Monday, January 22, 2024

मोहन मुक्त मोहन मुक्‍त जी विवेकमुक्ति की राह पर


मोहन मुक्त मोहन मुक्‍त जी विवेकमुक्ति की राह पर

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मोहन मुक्‍त जी ने अपनी हालिया पोस्‍ट में यह दावा किया है कि मार्क्‍स और एंगेल्‍स का “पुरुष मन” ऐसा सोचता है: “हम स्त्रियों की सर्वोपभोग्‍यता के छिपे रूप को कानूनी रूप देना चाहते हैं”। मतलब यह कि मार्क्‍स व एंगेल्‍स स्त्रियों को सार्वजनिक उपभोग की वस्‍तु बना दिये जाने के बुर्जुआ समाज की अनौपचारिक सच्‍चाई को कानूनी जामा पहना देना चाहते हैं। 

जिसने कम्‍युनिस्‍ट पार्टी का घोषणापत्र पूरा न पढ़ा हो और किसी जगह से कुछ कॉपी-पेस्‍ट करके कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा जोड़ दिया हो। मार्क्‍स और एंगेल्‍स ने ऐसा कुछ लिखा ही नहीं है, यह दिखाने के लिए मैं घोषणापत्र के उस हिस्‍से को पूरा उद्धृत कर रही हूँ जिसे पूरा पढ़ने पर मोहन मुक्‍त जैसी व्‍याख्‍या वही कर सकता है, जो तर्क, बुद्धि, विवेक और युक्ति से मुक्ति पा चुका हो। पहले देख लेते हैं कि मार्क्‍स व एंगेल्‍स क्‍या लिखते हैं: 

“सारा बुर्जुआ वर्ग गला फाड़कर एक स्‍वर में चिल्‍ला उठता है – लेकिन तुम कम्‍युनिस्‍ट तो औरतों का समाजीकरण करा दोगे! 

“बुर्जुआ अपनी पत्‍नी को एक उत्‍पादन के उपकरण के सिवा और कुछ नहीं समझता। उसने सुन रखा है कि उत्‍पादन के उपकरणों का सामूहिक रूप में उपयोग होगा और, स्‍वभावत:, वह इसके अलावा और कोई निष्‍कर्ष नहीं निकाल पाता कि सभी चीज़ों की तरह औरतें भी सभी के साझे की हो जायेंगी।”

हम आगे मार्क्‍स व एंगेल्‍स के और उद्धृत करेंगे, लेकिन पहले इतने हिस्‍से पर दो शब्‍द। मार्क्‍स व एंगेल्‍स यहाँ बुर्जुआ वर्ग के इस नज़रिये पर टीका करते हैं कि चूँकि कम्‍युनिस्‍ट उत्‍पादन के उपकरणों के समाजीकरण की बात करते हैं और चूँकि बुर्जुआ वर्ग औरतों को भी महज़ उत्‍पादन के उपकरणों के तौर पर ही देखता है, इसलिए कम्‍युनिस्‍ट जब उत्‍पादन के उपकरणों के समाजीकरण की बात करते हैं, तो बुर्जुआजी उसमें औरतों के समाजीकरण को भी देखती है। अब आगे देखते हैं कि मार्क्‍स व एंगेल्‍स क्‍या लिखते हैं: 

“वह (बुर्जुआ) यह सोच भी नहीं सकता कि दरअसल मकसद यह है कि औरतों की मातृ उत्‍पादन उपकरण होने की स्थिति का खा़त्‍मा कर दिया जाय। बाकी तो बात यह है कि हमारे बुर्जुआ के औरतों के समाजीकरण के ख़िलाफ़, जो उसके दावे के मुताबिक कम्‍युनिस्‍टों द्वारा खुल्‍लमखुल्‍ला और आधिकारिक रूप में स्‍थापित किया जायेगा, सदाचारी आक्रोश से अधिक हास्‍यास्‍पद दूसरी और कोई चीज़ नहीं है। कम्‍युनिस्‍टों को स्त्रियों का समाजीकरण प्रचलित करने की कोई ज़रूरत नहीं है; उनकी यह स्थिति तो अनादि काल से चली आ रही है। 

“हमारे बुर्जुआ इसी से सन्‍तोष न करके कि वे अपने मज़दूरों की बहू-बेटियों का अपनी मर्जी के मुताबिक इस्‍तेमाल कर सकते हैं, सामान्‍य वेश्‍याओं की तो बात ही क्‍या, एक-दूसरे की बीवियों पर हाथ पर साफ़ करने में विशेष आनन्‍द प्राप्‍त करते हैं। 

“बुर्जुआ विवाह वास्‍तव में साझे की पत्नियों की ही व्‍यवस्‍था है, इसलिए कम्‍युनिस्‍टों के ख़िलाफ़ अधिक से अधिक यही आरोप लगाया जा सकता है कि वे स्त्रियों के पाखण्‍डपूर्वक छिपाये हुए समाजीकरण की जगह खुले तौर पर कानूनी समाजीकरण लाना चाहते हैं। बाकी तो यह बात अपने आप साफ़ है कि वर्तमान उत्‍पादन पद्धति के उन्‍मूलन के साथ-साथ इस पद्धति से उत्‍पन्‍न स्त्रियों के समाजीकरण का, अर्थात सार्वजनिक और निजी, दोनों ही प्रकार की वेश्‍यावृत्ति का अनिवार्यत: उन्‍मूलन हो जायेगा।” 

अब कोई भी सामान्‍य विवेक रखने वाला व्‍यक्ति देख सकता है कि समाजवाद में स्त्रियों के समाजीकरण का अर्थ यह है कि वे उत्‍पादन के उपकरण या बच्‍चे पैदा करने का यन्‍त्र मात्र नहीं रह जायेंगी, बल्कि सच्‍चे मायने में एक स्‍वतन्‍त्र व्‍यक्ति (free individual) बन जायेंगी; जबकि दूसरी ओर, पूँजीवादी समाज में एक उत्‍पादन के उपकरण के तौर पर, यानी बच्‍चे पैदा करने के यन्‍त्र के तौर पर, पूँजीपति वर्ग द्वारा कर दिया गया उनका अनौपचारिक समाजीकरण समाप्‍त हो जायेगा क्‍योंकि समाजवादी समाज में वे बच्‍चे पैदा करने की यन्‍त्र या उत्‍पादन का उपकरण नहीं रह जायेंगी। 

कोई बेईमान या मूर्ख व्‍यक्ति ही समाजीकरण, या सामुदायिकीकरण, की जगह सर्वोपभोग्‍यता शब्‍द का इस्‍तेमाल कर सकता है। मार्क्‍स व एंगेल्‍स ने इसके लिए community या socialisation शब्‍द का इस्‍तेमाल किया है, जो पूँजीवादी समाज में अलग रूप लेता है, जबकि मार्क्‍स व एंगेल्‍स बताते हैं कि समाजवादी समाज में इसका अर्थ होगा औरतों की मुक्ति, फैसला लेने की उनकी आज़ादी और उनके मालकरण की समाप्ति। 

मार्क्‍स व एंगेल्‍स की अन्‍य रचनाओं का भी जिसने गम्‍भीर अध्‍ययन किया होगा वह जानता है कि इस विषय में मार्क्‍स व एंगेल्‍स के क्‍या विचार थे। मसलन, एंगेल्‍स ‘परिवार, व्‍यक्तिगत सम्‍पत्ति और राज्‍य की उत्‍पत्ति’ में विशेष तौर पर स्त्रियों की गुलामी के स्रोत के तौर पर वर्ग और निजी सम्‍पत्ति के उद्भव को प्रदर्शित करते हैं और बताते हैं कि एकनिष्‍ठ प्‍यार ही मानवीय रोमाण्टिक प्‍यार का उच्‍चतम व उन्‍नततम रूप है और वह सामाजिक तौर पर एक समाजवादी समाज में ही सम्‍भव होगा जब हर रूप में स्त्रियों की गुलामी का अन्‍त हो चुका होगा। यह अलग से लम्‍बी चर्चा का विषय है जिसमें मैं यहाँ नहीं जा सकती। 

लेकिन इतना स्‍पष्‍ट है कि या तो मोहन मुक्‍त ने पूरा घोषणापत्र ढंग से पढ़ा नहीं है, किसी मूर्ख ने उन्‍हें कोई उद्धरण ग़लत अनुवाद करके भेज दिया और उन्‍होंने जाँच-पड़ताल के बिना चेंप दिया; दूसरी सम्‍भावना यह है कि मोहन मुक्‍त को मार्क्‍स व एंगेल्‍स की समृद्ध साहित्यिक शैली समझ में ही न आयी हो; तीसरी सम्‍भावना यह है कि यह शुद्ध रूप से बौद्धिक बेईमानी का मामला हो। जो भी हो, वह तो मुक्‍त जी ही बतायेंगे। लेकिन बेहतर होता कि ऐसा वनलाइनर डाल कर मार्क्‍स और एंगेल्‍स पर आरोपित करने से पहले वह अपनी मित्र मण्‍डली में इस विषय के किसी जानकार से बात कर लेते। जल्‍दबाज़ी हमेशा नुकसानदेह होती है। 

ताकि सनद रहे, मार्क्‍स व एंगेल्‍स का उपरोक्‍त समूचा उद्धरण नीचे अंग्रेजी में भी दे रही हूँ। 

“But you Communists would introduce community of women, screams the bourgeoisie in chorus. “The bourgeois sees his wife a mere instrument of production. He hears that the instruments of production are to be exploited in common, and, naturally, can come to no other conclusion that the lot of being common to all will likewise fall to the women. 

“He has not even a suspicion that the real point aimed at is to do away with the status of women as mere instruments of production. For the rest, nothing is more ridiculous than the virtuous indignation of our bourgeois at the community of women which, they pretend, is to be openly and officially established by the Communists. The Communists have no need to introduce community of women; it has existed almost from time immemorial. Our bourgeois, not content with having wives and daughters of their proletarians at their disposal, not to speak of common prostitutes, take the greatest pleasure in seducing each other’s wives. Bourgeois marriage is, in reality, a system of wives in common and thus, at the most, what the Communists might possibly be reproached with is that they desire to introduce, in substitution for a hypocritically concealed, an openly legalised community of women. For the rest, it is self-evident that the abolition of the present system of production must bring with it the abolition of the community of women springing from that system, i.e., of prostitution both public and private.”

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विवेकमुक्ति की राह पर मोहन मुक्‍त के बढ़ते कदम 

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मोहन मुक्‍त जी ने ‘कम्‍युनिस्‍ट घोषणापत्र’ में स्त्रियों के समाजीकरण के बारे में मार्क्‍स व एंगेल्‍स के विचारों पर अपने “मुक्‍त” विचार अभिव्‍यक्‍त किये थे (मोहन मुक्‍त की फेसबुक पोस्‍ट का लिंक

https://m.facebook.com/story.php...

इस पर मैंने अपने कुछ “अमुक्‍त” (पढ़ें “प्रतिबद्ध”) विचार व्‍यक्‍त किये थे (मेरी फेसबुक पोस्‍ट का लिंक

https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=6947984525257029&id=100001366526885&mibextid=9R9pXO

 मैंने इंगित किया था कि: 

1. मार्क्‍स व एंगेल्‍स ने सर्वोपभोग्‍यता शब्‍द का प्रयोग ही नहीं किया है, यह जिस भी अनुवाद में है, वह सही अनुवाद नहीं है; वैसे भी, ऐसी युगान्‍तरकारी व ऐतिहासिक रचनाओं के कई अनुवादों को देखे बिना और उसके समूचे सन्‍दर्भ को पढ़े बग़ैर, किसी एक वाक्‍य को बिना समझे, सिद्धान्‍त प्रतिपादन नहीं करना चाहिए। 

2. दूसरी बात, अगर आपने ग़लत अनुवाद को भी पढ़ा है, तो भी, अगर आपने उक्‍त उद्धरण के ऊपर-नीचे पूरी पढ़ाई की होती तो आपको ग़लतफ़हमी नहीं होती। 

3. तीसरी बात, मार्क्‍स ने उक्‍त उद्धरण में वास्‍तव में बुर्जुआ समाजीकरण (यानी स्त्रियों के एक उत्‍पादन के उपकरण के रूप में बुर्जुआ वर्ग द्वारा एक वर्ग के तौर पर निजीकरण या ‘समाजीकरण’) और सर्वहारा समाजीकरण (यानी स्त्रियों की एक स्‍वतन्‍त्र व्‍यक्ति के तौर पर सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक जीवन में अस्तित्‍वमान रहने और हस्‍तक्षेप करने की क्षमता) में अन्‍तर बताया है। 

इस ग़लती को शायद कहीं न कहीं मोहन मुक्‍त जी ने रजिस्‍टर किया है लेकिन उस पर एक तरहम-बरहम करने वाली पोस्‍ट डाली है। इसमें उन्‍होंने लिखा है: 

“मान लीजिये आप कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो लिख रहे हैं और मैं बुर्जुआ की हैसियत से आप पर आरोप लगाऊं कि आप अवैध संबंधों या किसी भी रूप में स्त्री की सर्वोपभोग्यता को बढ़ावा दे रहे हैं तो आपको मुझे ये नहीं कहना चाहिए कि

" स्त्री की सर्वोपभोग्यता तो छुपे हुए रूप में मौजूद ही है और आप पर ज़्यादा से ज़्यादा स्त्री की सर्वोपभोग्यता को कानूनी और औपचारिक रूप देने का आरोप लगाया जा सकता है "

बतौर कम्युनिस्ट आपको मुझे ये जवाब देना चाहिए कि मैं बुर्जुआ जिसे स्त्री की सर्वोपभोग्यता कह रहा हूँ वो स्त्री की सर्वोपभोग्यता या community of women नहीं बल्कि community of sexes है क्योंकि स्त्री कोई भी संबंध अकेले तो नहीं बना रही है ना”

दिक्‍कत यह है कि जब आप विज्ञान के मसले में विनम्रता से अपनी ग़लती को स्‍वीकारने की बजाय व्‍यक्तिवाद के कारण एक अरक्षणीय की रक्षा करने का प्रयास करते हैं, तो अन्‍तरविरोधों के और भी शर्मनाक गड्ढे में गिर जाते हैं। 

यह पोस्‍ट दिखलती है कि मोहन मुक्‍त जी को अभी भी नहीं समझ में आया है कि मार्क्‍स के स्त्रियों के समाजीकरण के बारे में क्‍या विचार हैं। वह थोड़ा ठहर कर समझ लेते और उसके बाद लिखते तो बेहतर होता। 

पहली बात, मार्क्‍स अवैध सम्‍बन्‍धों के रूप में स्त्रियों की सर्वोपभोग्‍यता को कानूनी जामा पहनाने की बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि स्त्रियों के बुर्जुआ समाजीकरण की आलोचना कर रहे हैं, उसकी खिल्‍ली उड़ा रहे हैं। 

दूसरी बात, स्त्रियों के ही समाजीकरण की माँग की जा सकती है, क्‍योंकि वह दमित जेण्‍डर व दमित लिंग है। पुरुष का तो समाजीकरण हुआ ही है, वह शासक जेण्‍डर व शासक लिंग है (इसका यह अर्थ नहीं है कि हर पुरुष शासक है; इसका रिश्‍ता केवल सामाजिक दमन के ऐतिहासिक सम्‍बन्‍धों की सामान्‍यता से है)। मार्क्‍स एक क्रानितकारी स्‍टैण्‍डप्‍वाइण्‍ट से स्त्रियों के क्रान्तिकारी समाजीकरण (दूसरे शब्‍दों में, उनकी सच्‍ची सर्वहारा व क्रान्तिकारी मुक्ति) की ही माँग कर सकते हैं, दोनों लिंगों के समाजीकरण की नहीं। जो नहीं है, वही माँगा जा सकता है। 

तीसरी बात, स्‍त्री किसी के साथ सम्‍बन्‍ध बना रही है, इससे दोनों लिंग और/या जेण्‍डर समाजीकृत नहीं हो जाते। सम्‍बन्‍ध एक सत्‍ता-सम्‍बन्‍ध, एक पावर रिलेशन है, तो वहाँ दोनों लिंगों/जेण्‍डर की समान स्थिति नहीं है। लिहाज़ा, सिर्फ़ इसलिए कि दो जेण्‍डर सम्‍बन्‍ध बना रहे हैं, एक दमनकारी सन्‍दर्भ में सम्‍बन्‍ध बना रहे हैं, यह नहीं साबित होता कि दोनों ही दमित व शासित हैं। 

अब मुक्‍त जी विवेकमुक्ति की राह पर आगे बढ़ते हुए कुतर्क कर रहे हैं। मैं फिर दोस्‍ताना आग्रह करूँगी कि वे आनन-फ़ानन में जवाब देने की बजाय, मसले की ठीक से जाँच करें, समझ बनायें, फिर दावे करें। वैसे मैं मुक्‍त जी की इस बात से सहमत हूँ कि आप तर्कों व तथ्‍यों के बन्‍धन से मुक्‍त होकर, पूर्ण मुक्ति के साथ जो चाहें वह मानने को मुक्‍त हैं। लेकिन ऐसे थोड़े होता है! वैसे, मोहन मुक्‍त जी की इस मुक्‍त बात से मुझे अमुक्‍त रूप में पीड़ा पहुँची है कि वह ये सारे सवाल एक बुर्जुआ के रूप में कर रहे थे!


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