में अक्सर ऐसे मेहमान लोगों के घर आया करते थे जो मेजबान से ही लुंगी, कुरता और गमछा माँगते थे, और कभी-कभी तो जाँघिया-बनियान भी। अभी कविता की दुनिया में यह चलन जारी है। कुछ कवि कथित अवांगार्द विद्रोहियों, जनेऊ-तुलसीवादी वामियों, फासिस्टों से गाँठ बाँधे वामियों, सर्वोदयियों और अन्य ईमानदार जनवादियों के साथ जीवन  और कविता -- दोनों क्षेत्रों में संतुलन साधते हैं। वे जिस घर जाते हैं वहीं का कुर्ता, लुंगी, बनियान, जाँघिया पहन लेते हैं। कई बार भूलकर साथ भी लिए आते हैं। उनकी कविताएँ भी ऐसी ही लगती हैं। कभी किसी का धोती-पैंट-कमीज़-बनियान-जाँघिया पहने हुए तो कभी किसी का। और कई बार तो कई घरों से लिए कपड़ों का एकदम बेमेल घालमेल! और समय ऐसा है कि कोई भी नहीं कहता कि महोदय, आप एकदम जोकर लग रहे हैं। और जब ज़्यादातर ऐसे ही हैं तो कौन किसको क्या कहे! 

वैसे भी साहित्य महोत्सवों और सरकार एवं सेठों के जलसों में आजकल साहित्यिक जोकरों की डिमांड बहुत तगड़ी है। 

**

(7 Feb 2024)

Tuesday, February 06, 2024

मनोहर की कहानी


मनोहर की कहानी 

मनोहर की कहानी पिछले साल की है। उमर तक़रीबन बाइस-तेइस साल होगी। बहुत कम बोलता था। लेकिन जब बोलता था तो एकदम दो-टूक, बेलागलपेट और फैसलाकुन ! दोस्त भी दो-तीन से अधिक नहीं। दिहाड़ी करता था। रोज़ाना नौ बजे तक साइकिल के हैंडल पर टिफिन का डब्बा टाँगे लेबर चौक पहुँच जाता था।

और नौजवानों की तरह मोबाइल में घुसे रहने का शौक़ नहीं था। हाँ, रोज़ाना सुबह अपनी खोली के सामने के चायख़ाने पर बैठकर अखबार ज़रूर पड़ता था। प्राइवेट से हाईस्कूल परीक्षा का फॉर्म भी भर रखा था । घनघोर जाड़ा और बरसात छोड़कर हमेशा छत पर ही सोता था और तारों को निहारता रहता था हालाँकि रोशनाबाद के धूल-धुआँ भरे आसमान में तारे कम ही नज़र आते हैं और जो दिखते भी हैं वे बूढ़ी-थकी आँखों की तरह टिमटिमाते हुए।

चाहे कुछ भी हो, हर इतवार को मनोहर अपने गाँव ज़रूर चला जाता था। गाँव में खेती-बाड़ी कुछ नहीं था, न घर का कोई अपना। माँ तो बचपन में ही नहीं रही। पिता  दिल्ली के नांगलोई के किसी कारखाने में उसके बचपन में ही कमाने चला गया था। कुछ ही बरसों बाद कारखाने में लगी आग में उसकी मौत हो गयी। कारखाना ग़ैरक़ानूनी था। उसकी बहुमंज़िली इमारत के गेट पर रात को मालिक ताला लगाकर जाया करता था। आग रात में लगी। आठ मज़दूर तो आग में  जलकर और जलते चमड़े और केमिकल्स के ज़हरीले धुएँ में घुटकर मर गये। कुछ ऊपरी मंजि़लों से नीचे कूदने के कारण चकनाचूर हड्डियों के साथ दर्दनाक मौत मरे या ज़िन्दगी भर के लिए अपाहिज हो गये। किसी को कोई मुआवजा नहीं मिला। पुलिस, लेबर डिपार्टमेंट और स्थानीय नेताओं ने मिलकर सारा मामला रफ़ा-दफ़ा कर दिया।

मनोहर को पिता की बस हल्की सी याद थी। घर में एकमात्र दादी बची थी जिसने उसे पालपोसकर बड़ा किया था। दादी दूसरों के खेतों में काम करती थी और कुछ घरों में भी बरतन-बासन, सफ़ाई-दफ़ाई कर लिया करती थी। 

दादी रोज़ रात को आँगन में चमकते तारों से भरे आसमान के नीचे बिस्तर लगाती थी और बाजू में लेटे मनोहर को आसमान में छिटके तारों की कहानियांँ गढ़-गढ़कर सुनाती चली जाती थी। कभी वे तारों के झुण्डों के आपसी रिश्तों से जुड़ी होती थीं तो कभी किनारे अकेले टिमटिमाते किसी अकेले तारे के दु:ख और उदासी की कहानी होती थी। दादी ने जो कुछ भी जीवन देखा-भोगा था उनमें थोड़ी कल्पना, थोड़े अपने सपनों और थोड़ी अपनी अधूरी चाहतों का रंग भरती थी और उन्हें सितारों की कहानियाँ बनाकर मनोहर को सुनाती थी। मनोहर ने सितारों की कहानियाँ सुनते -सुनते ज़िन्दगी के बारे में बहुत कुछ जाना था। आसमान के तमाम तारों में से दो को उसने अपनी माँ और पिता की पहचान भी दे दी थी। 

दादी के पास लेटकर तारों की कहानियांँ सुनने का सिलसिला मनोहर के जवान होने तक जारी रहा। इन तमाम किस्सों से दो-तीन किताबें तैयार हो सकती थीं लेकिन मनोहर एदुआर्दो गालियानो तो था नहीं। वह बिजनौर के एक गाँव के भूमिहीन जाटव परिवार का बेटा था जिसके माँ-बाप नहीं थे, सिर्फ़ दादी थी और जिसने जातिगत अपमान का दंश सहते हुए किसी तरह से सिर्फ़ सातवीं क्लास तक की पढ़ाई की थी। अनुभव, त्रासदियाँ, सपने और फंतासियाँ तो अगणित लोगों के पास होती हैं। उनमें से सिर्फ़ दशमलव एक प्रतिशत उन सहृदय और सृजनशील लोगों के माध्यम से प्रकाश में आ पाती हैं, जिनके पास जीने की न्यूनतम ज़रूरतें और कामचलाऊ सामाजिक सम्मान होता है या कुछ संघर्ष और यंत्रणाओं के बाद जो लोग ये चीज़ें किसी हद तक हासिल कर लेते हैं। फिर यह जो प्रकाश में आता है वह अक्सर उस भाषा के चर्चित, या दुनिया के महान साहित्य तक में शुमार हो जाता है। बहरहाल, इन साहित्यिक टाइप बातों से आपको पकाने की जगह मैं फिर मनोहर की दास्तान पर वापस लौटती हूँ।

पंद्रह साल का होने के बाद मनोहर को भी गाँव के एक दबंग जाट किसान की गायों-भैंसों की देखभाल का काम मिल गया था। यहीं उसे पहली बार एक दोस्त भी मिला -- अक्षयबर। अक्षयबर जाति का अहिरवार था जिसके पुरखे बुंदेलखंड में चंबल किनारे के किसी गाँव से उजड़कर यहाँ आ बसे थे। मनोहर जिस जाट के गायों -भैंसों का काम देखता था, उसके परिवार ने अक्षयबर के परिवार को अपनी ज़मीन पर बसा दिया था और वे चार पुश्त से उसके खेतों में काम करते थे। अक्षयबर मुँहफट था, बहुत अच्छा गवैया था और खेतों में काम करने वाली लड़कियों से ठिठोलीबाज़ी उसका एक मुख्य शग़ल था। इसके उलट मनोहर अंतर्मुखी और शर्मीला था लेकिन दोनों की दोस्ती बेहद गहरी थी। अक्षयबर किसी सुन्दर लड़की को पटाने -भगाने की अपनी योजना मनोहर को सुनाता था लेकिन मनोहर की सितारों की कहानियांँ भी उसे बहुत भाती थीं, जैसे वह किसी और दुनिया में पहुँच जाता था।

मनोहर जब सातवीं में पढ़ रहा था उसी साल नजीबाबाद के किसी स्कूल से बदली होकर भट्ट मास्साब उसके स्कूल में आये। सरकारी स्कूल के एक खंडहर नुमा वीरान क्वार्टर में उन्होंने तीन दिनों तक साफ़ -सफ़ाई और मरम्मत के कामों के बाद अपना आसन जमाया। भट्ट मास्साब घोषित तौर पर जात-पात नहीं मानते थे। उनका खाना भी स्कूल में अपने दिवंगत पति की जगह पर नियुक्त एक जाटव स्त्री पकाती थी। भट्ट मास्साब गणित के माहिर शिक्षक थे लेकिन उनका कमरा साहित्य की किताबों से ठसाठस भरा हुआ था। साथ ही वह भयंकर गपोड़ी भी थे। उनके अड्डे पर हमेशा लड़कों की भीड़ लगी रहती थी। उनके जाति-विरोधी विचारों के कारण जाट और ब्राह्मण परिवार अपने बच्चों को भट्ट मास्साब के पास जाने से रोकते थे, फिर भी उनके कई बच्चे आते ही थे। एक ख़ास बात यह थी कि भट्ट मास्साब बिना पैसा लिए होम्योपैथी की दवाएँ भी देते थे। इस नाते कई बार ग़ैर-दलित जातियों के किसानों को भी उनके पास आना पड़ता था।

भट्ट मास्साब ने ही मनोहर को प्रेमचंद, शरतचन्द्र आदि लेखकों से परिचय कराया और राहुल और भगतसिंह की रचनाएँ भी पढ़वाईं। एक साल के भीतर मनोहर की बाहरी दुनिया और सितारों की कहानियों की दुनिया का क्षेत्रफल बहुत अधिक फैल गया। इसी बीच दो घटनाएँ घटीं। शिक्षा विभाग के अफसरों से लेकर हेडमास्टर तक से लगातार जारी दुश्मनी के चलते भट्ट मास्साब का ट्रांसफर फर्रूखाबाद के किसी गाँव के स्कूल में हो गया। उसीके तीन महीने बाद ठंड लगने और न्यूमोनिया होने के बाद मनोहर की दादी की मौत हो गयी। गाँव में अब कुछ ऐसा नहीं था जो मनोहर को वहाँ बाँधे रह सके। एक अक्षयबर की दोस्ती का थोड़ा मोह था, लेकिन मनोहर ने अपना रास्ता तय कर लिया था। 

घर की चाभी अक्षयबर को सौंपकर वह हरिद्वार सिडकुल आ गया। एक साल के भीतर आधे से अधिक कारखानों के मालिक और लेबर कांट्रैक्टर उसे मज़दूरों को भड़काने और सुपरवाइज़रों फ़ोरमैनों से पंगा मोल लेने वाले बदमाश मज़दूर के तौर पर जानने लगे। उसे ठिकाने लगाने के बारे में भी सोच पाना आसान नहीं था। बीस-पच्चीस मज़दूर अब मज़बूती से उसके साथ खड़े रहते थे। ज़्यादातर कारखानों में उसे काम मिलना मुश्किल हो गया। फिर जब कोई  ऐसा काम नहीं मिलता तो वह लेबर चौक जाने लगा। हाँ, हर इतवार वह गाँव ज़रूर जाता था। अक्षयबर से चाबी लेकर घर की ख़ूब साफ़ -सफ़ाई करता था और फिर आँगन में बिस्तर बिछाकर देर तक चमकते तारों को उसी तरह देखता और कुछ कल्पना करता था जैसे बचपन से करता आया था।

फिर  एक दिन उसे एक कारखाने के कैम्पस में स्थित एक पुरानी इमारत को गिराने का काम एक लेबर कांट्रैक्टर के ज़रिए मिला। सात दिनों का काम था -- तीन पाली में चौबीसों घंटे । तीसरे दिन रात क़रीब आठ बजे टूटती इमारत के पश्चिमी हिस्से से शोर उठा। दूसरे हिस्सों से मज़दूर जब भागकर पहुँचे तो देखा, मनोहर ज़मीन पर चित्त पड़ा हुआ है। उसकी छाती पर करीब बीस किलो का कांक्रीट का एक टुकड़ा पड़ा हुआ है। मनोहर मर चुका था लेकिन उसकी आँखें खुली हुई आसमान की ओर देख रहीं थीं।

इत्तेफ़ाक से अक्षयबर एक दिन पहले ही अपने जिगरी यार से मिलने रोशनाबाद आया हुआ था और कमरे पर सो रहा था। ख़बर मिलते ही भागते हुए आया। आते ही वह मनोहर के निर्जीव शरीर से लिपट गया। कुछ देर बाद उसकी आँखों से बहते आँसू रुक गये और वह खड़ा हो गया। फिर सिर के पास बैठकर अपनी नम गर्म हथेलियों से मनोहर की खुली आँखों को बंद करते हुए पास खड़े मज़दूरों से बोला,"साला मरने के बाद भी आसमान के तारों को देखकर कोई कहानी सोच रहा है। अब इसको इस ज़िम्मेदारी से छुट्टी देनी होगी। अगर इसकी आँखें खुली छोड़ दी जायें तो इसका  सारा प्राण इसकी आँखों में  आ जायेगा और यह आसमान के तारों को देखते हुए धरती के अँधेरे के बारे में सोचता रहेगा। अरे, इसे चैन से मरने देने के लिए कुछ काम तो तुम लोगों को भी करना होगा।"

आगे की बात कहानी से बाहर की है, यहाँ की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी की गुप्त रहस्यमय बातें हैं! और आप सुनकर करेंगे भी क्या! करनी न धरनी, बस ऐसी बातों से थोड़ी देर भावुक होकर अपने संवेदनशील होने पर गर्व करते रहेंगे। वैसे भी आजकल तो सबको गर्व करने की आदत डाली जा रही है। 

चलिए, फिर भी इतना बताये दे रहे हैं कि आजकल इस औद्योगिक इलाके में मज़दूर मनोहर के टाइम से भी अधिक बवाली होते जा रहे हैं। आये दिन हड़ताल और जुलूस और लाठीचार्ज और गिरफ़्तारियाँ। एक दिन लाठीचार्ज के बाद पुलिस वाले एक टपरी में बैठकर चाय पी रहे थे। एक अधेड़ कांस्टेबल बोला,"बाल-बच्चे पालने के लिए इतना धतकरम करना होगा रोज़ -रोज़, यह तो कभी नहीं सोचा था। सोचते ही नहीं थे पहले कुछ!" साथ बैठा उससे कुछ कम उम्र का कांस्टेबल बोला, "हमको तो मन करता है हम भी बवाली बन जायें, जबर्जस्त बवाली। भैंचों, लगता ही नहीं कि इंसान हैं!"

आगे की उत्तर कथा में इतना और जोड़ दें कि अक्षयबर भी अब गाँव छोड़कर मज़दूरी करने आ गया है। उसी खोली में रहता है जिसमें मनोहर रहता था। अक्षयबर भी अब खुली छत पर सोता है और देर तक तारों को देखते हुए कुछ सोचता रहता है और उनके बारे में कुछ कहानियांँ बनाता रहता है, हालाँकि यहाँ रोशनाबाद में, इतनी धूल, धुंध और धुआँ है कि सितारे दिखते ही बहुत कम हैं और जो दिखते हैं वे बहुत मद्धम, टिमटिमाते हुए।

**

(6 Feb 2024)


Monday, February 05, 2024

आधी रात के बाद कुछ स्फुट विचार


 

आधी रात के बाद कुछ स्फुट विचार

एक तज़ुर्बेकार कामरेड अक्सर कहा करते थे कि मनहूस, ढोंगी, काहिल, कंजूस, स्वार्थी और लालची लोगों से दूर रहने में ही भलाई है। 

*

मेरा तज़ुर्बा बताता है तुच्छ (टुच्चे) और तिकड़मी (जोड़तोड़ करते रहने वाले) लोग अधिक डरावने होते हैं, चाहे वे समझदार हों या मूर्ख, इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। 

*

दूसरी बात, विनम्र तानाशाह अधिक भयानक होते हैं और उनके कमअक्ल, दब्बू अनुयायियों की तो पूछिए ही मत!

*

हर महत्वाकांक्षी और यश-प्रतिष्ठाकामी या कैरियरवादी व्यक्ति भीतर से अकेला और असुरक्षित और प्रतिशोधी होता है। वह हवा के रुख को भाँपकर अपना रुख तय करता है और अपनी राह के हर रोड़े को बेरहमी से किनारे लगाने से पहले पल भर भी नहीं सोचता। 

*

तीसरी बात, कविता लिखने का कर्मकाण्ड करने वाले हृदयहीन और हिसाबी-किताबी लोग भी बहुत विकर्षण पैदा करते हैं। अक्सर वे छुपे हुए स्वेच्छाचारी, कायर और समझौतापरस्त होते हैं और नाज़ुक वक़्त आने पर अननुमेय आचरण करते हैं। 

*

आम तौर पर स्वार्थी और आत्मकेंद्रित लोग साहित्य सैद्धान्तिकी के ग्रंथ के ग्रंथ घोखकर भी एक अच्छी कविता नहीं लिख सकते। लेकिन आजकल बहुत सारी कविताएँ पढ़कर भयावह बनावटी-सजावटी कविताएँ लिखने वालों की भी कमी नहीं है। यही वे लोग हैं जो कविता को उसी अँधेरे की ओर घसीटे लिये जा रहे हैं जिधर हमारा समाज जा रहा है। कोई भी फ़ासिस्ट या निरंकुश सत्ता ऐसे कवियों को पसंद करती है। 

*

ऐसे भी विकट लोग होते हैं जो मित्रता या प्यार-लगाव को बस कूटनीति समझते हैं। 

*

लम्बे तजुर्बे के बाद मैंने महसूस किया कि पारदर्शी और सरल हृदय वाले लोग मुँहफट, झगड़ालू और अड़भंगी भी हों तो विश्वसनीय होते हैं और प्यारे इंसान भी। 

*

अपारदर्शी और बनावटी लोग अक्सर आत्ममुग्ध और निरंकुश होते हैं।

*

मेरे बाबा किसी-किसी आदमी से मिलने के बाद कहते थे, "यह जितना ज़मीन के ऊपर है, उससे अधिक ज़मीन के नीचे है। इससे सतर्क रहना!

*

जाहिर है कि ऐसे सभी चरित्रों ने अपने विशेष गुण ख़ानदान के जीन्स से नहीं हासिल किये हैं। ये हमारे उस घोर मानवद्रोही समाज की उपज हैं जिसमें हम जी रहे हैं और जिससे दिनरात लड़कर ही हम अपनी बची-खुची मनुष्यता को बचा सकते हैं और खोयी हुई अच्छी चीज़ों के साथ ही कुछ नये मानवीय गुण भी अर्जित कर सकते हैं। 

***

(डायरी का एक इन्दराज, 5 फरवरी, 2024)


Tuesday, January 23, 2024

इतिहास का आख्यान


 इतिहास का आख्यान

इतिहास सफलता के सीधे-सपाट राजमार्ग से होकर कभी भी सफ़र नहीं करता। चाहे तुमने जितने भी श्रम और अनुभव से एक लंबी यात्रा में कुछ दूरियाँ नाप ली हों, सफलता का हर मुकाम बीच का एक पड़ाव होता है जो अगले संकट का पूर्वसंकेत देता है। 

हमेशा तात्कालिक सफलताओं के जश्न में डूबे लोग अक्सर यह जान नहीं पाते कि अगले ही मोड़ पर कौन सी दुर्निवार, या अप्रत्याशित विपत्ति पूरी तैयारी के साथ उनके लश्कर पर हमले के लिए घात लगाये बैठी है। 

क्रांति के विज्ञान के ग्रंथों के अधिकतर अध्यवसायी अध्येता अपनी गुमटियों में बैठे हुए कुछ नयी समस्याओं के ताले अनगढ़ या पुरानी जंग लगी चाबियों से खोलने की निष्फल कोशिश करते रहते हैं और बेशक़ इस दौरान कई बार वे नयी चीज़ों पर सोचने में जाने-अनजाने कुछ मदद भी कर देते हैं। पर दर्शनशास्त्र और समाज विज्ञान के प्रोफे़सर बस बाल की खाल निकालते हैं और हमें अमूर्त अकर्मकता से मोहाविष्ट करते हैं या फिर वे ऐसे कर्तव्यनिष्ठ भाष्यकार होते हैं जो इतिहास को उसी पुराने राजपथ पर चलने की नसीहत देते रहते हैं जैसे कोई बूढ़ा भिक्षु बचपन से अभ्यास किया हुआ कोई अबूझ मंत्र दुहराता हुआ घण्टा डोलाता रहता है। 

पराजय के दिनों में ऐसा भी ख़ूब होता है कि अधिकतर बूढ़े क्रान्तियोद्धा अतीत को अपना अंतिम शरण्य बना लेते हैं और पुरानी रणनीतियों से नयी लड़ाइयाँ लड़ने का हठ ठाने रहते हैं। 

और यह भी सच है कि बहुत कुछ खोकर ही हम समझ पाते हैं कि समय एक विस्तृत, बीहड़, बहुरूपा भूदृश्यों से भरा रणक्षेत्र है जिसमें अतिआत्मविश्वासी, अधैर्यवान योद्धाओं के खो जाने का एक लम्बा सिलसिला रहा है जो अक्सर इतिहास के पन्नों पर दर्ज नहीं पाया जाता। 

**

(डायरी का एक इन्दराज, सितम्बर 2021 का एक दिन, बीमारी के बिस्तर से)

Monday, January 22, 2024

मोहन मुक्त मोहन मुक्‍त जी विवेकमुक्ति की राह पर


मोहन मुक्त मोहन मुक्‍त जी विवेकमुक्ति की राह पर

____________________________________

मोहन मुक्‍त जी ने अपनी हालिया पोस्‍ट में यह दावा किया है कि मार्क्‍स और एंगेल्‍स का “पुरुष मन” ऐसा सोचता है: “हम स्त्रियों की सर्वोपभोग्‍यता के छिपे रूप को कानूनी रूप देना चाहते हैं”। मतलब यह कि मार्क्‍स व एंगेल्‍स स्त्रियों को सार्वजनिक उपभोग की वस्‍तु बना दिये जाने के बुर्जुआ समाज की अनौपचारिक सच्‍चाई को कानूनी जामा पहना देना चाहते हैं। 

जिसने कम्‍युनिस्‍ट पार्टी का घोषणापत्र पूरा न पढ़ा हो और किसी जगह से कुछ कॉपी-पेस्‍ट करके कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा जोड़ दिया हो। मार्क्‍स और एंगेल्‍स ने ऐसा कुछ लिखा ही नहीं है, यह दिखाने के लिए मैं घोषणापत्र के उस हिस्‍से को पूरा उद्धृत कर रही हूँ जिसे पूरा पढ़ने पर मोहन मुक्‍त जैसी व्‍याख्‍या वही कर सकता है, जो तर्क, बुद्धि, विवेक और युक्ति से मुक्ति पा चुका हो। पहले देख लेते हैं कि मार्क्‍स व एंगेल्‍स क्‍या लिखते हैं: 

“सारा बुर्जुआ वर्ग गला फाड़कर एक स्‍वर में चिल्‍ला उठता है – लेकिन तुम कम्‍युनिस्‍ट तो औरतों का समाजीकरण करा दोगे! 

“बुर्जुआ अपनी पत्‍नी को एक उत्‍पादन के उपकरण के सिवा और कुछ नहीं समझता। उसने सुन रखा है कि उत्‍पादन के उपकरणों का सामूहिक रूप में उपयोग होगा और, स्‍वभावत:, वह इसके अलावा और कोई निष्‍कर्ष नहीं निकाल पाता कि सभी चीज़ों की तरह औरतें भी सभी के साझे की हो जायेंगी।”

हम आगे मार्क्‍स व एंगेल्‍स के और उद्धृत करेंगे, लेकिन पहले इतने हिस्‍से पर दो शब्‍द। मार्क्‍स व एंगेल्‍स यहाँ बुर्जुआ वर्ग के इस नज़रिये पर टीका करते हैं कि चूँकि कम्‍युनिस्‍ट उत्‍पादन के उपकरणों के समाजीकरण की बात करते हैं और चूँकि बुर्जुआ वर्ग औरतों को भी महज़ उत्‍पादन के उपकरणों के तौर पर ही देखता है, इसलिए कम्‍युनिस्‍ट जब उत्‍पादन के उपकरणों के समाजीकरण की बात करते हैं, तो बुर्जुआजी उसमें औरतों के समाजीकरण को भी देखती है। अब आगे देखते हैं कि मार्क्‍स व एंगेल्‍स क्‍या लिखते हैं: 

“वह (बुर्जुआ) यह सोच भी नहीं सकता कि दरअसल मकसद यह है कि औरतों की मातृ उत्‍पादन उपकरण होने की स्थिति का खा़त्‍मा कर दिया जाय। बाकी तो बात यह है कि हमारे बुर्जुआ के औरतों के समाजीकरण के ख़िलाफ़, जो उसके दावे के मुताबिक कम्‍युनिस्‍टों द्वारा खुल्‍लमखुल्‍ला और आधिकारिक रूप में स्‍थापित किया जायेगा, सदाचारी आक्रोश से अधिक हास्‍यास्‍पद दूसरी और कोई चीज़ नहीं है। कम्‍युनिस्‍टों को स्त्रियों का समाजीकरण प्रचलित करने की कोई ज़रूरत नहीं है; उनकी यह स्थिति तो अनादि काल से चली आ रही है। 

“हमारे बुर्जुआ इसी से सन्‍तोष न करके कि वे अपने मज़दूरों की बहू-बेटियों का अपनी मर्जी के मुताबिक इस्‍तेमाल कर सकते हैं, सामान्‍य वेश्‍याओं की तो बात ही क्‍या, एक-दूसरे की बीवियों पर हाथ पर साफ़ करने में विशेष आनन्‍द प्राप्‍त करते हैं। 

“बुर्जुआ विवाह वास्‍तव में साझे की पत्नियों की ही व्‍यवस्‍था है, इसलिए कम्‍युनिस्‍टों के ख़िलाफ़ अधिक से अधिक यही आरोप लगाया जा सकता है कि वे स्त्रियों के पाखण्‍डपूर्वक छिपाये हुए समाजीकरण की जगह खुले तौर पर कानूनी समाजीकरण लाना चाहते हैं। बाकी तो यह बात अपने आप साफ़ है कि वर्तमान उत्‍पादन पद्धति के उन्‍मूलन के साथ-साथ इस पद्धति से उत्‍पन्‍न स्त्रियों के समाजीकरण का, अर्थात सार्वजनिक और निजी, दोनों ही प्रकार की वेश्‍यावृत्ति का अनिवार्यत: उन्‍मूलन हो जायेगा।” 

अब कोई भी सामान्‍य विवेक रखने वाला व्‍यक्ति देख सकता है कि समाजवाद में स्त्रियों के समाजीकरण का अर्थ यह है कि वे उत्‍पादन के उपकरण या बच्‍चे पैदा करने का यन्‍त्र मात्र नहीं रह जायेंगी, बल्कि सच्‍चे मायने में एक स्‍वतन्‍त्र व्‍यक्ति (free individual) बन जायेंगी; जबकि दूसरी ओर, पूँजीवादी समाज में एक उत्‍पादन के उपकरण के तौर पर, यानी बच्‍चे पैदा करने के यन्‍त्र के तौर पर, पूँजीपति वर्ग द्वारा कर दिया गया उनका अनौपचारिक समाजीकरण समाप्‍त हो जायेगा क्‍योंकि समाजवादी समाज में वे बच्‍चे पैदा करने की यन्‍त्र या उत्‍पादन का उपकरण नहीं रह जायेंगी। 

कोई बेईमान या मूर्ख व्‍यक्ति ही समाजीकरण, या सामुदायिकीकरण, की जगह सर्वोपभोग्‍यता शब्‍द का इस्‍तेमाल कर सकता है। मार्क्‍स व एंगेल्‍स ने इसके लिए community या socialisation शब्‍द का इस्‍तेमाल किया है, जो पूँजीवादी समाज में अलग रूप लेता है, जबकि मार्क्‍स व एंगेल्‍स बताते हैं कि समाजवादी समाज में इसका अर्थ होगा औरतों की मुक्ति, फैसला लेने की उनकी आज़ादी और उनके मालकरण की समाप्ति। 

मार्क्‍स व एंगेल्‍स की अन्‍य रचनाओं का भी जिसने गम्‍भीर अध्‍ययन किया होगा वह जानता है कि इस विषय में मार्क्‍स व एंगेल्‍स के क्‍या विचार थे। मसलन, एंगेल्‍स ‘परिवार, व्‍यक्तिगत सम्‍पत्ति और राज्‍य की उत्‍पत्ति’ में विशेष तौर पर स्त्रियों की गुलामी के स्रोत के तौर पर वर्ग और निजी सम्‍पत्ति के उद्भव को प्रदर्शित करते हैं और बताते हैं कि एकनिष्‍ठ प्‍यार ही मानवीय रोमाण्टिक प्‍यार का उच्‍चतम व उन्‍नततम रूप है और वह सामाजिक तौर पर एक समाजवादी समाज में ही सम्‍भव होगा जब हर रूप में स्त्रियों की गुलामी का अन्‍त हो चुका होगा। यह अलग से लम्‍बी चर्चा का विषय है जिसमें मैं यहाँ नहीं जा सकती। 

लेकिन इतना स्‍पष्‍ट है कि या तो मोहन मुक्‍त ने पूरा घोषणापत्र ढंग से पढ़ा नहीं है, किसी मूर्ख ने उन्‍हें कोई उद्धरण ग़लत अनुवाद करके भेज दिया और उन्‍होंने जाँच-पड़ताल के बिना चेंप दिया; दूसरी सम्‍भावना यह है कि मोहन मुक्‍त को मार्क्‍स व एंगेल्‍स की समृद्ध साहित्यिक शैली समझ में ही न आयी हो; तीसरी सम्‍भावना यह है कि यह शुद्ध रूप से बौद्धिक बेईमानी का मामला हो। जो भी हो, वह तो मुक्‍त जी ही बतायेंगे। लेकिन बेहतर होता कि ऐसा वनलाइनर डाल कर मार्क्‍स और एंगेल्‍स पर आरोपित करने से पहले वह अपनी मित्र मण्‍डली में इस विषय के किसी जानकार से बात कर लेते। जल्‍दबाज़ी हमेशा नुकसानदेह होती है। 

ताकि सनद रहे, मार्क्‍स व एंगेल्‍स का उपरोक्‍त समूचा उद्धरण नीचे अंग्रेजी में भी दे रही हूँ। 

“But you Communists would introduce community of women, screams the bourgeoisie in chorus. “The bourgeois sees his wife a mere instrument of production. He hears that the instruments of production are to be exploited in common, and, naturally, can come to no other conclusion that the lot of being common to all will likewise fall to the women. 

“He has not even a suspicion that the real point aimed at is to do away with the status of women as mere instruments of production. For the rest, nothing is more ridiculous than the virtuous indignation of our bourgeois at the community of women which, they pretend, is to be openly and officially established by the Communists. The Communists have no need to introduce community of women; it has existed almost from time immemorial. Our bourgeois, not content with having wives and daughters of their proletarians at their disposal, not to speak of common prostitutes, take the greatest pleasure in seducing each other’s wives. Bourgeois marriage is, in reality, a system of wives in common and thus, at the most, what the Communists might possibly be reproached with is that they desire to introduce, in substitution for a hypocritically concealed, an openly legalised community of women. For the rest, it is self-evident that the abolition of the present system of production must bring with it the abolition of the community of women springing from that system, i.e., of prostitution both public and private.”

*************


विवेकमुक्ति की राह पर मोहन मुक्‍त के बढ़ते कदम 

..........................................................................................

मोहन मुक्‍त जी ने ‘कम्‍युनिस्‍ट घोषणापत्र’ में स्त्रियों के समाजीकरण के बारे में मार्क्‍स व एंगेल्‍स के विचारों पर अपने “मुक्‍त” विचार अभिव्‍यक्‍त किये थे (मोहन मुक्‍त की फेसबुक पोस्‍ट का लिंक

https://m.facebook.com/story.php...

इस पर मैंने अपने कुछ “अमुक्‍त” (पढ़ें “प्रतिबद्ध”) विचार व्‍यक्‍त किये थे (मेरी फेसबुक पोस्‍ट का लिंक

https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=6947984525257029&id=100001366526885&mibextid=9R9pXO

 मैंने इंगित किया था कि: 

1. मार्क्‍स व एंगेल्‍स ने सर्वोपभोग्‍यता शब्‍द का प्रयोग ही नहीं किया है, यह जिस भी अनुवाद में है, वह सही अनुवाद नहीं है; वैसे भी, ऐसी युगान्‍तरकारी व ऐतिहासिक रचनाओं के कई अनुवादों को देखे बिना और उसके समूचे सन्‍दर्भ को पढ़े बग़ैर, किसी एक वाक्‍य को बिना समझे, सिद्धान्‍त प्रतिपादन नहीं करना चाहिए। 

2. दूसरी बात, अगर आपने ग़लत अनुवाद को भी पढ़ा है, तो भी, अगर आपने उक्‍त उद्धरण के ऊपर-नीचे पूरी पढ़ाई की होती तो आपको ग़लतफ़हमी नहीं होती। 

3. तीसरी बात, मार्क्‍स ने उक्‍त उद्धरण में वास्‍तव में बुर्जुआ समाजीकरण (यानी स्त्रियों के एक उत्‍पादन के उपकरण के रूप में बुर्जुआ वर्ग द्वारा एक वर्ग के तौर पर निजीकरण या ‘समाजीकरण’) और सर्वहारा समाजीकरण (यानी स्त्रियों की एक स्‍वतन्‍त्र व्‍यक्ति के तौर पर सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक जीवन में अस्तित्‍वमान रहने और हस्‍तक्षेप करने की क्षमता) में अन्‍तर बताया है। 

इस ग़लती को शायद कहीं न कहीं मोहन मुक्‍त जी ने रजिस्‍टर किया है लेकिन उस पर एक तरहम-बरहम करने वाली पोस्‍ट डाली है। इसमें उन्‍होंने लिखा है: 

“मान लीजिये आप कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो लिख रहे हैं और मैं बुर्जुआ की हैसियत से आप पर आरोप लगाऊं कि आप अवैध संबंधों या किसी भी रूप में स्त्री की सर्वोपभोग्यता को बढ़ावा दे रहे हैं तो आपको मुझे ये नहीं कहना चाहिए कि

" स्त्री की सर्वोपभोग्यता तो छुपे हुए रूप में मौजूद ही है और आप पर ज़्यादा से ज़्यादा स्त्री की सर्वोपभोग्यता को कानूनी और औपचारिक रूप देने का आरोप लगाया जा सकता है "

बतौर कम्युनिस्ट आपको मुझे ये जवाब देना चाहिए कि मैं बुर्जुआ जिसे स्त्री की सर्वोपभोग्यता कह रहा हूँ वो स्त्री की सर्वोपभोग्यता या community of women नहीं बल्कि community of sexes है क्योंकि स्त्री कोई भी संबंध अकेले तो नहीं बना रही है ना”

दिक्‍कत यह है कि जब आप विज्ञान के मसले में विनम्रता से अपनी ग़लती को स्‍वीकारने की बजाय व्‍यक्तिवाद के कारण एक अरक्षणीय की रक्षा करने का प्रयास करते हैं, तो अन्‍तरविरोधों के और भी शर्मनाक गड्ढे में गिर जाते हैं। 

यह पोस्‍ट दिखलती है कि मोहन मुक्‍त जी को अभी भी नहीं समझ में आया है कि मार्क्‍स के स्त्रियों के समाजीकरण के बारे में क्‍या विचार हैं। वह थोड़ा ठहर कर समझ लेते और उसके बाद लिखते तो बेहतर होता। 

पहली बात, मार्क्‍स अवैध सम्‍बन्‍धों के रूप में स्त्रियों की सर्वोपभोग्‍यता को कानूनी जामा पहनाने की बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि स्त्रियों के बुर्जुआ समाजीकरण की आलोचना कर रहे हैं, उसकी खिल्‍ली उड़ा रहे हैं। 

दूसरी बात, स्त्रियों के ही समाजीकरण की माँग की जा सकती है, क्‍योंकि वह दमित जेण्‍डर व दमित लिंग है। पुरुष का तो समाजीकरण हुआ ही है, वह शासक जेण्‍डर व शासक लिंग है (इसका यह अर्थ नहीं है कि हर पुरुष शासक है; इसका रिश्‍ता केवल सामाजिक दमन के ऐतिहासिक सम्‍बन्‍धों की सामान्‍यता से है)। मार्क्‍स एक क्रानितकारी स्‍टैण्‍डप्‍वाइण्‍ट से स्त्रियों के क्रान्तिकारी समाजीकरण (दूसरे शब्‍दों में, उनकी सच्‍ची सर्वहारा व क्रान्तिकारी मुक्ति) की ही माँग कर सकते हैं, दोनों लिंगों के समाजीकरण की नहीं। जो नहीं है, वही माँगा जा सकता है। 

तीसरी बात, स्‍त्री किसी के साथ सम्‍बन्‍ध बना रही है, इससे दोनों लिंग और/या जेण्‍डर समाजीकृत नहीं हो जाते। सम्‍बन्‍ध एक सत्‍ता-सम्‍बन्‍ध, एक पावर रिलेशन है, तो वहाँ दोनों लिंगों/जेण्‍डर की समान स्थिति नहीं है। लिहाज़ा, सिर्फ़ इसलिए कि दो जेण्‍डर सम्‍बन्‍ध बना रहे हैं, एक दमनकारी सन्‍दर्भ में सम्‍बन्‍ध बना रहे हैं, यह नहीं साबित होता कि दोनों ही दमित व शासित हैं। 

अब मुक्‍त जी विवेकमुक्ति की राह पर आगे बढ़ते हुए कुतर्क कर रहे हैं। मैं फिर दोस्‍ताना आग्रह करूँगी कि वे आनन-फ़ानन में जवाब देने की बजाय, मसले की ठीक से जाँच करें, समझ बनायें, फिर दावे करें। वैसे मैं मुक्‍त जी की इस बात से सहमत हूँ कि आप तर्कों व तथ्‍यों के बन्‍धन से मुक्‍त होकर, पूर्ण मुक्ति के साथ जो चाहें वह मानने को मुक्‍त हैं। लेकिन ऐसे थोड़े होता है! वैसे, मोहन मुक्‍त जी की इस मुक्‍त बात से मुझे अमुक्‍त रूप में पीड़ा पहुँची है कि वह ये सारे सवाल एक बुर्जुआ के रूप में कर रहे थे!


Sunday, January 21, 2024

तीन श्रेणियों की कविताएँ ...


अब नये भारत में तीन श्रेणियों की कविताएँ ही मान्य होंगी। इनसे इतर लिखने वालों को सामाजिक बहिष्कार और शासकीय प्रतिबंध का सामना करना होगा। 

वे तीन श्रेणियाँ हैं : भक्ति मार्ग की कविताएँ (इनके उन्मादी रूप और प्रेम-अहिंसावादी समन्वयवादी रूप), 

श्रृंगार रस की कविताएँ (इनमें नव रीतिकालीन, रोमानी और योनि-शिश्नवादी आदि सभी शामिल होंगी) और वीर रस की कविताएँ (इनमें चारण-गान, हिन्दू गौरव की रौद्र हुंकार वाली कविताएँ और विशेष रूप से पाकिस्तान को ललकारती प्रचंड राष्ट्र भक्ति की कविताएँ शामिल होंगी)! 

शेष किस्म की कविताएँ लिखने वाले पकौड़े तलेंगे या छोले-भटूरे के ठेले लगायेंगे। कहीं गली-कूचे में लगायेंगे, भव्य मन्दिरों, साहित्य-कला की अकादमियों और साहित्य महोत्सवों के बाहर लगाने की इजाज़त कतई नहीं मिलेगी। ये लोग ऐसे पवित्र स्थलों पर कुछ शरारत कर सकते हैं और देश के विश्वगुरु बनने की राह में अड़चनें पैदा कर सकते हैं।

**

(21 Jan 2024)

Friday, January 19, 2024

हमारे फ़ासिस्ट समय की कुछ चीज़ें, मसलन प्यार

 

हमारे फ़ासिस्ट समय की कुछ चीज़ें, मसलन प्यार

पार्कों में हत्यारे घूमते रहते थे। 

हमें जंगली फूलों से भरे सुनसान क़ब्रिस्तान तक

जाना पड़ता था आत्मीय एकांत की तलाश में

कई उजाड़ दी गयी बस्तियों और

ढहा दिये गये धर्मस्थलों के मलबे को 

पार करते हुए। 

कभी किसी इतवार हम नदियों तक

जाने का समय भी अगर निकाल पाते थे तो

हमारी डोंगियों से गँदले पानी में उतराती लाशें

टकराती रहती थीं और कई बार वे

सदियों से जमी

ऐतिहासिक गाद में फँस जाया करती थीं। 

मनुष्य की तरह जीना और सच्चे दिल से

प्यार करना और दोस्तियाँ निभाना

एक ख़तरनाक और बेहद जोखिम भरा 

काम बना रहा हमारे समय में। 

सबकुछ शास्त्रोक्त विधि-विधान से करने का

निर्देश दिया गया था नागरिकों को

और यह ध्यान रखना था कि राष्ट्रीय गौरव को

कोई आँच न आये। 

इसमें हमारा कोई दोष नहीं था कि हम

एक फासिस्ट समय में पल -बढ़कर बड़े हुए थे और

प्यार करने की उम्र तक का सफ़र तय किया था। 

बस इस बात का संतोष था हमें कि

अजातशत्रु महाकवियों की अलौकिक

प्रेम कविताओं से दूर रहे हम हमेशा, 

कला महोत्सवों के लिए कुजात बने रहे

और ताक़तवर लोग हमें संदिग्ध और

ख़तरनाक मानते रहे। 

विपत्तिग्रस्त अभागों की अँधेरी दुनिया में

हमारा बसेरा रहा ज़्यादातर समय

लेकिन बग़ावत की तैयारियों में 

मशग़ूल होने के बावजूद हमने

प्यार का उतना तज़ुर्बा तो हासिल 

कर ही लिया कि हत्यारों की गोली से

मरने के ठीक पहले के पलों में मुस्कुरा सकें

कुछ दिनों का कोई संग-साथ, 

कोई प्रसंग या कोई प्यारी सी बात याद करके,

या क़ैद-ए-तनहाई में भी 

प्यार का कोई बेइंतहा ख़ूबसूरत और दिलक़श

गीत गा सकें

दिल की पूरी गहराई से, 

फेंफड़ों की पूरी ताक़त से। 

**

(19 Jan 2024)

Thursday, January 18, 2024

नारीहरूका प्रेम कविताहरू वारे


नेपाली कवि, अनुवादक, ऐक्टिविस्ट कामरेड बलराम तिमल्सिना ने मेरी इस कविता का ख़ूबसूरत नेपाली अनुवाद किया है। नीचे मैंने मूल कविता भी है। 

नारीहरूका प्रेम कविताहरू वारे 

एउटा तीतो,अप्रिय तथा बास्तविक कविता ।

जब नारीहरू कविता लेख्छन 

प्राय जसो

ती कविताहरू 

भावनाले लछप्प भिजेका 

र बनावटी हुने गर्दछन् 

किन कि -

ती कवितामा 

जुन कुरा तिनीहरू लेख्न चाहन्छन 

र लेखेर मन हलुका बनाउन चाहन्छन 

ती कुनै पनि कुरा हुदैनन् ।

त्यसैले 

प्रेम कविता लेखिसकेपछि 

उनीहरूको मन 

अझ गह्रुङ्गो र अझ उदास हुन पुग्छ।

नारीहरूले 

आफ्नो सच्चा प्रेमीकै लागि 

प्रेम कविता लेख्छन भने पनि 

जति चाहे पनि

त्यसमा भएका भएका कुरा लेख्दैनन्

सायद उनीहरू जोसँग प्रेम गर्छन 

उसलाई दु:खी बनाउन चाहदैनन् ।

सायद उनीहरू 

आफ्नो प्रेमीसँग विश्वास पनि गर्दैनन्

या आफ्नो जिन्दगीका

ती सारा कुरुपताहरू अरु कसैसँग पोखेर

अझ बढी असुरक्षित हुन चाहदैनन् ।

या त हुन सक्छ

आफैंले छलछाम गरेर 

कुनै अदृश्य अत्याचारीसँग बदला लिन चाहन्छन‌।

नारीहरू 

एउटा लामो शोक गीत  बन्ला 

र दिग-दिगान्तसम्म 

एउटा दीर्घ विलाप गुञ्जेला कि भन्ने डरले

कैयौं पटक सच्चा प्रेम कविता लेख्दैन‌न्‌ ।

नारीहरू चाहन्छन

यस्तो यथार्थ प्रेम कविता लेख्न सकियोस

जुन कवितामा 

मनका सारा बदमासीहरू

कल्पनाहरू ,उडानहरू 

आफ्ना समस्त कमजोरीहरू

र पछुतोहरूको 

खुलस्त बयान होस 

त्यो पनि 

वाल्यकालदेखि युवती होउन्जेलसम्म 

कहिले कहिले

कहाँ कहाँ 

अँध्यारोमा ,भीडभाडमा ,

एक्लो हुँदा ,सुनसानको समयमा 

होहल्लाको बीचमा ,यात्रामा 

घरमा ,रातमा ,दिनमा 

कस‌ कसले

उनीहरूलाई थिचे,

अँठ्याए ,

माडमुड पारे,

कुल्चे,

घिसारे,

ताछे,पिटे, निचोरे चिथोरे

अनि कतिले

कति पटक 

उनीहरूलाई‌ ढाँटे,धोका दिए‌

उल्लू बनाए 

पाठ पढाए र मोलमोलाई गरे ।

प्रेम कविता लेखेर नारीहरू

आफ्नो शरीरकोभन्दा बढी

आफ्नो आत्माका दागहरू देखाउन चाहन्छन ,

तर त्यसको विनासकारी परिणाम सम्झेर झस्किन्छन‌।

नारीहरू प्रेम कविता लेख्दा 

प्राय जसो 

भावनाहरूको निस्फिक्री बयान होइन

बरु बाँच्ने एउटा कला 

या औजारको रुपमा लेख्छन ।

अनि 

गजबका प्रेम कविता लेख्ने दावा गर्ने

जो जो कलम- धुरन्धरहरू छन 

तिनीहरू प्राय 

कुनै अर्थोकै कुरालाई प्रेम हो भनेर बुझ्छन 

र जिन्दगीभरि 

त्यही भ्रममा बाँचिरहन्छन‌ ।

अपवाद स्वरुप 

कुनै समृध्द कुलीन नारीहरू 

शक्तिसाली पनि बन्छन 

तिनीहरू प्रेम गर्नका लागि

एक या एकभन्दा बढी पुरुषहरू पाल्छन् 

या त धेरै पुरुषहरू

तिनलाई प्रेम गर्न लालयित हुन पुग्छन् ।

ती नारीहरू पनि 

उमेरको एउटा खास 

राम रमाइलोमा बिताइसके पछि

प्रेमको अभावमा 

बाँकि सारा उमेर तड्पिरहन्छन 

र त्यो कुराको भर्पाई

सत्ता,सम्भोग र प्रसिध्दिले गर्छन ।

वास्तविक प्रेम कविता लेख्न

नारीहरू यथार्थवादी बन्न चाहन्छन्

तर बाँच्नु पर्ने शर्तले

उनीहरूलाई 

या त छायाँवादी बनाइदिन्छ

या ह उत्तर आधुनिक बनाइदिन्छ।

जे कुरा पाइदैन 

त्यसलाई उत्तर-सत्य भनिदिएपछि

अलिकति भने पनि राहत त हुने नै भयो।

सोच्ने गर्छु-

एसएमएस र ह्वाट्सअपले

जसरी प्रेमपत्रलाई सिध्यायो

अब त्यस्तै कुनै नयाँ लहर आवस

संसारको कुरुपतालाई

अझ नाङ्गो बनाइदियोस

नक्कली प्रेम कविताको पाखण्ड लगायत

अरु सबै कुरालाई मेटाइदेओस 

र प्रेम कवितामा 

यथार्थमै प्रेमलाई भित्र्याओस ।

**

मूल कविता:

|| स्त्रियों की प्रेम कविताओं के बारे में एक अप्रिय, कटु यथार्थवादी कविता ||

आम तौर पर स्त्रियाँ जब प्रेम कविताएँ लिखती हैं 

तो ज़्यादातर, वे भावुकता से लबरेज़ 

और बनावटी होती हैं क्योंकि 

उनमें वे सारी बातें नहीं होती हैं 

जो वे लिख देना चाहती हैं और 

लिखकर हल्का हो लेना चाहती हैं |

इसलिए प्रेम कविताएँ लिखने के बाद 

उनका मन और भारी, और उदास हो जाता है |

स्त्रियाँ जब अपने किसी सच्चे प्रेमी के लिए भी 

प्रेम कविताएँ लिखती हैं 

तो उसमें सारी बातें सच्ची-सच्ची नहीं लिखतीं 

चाहते हुए भी

शायद वे जिससे प्रेम करती हैं 

उसे दुखी नहीं करना चाहतीं 

या शायद वे उसपर भी पूरा भरोसा नहीं करतीं,

या शायद वे अपनी ज़िंदगी की कुरूपताओं को 

किसी से बाँटकर 

और अधिक असुरक्षित नहीं होना चाहतीं, 

या फिर शायद, वे स्वयं कपट करके किसी अदृश्य 

अत्याचारी से बदला लेना चाहती हैं |

स्त्रियाँ कई बार इस डर से सच्ची प्रेम कविताएँ नहीं लिखतीं 

कि वे एक लंबा शोकगीत बनने लगती हैं, 

और उन्हें लगता है कि दिग-दिगन्त तक गूँजने लगेगा 

एक दीर्घ विलाप |

स्त्रियाँ चाहती हैं कि एक ऐसी 

सच्ची प्रेम कविता लिखें 

जिसमें न सिर्फ़ मन की सारी आवारगियों, फंतासियों,

उड़ानों का, अपनी सारी बेवफ़ाइयों और पश्चातापों का बेबाक़ बयान हो, बल्कि यह भी कि 

बचपन से लेकर जवान होने तक 

कब, कहाँ-कहाँ, अँधेरे में, भीड़ में , अकेले में, 

सन्नाटे में, शोर में, सफ़र में, घर में, रात में, दिन में,

किस-किस ने उन्हें दबाया, दबोचा, रगड़ा, कुचला, 

घसीटा, छीला, पीसा, कूटा और पछींटा

और कितनों ने कितनी-कितनी बार उन्हें ठगा, धोखा दिया,

उल्लू बनाया, चरका पढ़ाया, सबक सिखाया और 

ब्लेकमेल किया |

स्त्रियाँ प्रेम कविताएँ लिखकर शरीर से भी ज़्यादा

अपनी आत्मा के सारे दाग़-धब्बों को दिखलाना चाहती हैं 

लेकिन इसके विनाशकारी नतीज़ों को सोचकर 

सँभल जाती हैं |

स्त्रियाँ अक्सर प्रेम कविताएँ भावनाओं के 

बेइख़्तियार इज़हार के तौर पर नहीं 

बल्कि जीने के एक सबब, या औज़ार के तौर पर लिखती हैं |

और जो गज़ब की प्रेम कविताएँ लिखने का 

दावा करती कलम-धुरंधर हैं 

वे दरअसल किसी और चीज़ को प्रेम समझती हैं 

और ताउम्र इसी मुगालते में जीती चली जाती हैं |

कभी अपवादस्वरूप, कुछ समृद्ध-कुलीन स्त्रियाँ 

शक्तिशाली हो जाती हैं, 

वे प्रेम करने के लिए एक या एकाधिक 

पुरुष पाल लेती हैं या फिर खुद ही ढेरों पुरुष

उन्हें प्रेम करने को लालायित हो जाते हैं |

वे स्त्रियाँ भी उम्र का एक खासा हिस्सा 

वहम में तमाम करने के बाद 

प्रेम की वंचना में बची सारी उम्र तड़पती रहती हैं 

और उसकी भरपाई प्रसिद्धि, सत्ता और 

सम्भोग से करती रहती हैं |

स्त्रियाँ सच्ची प्रेम कविताएँ लिखने के लिए 

यथार्थवादी होना चाहती हैं, 

लेकिन जीने की शर्तें उन्हें या तो छायावादी बना देती हैं 

या फिर उत्तर-आधुनिक |

जो न मिले उसे उत्तर-सत्य कहकर 

थोड़ी राहत तो मिलती ही है !

सोचती हूँ, एस.एम.एस. और व्हाट्सअप ने 

जैसे अंत कर दिया प्रेम-पत्रों का, 

अब आवे कोई ऐसी नयी लहर 

कि नक़ली प्रेम कविताओं का पाखण्ड भी मिटे 

और दुनिया की वे कुरूपताएँ थोड़ी और 

नंगी हो जाएँ जिन्हें मिटा दिया जाना है 

प्रेम कविताओं में सच्चाई और प्रेम को 

प्रवेश दिलाने के लिए |

**

Tuesday, January 16, 2024

नाटक में समकालीनता

 

नाटक में समकालीनता

हमें मंच पर अँधेरे को प्रस्तुत करना था

उसकी सम्पूर्ण भयावहता के साथ। 

लेकिन हल्की सी रोशनी का अहसास

बचा ही रह जाता था किसी न किसी तरह से। 

तब हमने मंच और समूचे प्रेक्षागृह को

अधिकतम सम्भव रंगारंग रोशनी 

और नेपथ्य को संगीत और शोर से भर दिया

एक कला-साहित्य महोत्सव की तरह

और फिर अचानक सारी रोशनी ग़ायब

और एकदम सन्नाटा! 

फिर लोगों ने आसपास के घुप्प अँधेरे को

शिद्दत के साथ महसूस किया

और दमघोंटू चुप्पी को भी। 

पर्दे पर देखीं सबने ख़ौफ़ की परछाइयाँ

और मंच से ख़ून बहता हुआ, 

चुपचाप नीचे उतरता हुआ, 

प्रेक्षागृह में भरता हुआ। 

**

(16 Jan 2024)


Wednesday, December 27, 2023

तज़ुर्बा

 

तोल्स्तोय ने कहा था कि हम तबतक सोये रहते हैं जबतक कि प्यार में नहीं पड़ जाते। 

नाचीज़ का ख़याल अपने तजुर्बे के हिसाब से इसमें कुछ जोड़ने का है।

 कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो सिर्फ़ तबतक जगे रहते हैं जबतक किसी के प्यार में नहीं पड़ जाते। उसके बाद वो दीन-दुनिया के हालात से ग़ाफ़िल गहरी नींद में डूब जाते हैं। 

कुछ लोग आदत से मजबूर सोते रह जाते हैं और प्यार करने का मौक़ा आकर कुछ देर दस्तक देने के बाद चला जाता है। 

कुछ लोग सोने से इतना प्यार करते हैं कि प्यार में पड़कर नींद का चैन खोने की सोचते ही नहीं। 

कुछ लोग इसलिए प्यार करते हैं कि बाक़ी ज़िन्दगी चैन की नींद सो सकें, हालाँकि आख़िरकार मायूसी ही उनके हाथ लगती है। 

कुछ लोगों को पूरी ज़िन्दगी के लिए एक दूसरे की नींद हराम करने का शैतानी ख़याल इस कदर सताता है कि वे चट प्यार फट ब्याह कर लेते हैं। 

**

(डायरी में दर्ज कुछ बहके-बिगड़े ख़यालात)

(27 Dec 2023)