Friday, April 18, 2025

 "कवि की मुख्य ज़िम्मेदारी होती है कि वह भाषा को पर्याप्त पारदर्शी बनाए, ताकि उसके जरिये हम उन महत्वपूर्ण चीज़ों को देख सकें जो इस दुनिया में और जीवन में , और मृत्यु में भी, मौजूद हैं |"

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"मेरे लिए कविता स्नायु-तंत्र में एक स्फुलिङ्ग के समान होती है जो शब्दों के माध्यम से उद्घाटित  हो सकती है --- शब्द जो गँवारू होते हैं लेकिन साथ ही खरे होते हैं और अनुनाद की क्षमता से भरपूर होते हैं, यहाँ तक कि रूप भी, उनके रूप में वह सामर्थ्य होती है कि हम उन्हें बोल सकें और उन्हें सुन सकें | वे ठोस नहीं होते, लेकिन उनका एक रूप होता है |" 

---डेविड हुएर्ता (प्रसिद्ध मेक्सिकन कवि )


Thursday, April 17, 2025

 एक बुज़ुर्ग साहित्यकार महोदय हैं। एक पत्रिका के सम्पादक भी हैं। पिछले साल आज ही के दिन मैंने ग़ज़ा में जायनवादी फासिस्टों द्वारा जारी नरसंहार पर एक पोस्ट डाली थी तो मुझे झिड़कते हुए उन्होंने कमेंट किया था कि मुझे अपने देश के ठोस हालात पर सोचना और लिखना चाहिए न कि दूर देश की किसी अमूर्त समस्या पर। उन महात्मा की उम्र का ख़याल करते हुए तब मैंने उनका विनम्र प्रतिवाद ही करके छोड़ दिया था जिसका मुझे अब बहुत अफ़सोस होता है। 

निकृष्टतम कोटि के चोचल ढेलोक्रेट अपने मेटामार्फोसिस के बाद ऐसे ही तिलचट्टों में बदल जाते हैं। 

बाद में मैंने देखा कि अपने देश की ठोस समस्याओं पर, मॉब लिंचिंग या हिन्दुत्ववादियों की तमाम फासिस्टी बर्बरताओं और अंधेरगर्दियों पर इन महामना ने कभी चूँ या पूँ तक नहीं किया। तब मुझे लगा कि यह उन अराजनीतिक बुद्धिजीवियों से भी गये-गुज़रे विशुद्ध साहित्यिक जंतु हैं जिनकी भर्त्सना ओत्तो रेने कस्तीय्यो ने अपनी प्रसिद्ध कविता में की थी। 

अभी पिछले दिनों उन्होंने मुझे फोन करके बताया कि उनकी अतिमेधावी सुपुत्री कविता की दुनिया में कैसे नये-नये मील के पत्थर गाड़ रही हैं और अन्वेषा वार्षिकी के लिए उनसे कविताएँ न माँगकर मैंने कितनी भयंकर और ऐतिहासिक भूल की है। धिक्कार है मेरे उदारतावाद को, कि फिर भी मैंने उन्हें कुछ दोटूक नहीं कहा। अब मैं सोचती हूँ कि ये वाले साहित्यिक अंकल जी भी सोसायटी के खलिहर अंकल जी लोगों से कम गये-गुज़रे नहीं हैं। ये महोदय न केवल राजनीतिक लबड़धोंधो और साहित्यिक भकचोन्हर हैं, बल्कि ख़ानदानवादी चेंथरचौधुर चपरकनाती भी हैं। 

ऐसी ही विभूतियों को पाकर हिन्दी साहित्य धन्य-धन्य होता रहा है।

(17 Apr 2025)

Wednesday, April 16, 2025

 वर्ग संघर्ष के बिना पर्यावरणवाद वैसे ही है जैसे बागवानी करना ।

-- चिको मेण्डेस

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इसमें कुछ और चीज़ें जोड़ना ज़रूरी है... जैसे... 

वर्ग संघर्ष के बिना नारीवाद वैसे ही है जैसे किटी पार्टी !

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वर्ग संघर्ष की विचारधारा और राजनीति के बिना कला-साहित्य की सुन्दरतम कृति भी वैसी ही है जैसे 'विषरस भरा कनकघट' !

Sunday, April 13, 2025

भागो नहीं, दुनिया को बदलो !!

 

महाविद्रोही जनमनीषी राहुल सांकृत्यायन के जन्मदिवस (9 अप्रैल) और स्मृति दिवस (14 अप्रैल) के अवसर पर

तर्क व ज्ञान की मशाल लेकर आगे बढ़ो और रूढ़ियों को तोड़ डालो ! 

भागो नहीं, दुनिया को बदलो !!

राहुल सांकृत्यायन हमारे देश की एक महान शख्सियत थे। इनका नाम आज हर बच्चे की जुबान पर होना चाहिए था और हर युवा तक इनके विचारों की पहुँच होनी चाहिए थी लेकिन अफ़सोस की बात है कि आज बहुतेरे लोग उन्हें या उनकी वैचारिक विरासत को जानते तक नहीं। राहुल सांकृत्यायन ने पूरे समाज में धार्मिक रूढ़ियों और पाखण्डों के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी और आम मेहनतकश जनता को शोषण-उत्पीड़न के विरुद्ध जागरूक किया। जनता को लूटने वाली और समाज को जाति और सम्प्रदाय के आधार पर बाँटने वाली शक्तियाँ उनके विचारों से आज भी डरती हैं और जनपक्षधर ताकतें अपने संघर्षों के लिए उनसे आज भी प्रेरणा लेती हैं।

राहुल सांकृत्यायन का जन्म में 9 अप्रैल 1893 को आजमगढ़ में हुआ था। इनका बचपन का नाम केदारनाथ पाण्डे था। ज्ञान की ललक और घुमक्कड़ी के चस्के ने इनके सोचने-समझने के ढंग-ढर्रे को ही नहीं बदला बल्कि इसी प्रक्रिया में इन्होंने अपना नाम भी बदल डाला। राहुल कई भाषाओं और विषयों के अद्भुत जानकार थे, चाहते तो आराम से रहते हुए बड़ी-बड़ी पोथियाँ लिखकर शोहरत और दौलत दोनों कमा सकते थे परन्तु वे एक सच्चे कर्मयोद्धा थे। उन्होंने आम जन, ग़रीब किसान, मज़दूर की दुर्दशा और उनकी मुक्ति के विचारों को अपनाया। उनके बीच रहते हुए उन्हें जागृत करने का काम किया और संघर्षों में उनके साथ रहे। वे वास्तव में जनता के अपने आदमी थे। उन्हें ग़रीब किसान और मज़दूर प्यार से राहुल बाबा बुलाते थे। 

राहुल ने अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल समाज को बदलने के लिए जनता को जगाने में किया। इसके लिए उन्होंने सीधी-सरल भाषा में न केवल अनेक छोटी-छोटी पुस्तकें और सैकड़ों लेख लिखे, बल्कि लोगों के बीच घूम-घूमकर गुलामी और अन्याय के विरुद्ध संघर्ष के लिए उन्हें संगठित भी किया। अंग्रेज़ हुकूमत तथा ज़मींदारों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए उन पर लाठियाँ पड़ीं, कई बार उन्हें जेल में डाला गया लेकिन वहाँ भी वे लगातार लिखते रहे। उनकी कई किताबें तो अलग-अलग जेलों में ही लिखी गयीं। राहुल दूर तक देख सकते थे इसलिए उन्होंने यह समझ लिया था कि भारतीय समाज की तर्कहीनता, अन्धविश्वास, सदियों पुराने गतिरोध, कूपमण्डूकता आदि पर करारी चोट करके ही इसे आगे बढ़ाया जा सकता है। वे कहते थे, “समाज की बेड़ियाँ जेलखाने की बेड़ियों से भी सख्त हैं।" "हमें अपनी मानसिक दासता की बेड़ी की एक-एक कड़ी को बेदर्दी के साथ तोड़कर फेंकने के लिए तैयार रहना चाहिए। बाहरी क्रान्ति से कहीं ज्यादा ज़रूरत मानसिक क्रान्ति की है। हमें आगे-पीछे-दाहिने-बायें दोनों हाथों से नंगी तलवारें नचाते हुए अपनी सभी रूढ़ियों को काटकर आगे बढ़ना होगा।" औपनिवेशिक शासन के दौरान किसानों की लड़ाई लड़ते हुए भी राहुल ने इस बात को नहीं भुलाया कि केवल अंग्रेज़ों से आज़ादी और ज़मीन मिल जाने से ही उनकी समस्याओं का अन्त नहीं हो जायेगा। उन्होंने साफ़ कहा था कि मेहनतकशों की असली आज़ादी जनता के अपने शासन में ही आयेगी। 

राहुल सांकृत्यायन ने भारतीय समाज की हर बुराई, हर तरह की दिमाग़ी गुलामी, हर तरह के अन्धविश्वास, तमाम गलत परम्पराओं पर चोट की और उनके विरुद्ध जनता को शिक्षित किया। राहुल कहते थे “ऐसे समाज के लिए हमारे दिल में क्या इज़्ज़त हो सकती है, क्या सहानुभूति हो सकती है? बाहर से धर्म का ढोंग, सदाचार का अभिनय, ज्ञान-विज्ञान का तमाशा किया जाता है और भीतर से यह जघन्य, कुत्सित कर्म ! धिक्कार है ऐसे समाज को !! सर्वनाश हो ऐसे समाज का !!!" “जिस समाज ने प्रतिभाओं को जीते-जी दफ़नाना कर्तव्य समझा है और गदहों के सामने अंगूर बिखेरने में जिसे आनन्द आता है, क्या ऐसे समाज के अस्तित्व को हमें पलभर भी बर्दाश्त करना चाहिए?" वे लोगों का सीधा आह्वान करते थे - "भागो नहीं, दुनिया को बदलो !" 

धार्मिक कट्टरता, जातिभेद की संस्कृति और हर तरह की दिमाग़ी गुलामी के ख़िलाफ़ राहुल सांकृत्यायन के आह्वान पर अमल हमारे समाज की आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है। आज समाज में जारी लूट-खसोट और दमन-शोषण पर पर्दा डालने और इनके विरुद्ध जनता की एकजुटता को तोड़ने के लिए तमाम तरह के प्रयास जारी हैं। आम लोगों को धर्म और जाति के नाम पर एक-दूसरे के ख़ून का प्यासा बनाया जा रहा है। विज्ञान की जगह पोंगापन्थ को बढ़ावा दिया जा रहा है और आगे बढ़ने की बजाय पीछे जाने के रास्ते खोले जा रहे हैं तो राहुल के विचारों को जानना और जन-जन तक पहुँचाना और भी ज़रूरी हो गया है। 

राहुल सांकृत्यायन का जीवन देश के हर युवा के लिए प्रेरणादायक है। वे मेहनतकश लोगों से प्यार करते थे और उनके लिए अपना जीवन कुर्बान कर देना चाहते थे। जीवन छोटा था, काम बहुत अधिक था। सदियों से सोये भारतीय समाज को जगाना आसान नहीं था। बाहरी दुश्मन से लड़ना आसान था, लेकिन अपने समाज में बैठे दुश्मनों और खुद अपने भीतर पैठे हुए संस्कारों, मूल्यों, रिवाजों के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए लोगों को तैयार करना उतना ही कठिन था। राहुल को एक बेचैनी सदा घेरे रहती। वे एक साथ दो-दो किताबें लिखने में जुट जाते। ट्रेन में चलते हुए, सभाओं के बीच मिलने वाले घण्टे-आध घण्टे के अन्तराल में, या सोने के समय में भी कटौती करके वह लिखते रहे। लगातार काम करते रहने से उनका लम्बा, बलिष्ठ, सुन्दर शरीर जर्जर हो गया। पर वह रुके नहीं। यह सिलसिला तब तक चला जब तक मस्तिष्क पर पड़ने वाले भीषण दबाव से उन्हें स्मृतिभंग नहीं हो गया। याद ने साथ छोड़ दिया। आर्थिक परेशानी ने घेर लिया। पूरा इलाज भी नहीं हो सका और 14 अप्रैल 1963 को 70 वर्ष की उम्र में मज़दूरों-किसानों के प्यारे राहुल बाबा ने आँखें मूंद लीं। लेकिन उन्होंने जो मुहिम चलायी उसे आगे बढ़ाये बिना आज हिन्दुस्तान में इंक़लाब लाना मुमकिन नहीं है। आज हमारे समाज को जिस नये क्रान्तिकारी पुनर्जागरण और प्रबोधन की ज़रूरत है, उसकी तैयारी के लिए महाविद्रोही राहुल सांकृत्यायन हमें सदैव प्रेरित करते रहेंगे। 

आज फ़ासिस्ट शक्तियाँ देश की सत्ता में बैठी हैं और भारतीय समाज उनके हमलों से त्रस्त है। लेकिन उनसे लड़ने का मन्त्र भी राहुल सांकृत्यायन ने ही दिया था : “यदि जनबल पर विश्वास है तो हमें निराश होने की आवश्यकता नहीं है। जनता की दुर्दम्य शक्ति ने, फ़ासिज्म की काली घटाओं में, आशा के विद्युत का संचार किया है। वही अमोघ शक्ति हमारे भविष्य की भी गारण्टी है।"  

राहुल सांकृत्यायन की विरासत को आगे बढ़ाने के लिए हम देश के उन सभी नौजवान साथियों का आह्वान करते हैं जो पोंगापन्थ, अन्धविश्वासों, दकियानूसी, कूपमण्डूकता और धार्मिक व जातीय बँटवारे की राजनीति के ख़िलाफ़ हैं, जो हर तरह के अन्याय और शोषण के ख़िलाफ़ विद्रोह के पक्षधर हैं। आओ! अँधेरे की ताक़तों के विरुद्ध तर्क और ज्ञान की मशाल लेकर आजीवन संघर्षरत रहे राहुल सांकृत्यायन के मिशन को आगे बढ़ाने का संकल्प लो !

इन्क़लाब ज़िन्दाबाद !

(नौजवान भारत सभा)


Friday, April 11, 2025

'श्री दुष्ट महाख्यानम्'


 'श्री दुष्ट महाख्यानम्' (अविकल संस्करण)। आख्यान के दीर्घाकार से विचलित न हों और प्रति दिन ध्यानस्थ होकर इसका सस्वर वाचन करें तथा इसे कण्ठाग्र कर लें। दुष्ट कोप से सुरक्षित रहेंगे। आलस्य करेंगे तो जीवन में हानि उठायेंगे और तदनन्तर पश्चाताप करेंगे।) 

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श्री दुष्ट महाख्यानम्

(टीका सहित) 

विषय-प्रवेशिका

दुष्टों अथवा दुर्जनों की महिमा अपरम्पार होती है !

दुष्ट कई प्रकार के होते हैं ! जैसे राजनीतिक-सामाजिक दुष्टता जहाँ अपने शिखर पर पहुँचकर जघन्यतम और अमानवीयतम हो जाती है,  वह पराकोटि या परिणति-बिंदु फासिज्म है I

वर्गीय दुष्टता एक ऐतिहासिक-सामाजिक परिघटना है ! जैसे एक पूँजीपति व्यक्तिगत तौर पर शरीफ़ हो सकता है, पर उसका वर्ग ही दुष्ट वर्ग है क्योंकि वह शोषक है, मज़दूरों से अधिशेष निचोड़ना ही उसके सामाजिक अस्तित्व का आधार है ! इस वर्गीय दुष्टता से हम व्यक्तिगत प्रतिशोध नहीं ले सकते ! इस वर्गीय दुष्टता को वर्ग-संघर्ष की ऐतिहासिक प्रक्रिया से ही समाप्त किया जा सकता है ! एक वर्ग के रूप में जबतक पूँजीपति मौजूद रहेगा, तबतक उसकी वर्गीय दुष्टता मौजूद रहेगी !

जहाँतक व्यक्तिगत दुष्टता का सवाल है, दुष्टों या दुर्जनों की कई कोटियाँ होती हैं ! ऐसे दुर्जन आपको समाज के आम लोगों में भी बहुतायत में मिल जायेंगे --आम मध्य वर्ग और मज़दूरों में भी मिल जायेंगे ! आम लोगों में यह दुर्जनता कई बार , वर्ग समाज में जीने वाले नागरिक के सामाजिक (और इसलिए मानवीय) व्यक्तित्व के विघटन से पैदा होता है ! कई बार जनवादी और तार्किक चेतना की कमी के कारण, दिमाग़ के पोर-पोर में बैठे धार्मिक, जातिगत और जेंडरगत कुसंस्कार और पूर्वाग्रह भी हमें मानवद्रोही और दुष्ट बना देते हैं !

ऐसा भी होता है कि बुर्जुआ समाज में दिन-रात, सतत, अंधी प्रतिस्पर्द्धा में जीते हुए, कुत्तादौड़ में दौड़ते हुए, भेड़ियाधसान करते हुए हम अपनी मनुष्यता खोते चले जाते हैं और तुच्छ और कूपमंडूक होने के साथ ही ईर्ष्या और दुष्टता में जीने को भी कुछ यूँ एन्जॉय करने लगते हैं जैसे खाज का रोगी खुजली कर-करके आनंदित होता है ! ज़िंदगी की कुत्ता-दौड़ में जो पीछे छूट गया वह आगे वाले को लंगी मारने की पूरी कोशिश करता है ! और आगे बढ़ने के लिए हर व्यक्ति किसी को भी रौंद-कुचल देना चाहता है ! जो विजयी है, वह विशिष्ट है और जो पीछे छूट गया वह दीन-हीन, तिरस्करणीय है !

इसतरह बुर्जुआ समाज दुष्टता का कोरोना से भी घातक वायरस फैलाता रहता है ! न्यायशील और तार्किक विचारों, न्यायशील सामूहिक कर्म तथा कला-साहित्य और प्रकृति के गहन सानिध्य से जिस हद तक हमारी प्रतिरोधक क्षमता विकसित हुई रहती है, उसी हद तक हम दुष्टता के संक्रामक वायरस से बच पाते हैं ! आज हम जिस रुग्ण, बर्बर, ज़रा-जीर्ण पूँजीवादी समाज में जी रहे हैं, उसमें दुष्टता के वायरसों का पूरा परिवार नाना संक्रामक आत्मिक-सांस्कृतिक व्याधियों से समाज को त्रस्त किये हुए है ! 

जब कोई व्यक्ति या सामाजिक समूह बार-बार की पराजयों या सुदीर्घ दासता के चलते गहरे पराजय-बोध से भर जाता है तो उसके भीतर भी एक किस्म का यथास्थितिवाद और चालाकी एवं कायरता भरी दुनियादारी पैदा हो जाती है ! तब उसके पास उन्नत मानवीय आदर्श और सपने देखने की क्षमता नहीं रह जाती, उसके व्यक्तित्व में उदात्तता और सरलता का लेश मात्र भी नहीं रह जाता ! ऐसे व्यक्तित्व तुच्छता, जलन-कुढ़न और ईर्ष्या से लबालब भरे रहते हैं, अपने से अधिक सक्षम और ताक़तवर के आगे एकदम साष्टांग हो जाते हैं और अपने से नीचे वाले को, अपने से कमजोर को एकदम रगड़-कुचल देना चाहते हैं और फिर उनकी छाती पर बैठकर हुकूमत करना चाहते हैं !  उत्पादन की प्रक्रिया से कटे हुए सर्वहारा के एक हिस्से का भी विमानवीकरण हो जाता है ! उनमें से कई आत्मघाती ढंग से खुद को ही नष्ट करते रहते हैं, पर कई ऐसे दुष्ट भी बन जाते हैं जो फासिस्टों के भाड़े के लठैत बन जाते हैं, मानवीय हर चीज़ से बेगाने हो जाते हैं, उससे नफ़रत करने लगते हैं और जघन्य-वीभत्स दुष्कर्मों के लिए भी तैयार रहते हैं ! दुष्टता के सभी रूप बुर्जुआ समाज की रुग्णता के, या यूँ कहें कि वर्ग-समाज की रुग्णता के मूर्त रूप होते हैं ! 

बहरहाल, मैंने तो अपने जीवन में सबसे अधिक, भाँति-भाँति के दुर्जन और दुष्ट खाते-पीते मध्यवर्गीय समाज में ही पाए हैं ! व्यापारियों, प्रॉपर्टी डीलरों और वकीलों-डाक्टरों-प्रोफेसरों जैसे पेशेवर बुद्धिजीवियों के अतिरिक्त कवियों-लेखकों-कलाकारों की दुनिया में भी तरह-तरह के दुष्ट जीव देखे हैं -- ईर्ष्यालु, हर बनते काम को बिगाड़ने के लिए तत्पर रहने वाले, चुगलखोर और कुटने, निहायत स्वार्थी, मतलबी, पद-पुरस्कार लोलुप, रसिया और रंगबाज़ ... ... ! शायद यह भारतीय समाज में पुनर्जागरण और प्रबोधन के प्रोजेक्ट के खंडित-विकलांग चरित्र  तथा दो सौ वर्षों की गुलामी से पैदा हुई जनवादी व तार्किक चेतना की कमी ही है जिसने हमारे मध्यवर्गीय बौद्धिक समाज के भी एक बड़े हिस्से को इसक़दर दुष्ट बनाया है ! हमारे समाज के ताने-बाने में जनवाद की कमी के कारण यहाँ का मानसिक श्रम करने वाला तबका शारीरिक श्रम करने वालों से सिर्फ़ अपने को बहुत श्रेष्ठ ही नहीं समझता, बल्कि उनसे घृणा करता है ! पुरुष-स्वामित्ववाद और सवर्ण-श्रेष्ठतावाद के संस्कार इस अमानवीय सामाजिक दुष्टता को और मज़बूत बनाते हैं ! इस वस्तुगत सामाजिक स्थिति का पूरा लाभ फासिज्म की राजनीति को मिलता है ! यानी आज जो ब्राह्मणवाद/सवर्ण-श्रेष्ठतावाद की और मर्दवाद की संस्कृति और राजनीति है वह फासिज्म का टूल बन गया है ! यूँ कहें कि ब्राह्मणवाद और मर्दवाद आज पूँजीवाद की सेवा में सन्नद्ध हैं !

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प्रथम सर्ग

तो चलिए, दुष्टों के बारे में फिर कुछ और बातें की जाएँ ! दरअसल, जो भी दुष्टों के सताए हुए लोग हैं, उन्हें दुष्टों की निंदा से सुख प्राप्त होता है !

संस्कृत का एक कवि (नाम मुझे पता नहीं) कहता है :

"दुर्जनं प्रथमं वन्दे सज्जनं तदनंतरम

मुखप्रक्षालानात्पूर्व गुद्प्रक्षालनं यथा I"

अर्थात्, पहले मैं दुर्जन की वन्दना करता हूँ, उसके बाद सज्जन की, ठीक उसीप्रकार, जैसे मुख-प्रक्षालन के पहले गुदा-प्रक्षालन किया जाता है !(यहाँ तत्सम शब्दों के इस्तेमाल से बात थोड़ी सभ्यतापूर्ण लग रही है ! इसी बात को अगर देशज और तद्भव शब्दों में कह दिया जाए तो बात फूहड़ और अश्लील लगने लगेगी ! तत्सम शब्दों या अंग्रेज़ी में कहने पर गाली गाली नहीं लगती और गंदी बात भी शालीनतापूर्ण लगने लगती है !!)

लेकिन दुष्ट जनों के सूक्ष्म पर्यवेक्षण के मामले में तुलसीदास का कोई जोड़ नहीं है ! साथ ही दुष्टों के गुण बताते हुए जिस ह्यूमर और विट का प्रदर्शन तुलसीदास ने किया है, वह भी बेजोड़ है ! 'रामचरित मानस' के 'बालकाण्ड' की शुरुआत में ही तुलसी दुष्टों की वन्दना करते हैं ताकि वे उनका सत्कार्य पूरा होने दें ! हालांकि अंत में वह यह संदेह भी प्रकट करते हैं कि इस वन्दना से दुष्टों पर कोई प्रभाव पड़ेगा ! वह कहते हैं कि अत्यंत प्यार से पालने पर भी कौव्वा निरामिषभोजी नहीं हो सकता ! तुलसी की इस पूरी खल-वन्दना का आनंद लीजिये :

"बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥

पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें॥

हरि हर जस राकेस राहु से। पर अकाज भट सहसबाहु से॥

जे पर दोष लखहिं सहसाखी। पर हित घृत जिन्ह के मन माखी॥

तेज कृसानु रोष महिषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा॥

उदय केत सम हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके॥

पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं॥

बंदउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा॥

पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना। पर अघ सुनइ सहस दस काना॥

बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही। संतत सुरानीक हित जेही॥

बचन बज्र जेहि सदा पिआरा। सहस नयन पर दोष निहारा॥

दोहा-उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति।

जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति॥

मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा। तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा॥

बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा॥"

अब सुविधा के लिए इस 'खल-वन्दना' का भावार्थ भी पढ़ लीजिये :

अब मैं सच्चे भाव से दुष्टों की वन्दना करता हूँ जो बिना किसी प्रयोजन के दायें-बायें होते रहते हैं। दूसरों की हानि करना ही इनके लिये लाभ होता है तथा दूसरों के उजड़ने में इन्हें हर्ष होता है और दूसरों के बसने में विषाद। ये हरि (विष्णु) और हर (शिव) के यश के लिये राहु के समान हैं (अर्थात् जहाँ कही भी भगवान विष्णु या शिव के यश का वर्ण होता है वहाँ बाधा पहुँचाने वे पहुँच जाते हैं)। दूसरों की बुराई करने में ये सहस्त्रबाहु के समान हैं। दूसरों के दोषों को ये हजार आँखों से देखते हैं। दूसरों के हितरूपी घी को खराब करने के लिये इनका मन मक्खी के समान है (जैसे मक्खी घी में पड़कर घी को बर्बाद कर देती है और स्वयं भी मर जाती है वैसे ही ये दूसरों के हित को बर्बाद कर देते हैं भले ही इसके लिये उन्हें स्वयं ही क्यों न बर्बाद होना पड़े)। ये तेज (दूसरों को जलाने वाले ताप) में अग्नि और क्रोध में यमराज के समान हैं और पाप और अवगुणरूपी धन में कुबेर के समान धनी हैं। इनकी बढ़ती सभी के हित का नाश करने के समान केतु (पुच्छल तारा) के समान है। ये कुम्भकर्ण के समान सोये रहें, इसी में सभी की भलाई है। जिस प्रकार से ओला खेती का नाश करके खुद भी गल जाता है उसी प्रकार से ये दूसरों का काम बिगाड़ने के लिये खुद का नाश कर देते हैं। ये दूसरों के दोषों का बड़े रोष के साथ हजार मुखों से वर्णन करते हैं इसलिये मैं दुष्टों को (हजार मुख वाले) शेष जी के समान समझकर उनकी वन्दना करता हूँ। ये दस हजार कानों से दूसरों की निन्दा सुनते हैं इसलिये मैं इन्हें राजा पृथु (जिन्होंने भगवान का यश सुनने के लिये दस हजार कान पाने का वरदान माँगा था) समझकर उन्हें प्रणाम करता हूँ। सुरा जिन्हें नीक (प्रिय) है ऐसे दुष्टों को मैं इन्द्र (जिन्हे सुरानीक अर्थात देवताओं की सेना प्रिय है) के समान समझकर उनका विनय करता हूँ। इन्हें वज्र के समान कठोर वचन सदैव प्यारा है और ये हजार आँखों से दूसरों के दोषों को देखते हैं। दुष्टों की यह रीत है कि वे उदासीन रहते हैं ( अर्थात् दूसरों को दुःख पहुँचाने के लिये यह नहीं देखते कि वह मित्र है अथवा शत्रु)। मैं दोनों हाथ जोड़कर प्रेमपूर्वक दुष्टों की वन्दना करता हूँ।

मैंने अपनी ओर से वन्दना तो की है किन्तु अपनी ओर से वे चूकेंगे नहीं। कौओं को बड़े प्रेम के साथ पालिये , किन्तु क्या वे मांस के त्यागी हो सकते हैं?

(तुलसी की चौपाइयों का भावार्थ मैंने जी.के. अवधिया के ब्लॉग "धान के देश में!" से यथावत ले लिया है )

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द्वितीय सर्ग

क्या ख़याल है ! दुष्टों के बारे में थोड़ा और गलचौर किया जाए ? अगर कभी दुष्टों के पाले पड़े होंगे, और आप खुद दुष्ट नहीं होंगे, तो मज़ा ज़रूर आयेगा ! 

एक गाँधीवादी टाइप अंकलजी हैं ! मुझे तो, जो गाँधी टोपी वह पहने रहते हैं, साक्षात वैसे ही लगते भी हैं ! जो भी हो, आदमी भले हैं ! मुझे बहुत दुर्विनीत और क्रोधी स्वभाव का मानते हैं ! सच्चे शुभचिंतक हैं ! डरते हैं कि इतना क्रोध करने और तनाव में रहने से मुझे उच्च रक्तचाप  हो सकता है, हृदयगति भी रुक सकती है, बुढ़ापा जल्दी आ सकता है और बहुत सारे लोग मेरे शत्रु हो सकते हैं जो मुझे हानि पहुँचा सकते हैं ! वे मुझे समझाते हैं और मैं उनको समझाती हूँ और अंततः हम एक-दूसरे को समझाने में कभी सफल नहीं हो पाते !

अंकलजी लगातार मुझे दुष्टों की दुष्टताओं को भूल जाने और उन्हें क्षमा कर देने और उनपर ध्यान ही न देने की कोशिश करने के लिए कहते हैं ! और मेरी आदत यह है कि कोई दुष्ट मिल जाए और उसका टारगेट मैं न भी होऊँ, तो भी मैं रुककर उसका बारीकी से अध्ययन करने लगती हूँ कि अब यह कौन सी दुष्टता करेगा, किसको निशाना बना रहा है, अभी यह क्या सोच रहा है, आदि-आदि ...! 

उच्च कोटि के दुष्टों की एक खासियत होती है ! वे काहिल और सुस्त या मनहूस  नहीं होते ! लगातार खुराफात के बारे में सोचते रहते  हैं या करते रहते हैं !  दुष्ट लोग सक्रिय लोग होते हैं ! उन्होंने अपने को इस दुनिया में जीने लायक बना लिया है ! जो सुस्त और काहिल भलेमानस होते हैं वे सिर्फ़ सरकारी दफ्तरों में नौकरी करने के लिए ही इस धरती पर आये हैं ! न वे बिंदास-बेलौस जी पाते हैं, न ज़िंदगी को बदलने की लड़ाई में कुछ तूफानी अंदाज़ में शिरक़त ही कर पाते हैं !

तो पिछली बार जब अंकलजी मिले, तो बोले,"तुम संस्कृत के शास्त्रीय आचार्यों के अनुभव और अभिव्यक्तियों की सूक्ष्मताओं का तो बहुत ख़याल करती हो ! देखो, एक आचार्य क्या कहते हैं:

'क्षमा शस्त्रं करे यस्य दुर्जन: किं करिष्यति |

अतॄणे पतितो वन्हि: स्वयमेवोपशाम्यति ||'

अर्थात्, क्षमा रूपी  शस्त्र जिसके हाथ में हो , उसे दुर्जन क्या कर सकता है ? अग्नि , जब किसी जगह पर गिरता है जहाँ घास न हो , अपने आप बुझ जाता है I

मैंने अंकलजी से कहा," इन वाले आचार्य के जीवनानुभव शायद कुछ कम हैं ! अब मैं आपको कुछ दूसरे आचार्यों की वाणी सुनाती हूँ:

'सर्प दुर्जनयोर्मध्ये वरं सर्पो न दुर्जनः I

सर्पो दशति कालेन दुर्जनास्तु पदे -पदे II'

अर्थात्, सर्प और दुर्जन के बीच सर्प को चुनो, न कि दुर्जन को क्योंकि सर्प तो समय आने पर डंसता है, पर दुर्जन तो कदम-कदम पर डंसता है I

'खलानां कंटकानां च द्विविधैव प्रतिक्रिया I

उपानन्मुखभंगो वा दूरतो वा विसर्जनम् II'

अर्थात्, दुष्ट मनुष्य और कांटे से छुटकारा पाने के दो ही उपाय हैं -- या तो जूते से मुँह तोड़ दो, या फिर दूर से ही भगा दो I

'दुर्जस्नन सज्जनं कर्तुमुपायो नही भूतले I

अपानं शतधा धौतं न श्रेष्ठमिन्द्रियं भवेत्II'

अर्थात्, इस पृथ्वी पर दुर्जन को सज्जन बनाने का कोई उपाय नहीं है I अपान इन्द्रिय को सौ बार धोकर भी उसे श्रेष्ठ इन्द्रिय नहीं बनाया जा सकता ।

'दुर्जनः स्वस्वभावेन परकार्य विनश्यति I

नोदरतृप्तिमायाति मूषकः वस्त्रभक्षकः II'

अर्थात्, दुर्जन अपने स्वभाव से ही दूसरे के कार्य को हानि पहुंचाता है I वस्त्रभक्षक चूहा उदर-तृप्ति के लिए वस्त्र नहीं काटता I

'यथा परोपकारेषु नित्यं जागर्ति सज्जनः I

तथा परापकारेषु जागर्ति सततं खलः II'

अर्थात्, जैसे सज्जन परोपकार करना के लिए नित्य जाग्रत रहता है, वैसे ही दुष्ट व्यक्ति दूसरों का अपकार करने के लिए सतत जाग्रत रहता है I

'तक्षकस्य विषं दन्ते मक्षिकायाश्व मस्तके I

वृश्चिकस्य विषं पृच्छे सर्वांगे दुर्जनस्य तत् II'

सांप का विष उसके दांत में, मक्खी का उसके मस्तक में और बिच्छू का पूँछ में होता है, लेकिन दुर्जन का तो पूरा शरीर ही विष से भरा होता है I

'दुर्जनो नार्जवं याति सेव्यमानोSपि नित्यशःI

स्वेदनाभ्यंजनोपायै:श्वापुच्छमिव नामितम II'

अर्थात्, जैसे कुत्ते की पूंछ स्वेदन-अंजन आदि उपायों से सीधी नहीं होती, उसीप्रकार चाहे जितनी भी सेवा करें, दुर्जन को सीधा नहीं बनाया जा सकता !"

मैं अंकलजी को दुष्टों के बारे में अभी पाँच-छः श्लोक और सुनाने वाली थी, पर अंकलजी अबतक मुझे रास्ते पर लाने के मिशन से पर्याप्त निराश हो चुके थे I उन्होंने कहा कि मैं दुष्टों से शत्रुता मोल लेने के खतरों को समझ नहीं रही हूँ, इसीलिये संघियों और भक्तों से अक्सर बैर मोल लेती रहती हूँ ! मैंने अंकलजी से कहा कि गाँधी से मैं चाहे जितनी असहमति रखूँ, पर उनकी एक बात ठीक थी कि वह पतली गली से बच निकलने की टैक्टिक्स नहीं अपनाते थे !

 अंकलजी के असंतोष में अब कुछ नाराज़गी भी घुलने लगी थी ! कुछ कारण बताकर वह तुरत चलते बने !

**

तृतीय सर्ग

तो  'दुष्ट-महाख्यान' को आगे बढ़ाते हैं ! 

कल मैंने बताया था कि अंकलजी को दुष्टों के बारे में मैं 5-6 श्लोक और सुनाने वाली थी, लेकिन वह खिसक लिए ! फिर कुछ मित्रों ने कहा कि वे श्लोक हमलोगों को सुना ही डालिए, ताकि समय पर काम आवे ! मैं भी सोच रही हूँ कि परोपकार के इस पावन कृत्य से पीछे क्यों हटूं ! तो लीजिये, दुष्टों के बारे में संस्कृत के प्राचीन आचार्यों के मुँह से कुछ और सुनिए:

'बोधितोSपि बहु सूक्ति विस्तरै:किं खलो जगति सज्जनो भवेत् I

स्नापितोSपि बहुशो नदीजलै: गर्दभःकिमु हयो भवेत् क्वचित् II'

अर्थात्, सद्वचनों का उपदेश देने से क्या इस विश्व के दुष्ट जन सज्जन हो जायेंगे ? नदी के जल से बार-बार स्नान करने के बाद भी क्या गधा घोड़ा बन पायेगा ?

'अहमेव गुरु:सुदारुणानामिति हलाहल मा स्म तात दृप्य: I

ननु सन्ति भवादृशानि भूयो भुवनेस्मिन्  वचनानि दुर्जनानाम् II'

अर्थात्, हे हलाहल ! मैं भयंकरों में सर्वाधिक भयंकर हूँ, ऐसा कदापि न सोचना ! इस जगत में तुमसे अधिक भयंकर दुष्ट के वचन हैं !

'अमरैरमृतं न पीतमब्धे: न च हलाहलमुल्बनं हरेण I

विधिना निहितं खलस्य वाचि द्वयमेतत् बहिरेकमन्तरान्यत् II'

अर्थात्, सागर में से जो अमृत देवताओं ने नहीं पिया और जो हलाहल शंकर ने नहीं पिया, उन दोनों को ब्रह्मा ने दुष्टों की वाणी में रख दिया -- अमृत को बाहर, और हलाहल को भीतर !

'वर्जनीयो मतिअमता  दुर्जनः सख्यवैरयो: I

श्र्वा भवत्यपकाराय लिहन्नपि दशन्नपि II'

अर्थात्,  विवेकवान मनुष्य को दुष्ट से न मित्रता करनी चाहिए, न शत्रुता ! कुत्ता चाटता है, या काटता है, दोनों ही स्थितियों में बुरा ही होता है !

'बहुनिष्कपटद्रोही  बहुधान्योपधातकः I

रंध्रान्वेषी च सर्वत्र दूषको मूषको यथा II'

अर्थात्, दुष्ट चूहों की तरह होते हैं ! वे निष्कपट लोगों से द्रोह करते हैं जैसे चूहा कीमती चीज़ों को कुतर देता है, चूहों की ही तरह वे  छिद्र ढूँढ़ते रहते हैं और गन्दगी फैलाते हैं !

'त्यकत्वापि निज प्राणान् परहित विघ्नं खलः करोत्येव I

कवले पतिता सद्यो वमयति खलु मक्षिकाSन्नभोक्तारम् II'

अर्थात्, दुष्ट अपने प्राण त्याग कर भी दूसरे के हित में विघ्न डालने को तैयार रहता है, जैसे भोजन में पड़ी हुई मक्खी भोजन करने वाले को उल्टी करने के लिए विवश कर देती है I

'रविरपि न दहति तादृग् यावत् संदहति वालिका निकर:I

अन्यस्माल्लब्धपदः नीचः प्रायेण दुस्सहो भवती II'

अर्थात्, बालू  जितना जलाता है, उतना सूरज भी नहीं जलाता I दूसरों के प्रभाव से पद पाने वाला नीच मनुष्य प्रायः दुस्सह्य होता है I

'तुष्यन्ति भोजनैर्विप्रा:मयूरा घनगर्जितै: I

साधवः परकल्याणे: खला: परविपत्तिभिः II'

अर्थात्, ब्राह्मण भोजन से, मयूर मेघ-गर्जना से, सज्जन व्यक्ति  परहित से और दुष्ट व्यक्ति परविपत्ति से संतुष्ट होता है !

'अहो दुर्जन संसर्गात् मानहानि: पदे पदे I

पावको लोहसंगेन मुद्ररैरभिहन्यते II'

अर्थात्, दुष्ट मनुष्य की संगत से पग-पग पर मानहानि होती है, वैसे ही जैसे, लोहे के साथ के कारण आग को भी हथौड़े से पिटना पड़ता है !

'क्वचित् सर्पोSपि मित्रत्वमियात् नैव खलः क्वचित्I

न शेषशायिनोSप्यस्य वशे दुर्योधनः हरे: II'

अर्थात्, कभी साँप भी मित्र बन सकता है, पर दुष्ट को कभी मित्र नहीं बनाया जा सकता ! हरि शेषनाग को शैय्या बनाकर सोते थे, पर दुर्योधन उनका मित्र न हो सका !

'गुणायंते दोषाः सुजनवदने दुर्जन्मुखे

गुणाः दोषायंते तदिदं नो विस्मयपदम् I

महमेघः क्षारं पिबति कुरुते वारि मधुरम्

फणी क्षीरं पीत्वा वमति गरलं दुस्सहतरं II'

अर्थात्, कोई आश्चर्य नहीं कि सज्जन पुरुष के मुँह में दोष भी गुण बन जाते हैं जबकि दुर्जन मनुष्य के मुँह में गुण भी दोष बन जाता है ! बादल खारा जल पीकर मीठे जल की वर्षा करते हैं, जबकि साँप दूध पीकर भी भयंकर विष उगलता है !

'न दुर्जनः सज्जनतामुपैति बहु प्रकारैरपि सेव्यमानः I

अत्यंतसिक्तः पयसा धृतेन न निम्बवृक्षः मधुतामुपैति II'

अर्थात्, बहुत प्रकार से सेवा करने के बाद भी दुर्जन को सज्जन नहीं बनाया जा सकता ! ढूध और घी में बहुत अधिक भिगोने के बाद भी नीम के पेड़ को  मीठा नहीं बनाया जा सकता !

'पाषाणो भिध्यते टंके वज्रः वज्रेण भिध्यते I

सर्पोSपि भिध्यते मन्त्रैर्दुष्टात्मा नैव भिध्यते II'

अर्थात्, पत्थर को टंक से, वज्र को वज्र से और साँप को मन्त्र से भेदा जा सकता है, लेकिन दुष्ट को किसी भी तरह से नहीं भेदा जा सकता !

'सर्प क्रूरः खलः क्रूरः सर्पात् क्रूरतर: खलः I

मन्त्रेण शाम्यते सर्पः न खलः शाम्यते कदाII'

अर्थात्, साँप क्रूर होता है, दुष्ट भी क्रूर होता है, पर दुष्ट साँप से अधिक क्रूर होता है ! साँप को मन्त्र से शांत किया जा सकता है लेकिन दुष्ट को किसी भी तरह से शांत नहीं किया जा सकता !

'खलः सर्षपमात्राणि परछिद्राणि पश्यति I

आत्मनो बिल्वमात्राणि पश्यन् अपि न पश्यति II'

अर्थात्, दुष्ट दूसरों का सरसों बराबर दोष भी तुरत देख लेता है, लेकिन अपने बेल के फल बराबर दोष को देखकर भी नहीं देखता है !

**

समापन सर्ग

तो हे विद्वज्जनो ! हे सुधी श्रोताओ ! दुष्ट जनों की महिमा इस भाँति अनादि-अनंत-अगाध हुआ करती है कि शेषनाग उन्हें अपने सहस्त्र मुखों से नहीं बता सकते, गणेश उनका वर्णन नहीं कर सकते और वेदव्यास उन्हें लिपिबद्ध नहीं कर सकते ! फिर भी किसी सीमा तक इस कार्यभार को मुझ अकिंचन ने संपन्न करने का तुच्छ प्रयास किया ताकि वर्तमान फासिस्ट  तमस के घटाटोप  में, दुष्टता के महासाम्राज्य में जीते हुए आप दुष्टों का अध्ययन कर सकें, उन्हें पहचान सकें, उनकी भयंकरता को समझें, उनसे सावधान रहें और अनुकूल अवसर आते ही उन्हें उनकी दुष्टता का यथोचित दंड दें ! इस प्रयोजन में संस्कृत के प्राचीन आचार्यों से तो इतनी ही सहायता मिल सकती थी ! शेष कार्य आपको स्वयं संपन्न करना होगा !

इति श्री दुष्ट महाख्यानम् समाप्तं भवति। 

***

(11 Apr 2025)


Monday, April 07, 2025

हमारी माँग है -- बदलाव! आमूलगामी बदलाव!

 

लेकिन हम माँग किससे रहे हैं? यह तो हमारा काम है! हम सब मामूली लोगों का काम है! 

रोटी, इंसाफ़, बराबरी और आज़ादी! 

इनके लिए एक लम्बी लड़ाई लड़नी होगी। वक़्ती नाक़ामयाबियों और शिकस्तों से मायूस होने की जगह ज़रूरी सबक लेने होंगे, फिर से उठ खड़े होना होगा और नये सिरे से लड़ना होगा। 

सबसे बड़ी बात है कि अपने भीतर के डर, निराशा, असम्पृक्तता और स्वार्थपरता से लड़ना होगा। हमें आम मेहनतकश जनता से जुड़ना होगा। 

जनता ही इतिहास-निर्मात्री शक्ति है। 

लेकिन उसे जागृत, गोलबंद और संगठित करने के लिए उसके हिरावल दस्तों की ज़रूरत है। इंसाफ़पसंद बुद्धिजीवी क्रान्तिकारी बुद्धिजीवी बनकर यह भूमिका निभाने की पहल कर सकते हैं। अगर वे ऐसा करेंगे तो संघर्षों की पाठशाला में सीखते हुए मज़दूर वर्ग और मेहनतकश अवाम के भीतर से भी उनके ऑर्गेनिक बुद्धिजीवी पैदा होने लगेंगे। 

सबसे बड़ी बात है कि हमें अँधेरे रसातल के अभिशप्त निवासियों को फिर से सपने देखना सिखाना होगा, नयी मुक्ति परियोजनाएँ गढ़ने की स्थापत्य कला सिखानी होगी और उन्हें अमली जामा पहनाने की व्यावहारिक शिक्षा देनी होगी। 

पूँजीवाद नश्वर है! इतिहास की हर सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था की तरह! अनश्वर सिर्फ़ जनता है! 

कोई भी विचार, दर्शन या कला-साहित्य जो दबे-कुचले लोगों को अन्याय के विरुद्ध लड़ने की दृष्टि, दिशा और प्रेरणा नहीं देता, वह  खाये-अघाये लोगों का शग़ल है, खलिहर लोगों का बतकुच्चन है, परजीवी आचार्यों का बुद्धि-विलास है, चण्डूखाने की गप्पबाज़ी है, हत्यारों के दरबारी और बिके हुए बौद्धिकों की बदमाशी है और आम लोगों के लिए बस घोड़े की लीद है, सूअर का गू है। 

अलौकिक, अराजनीतिक कला दृश्य-अदृश्य ज़ुल्मों और हत्याओं के

औचित्य-प्रतिपादन का औज़ार होती है। वह फौजी बूटों, बंदूकों, जेलों, यंत्रणागृहों से कम ख़तरनाक नहीं होती। अन्याय, अत्याचार और बर्बरता के घटाटोप में

जनता को लड़ने की जगह "निष्कलुष" प्रेम और शान्ति का पाठ पढ़ाने वाला कला-साहित्य दमन के नंगे हथियारों से भी अधिक ख़तरनाक होता है। वह यथास्थिति को स्वीकारने के लिए जनसमुदाय का मानसिक अनुकूलन करता है। 

यह बात आज भी उतनी ही सही है जितनी पहले कभी सही थी। कुछ बातें कभी पुरानी नहीं पड़तीं!

**

(7 Apr 2025)

Saturday, April 05, 2025

बेवजह, बेतरतीब सवालों का क़सीदा

 

('सवालों की किताब' पढ़ने के बाद नेरूदा से चन्द सवाल) 

लोहे की साँस कहाँ है? 

क्या लुहार की भाथी में? 

और उसकी ताक़त? 

क्या भट्ठी की आग में? 

जीवन में कितनी हो कविता

कि कविता में धड़कता-थरथराता 

रहे जीवन? 

विद्वानों के हृदय 

क्या अबाबील के अण्डे जैसे होते हैं? 

क्या आसमान में उड़ती पतंगें

छतों पर वापस आना चाहती हैं

या परिन्दों के साथ उड़ते हुए

दूर देश चली जाना चाहती हैं? 

क्या सच्ची कविताएँ और निश्छल हँसी

चीलें उठा ले जाती हैं इनदिनों? 

क्या लकड़बग्घों को

शेयर बाज़ारों की जानकारी होती है? 

या वे कला-वीथिकाओं में पाये जाते हैं

इनदिनों? 

क्या सपनों की चोरी दिन-दहाड़े हो सकती है

या उन्हें गिरवी रखकर जीवन बीमा की

पालिसी ख़रीदी जा सकती है? 

क्या उदासी की कविताओं के बिना भी

उम्मीदों की कविताएँ हो सकती हैं? 

क्या मरुथलों के सपनों में

हरा रंग होता है? 

नदियाँ सागर से मिलने के लिए

बेचैन अधिक रहती हैं

या अपने उद्गम ग्लेशियर की याद में

उदास अधिक रहती हैं? 

क्या कोई आत्मीय दुख अनावृत्त होकर

अपनी रहस्यमय आभा खो देता है

और कविता के प्रदेश से 

बहिर्गमन कर जाता है?

ध्रुव प्रदेशों के सफ़ेद भालू क्या कभी

देख सकेंगे रंग-बिरंगी तितलियों की दुनिया? 

सहजता का स्वाद क्या कभी

चख सकेगी विकट विद्वत्ता? 

अपनी सींगों की जटिलता के बारे में क्या

कभी सोचता है बारहसिंगा? 

क्या बुद्ध कभी भी क्रुद्ध नहीं हुए होंगे? 

क्या बिल्लियाँ मनुष्यों के सपने

देख सकती हैं? 

क्या दरवाज़े भी इन्तज़ार करते हुए

थक जाते होंगे? 

कला वीथिका की भीड़ से बेपरवाह

बैंगनी रंग का घाघरा पहने

हेनरी मतीस की स्त्री

कौन सी किताब पढ़ रही है? 

इस मायूसी भरी रात में

बीथोवेन की सिम्फ़नी 'एरोइका'

कहाँ बज रही है?

**

(5 Apr 2025)

Sunday, March 30, 2025

एक सपने का क़सीदा जिसमें शहतूत का कटा हुआ पेड़ पड़ा था रक्तरंजित

 

शहतूत के कटे हुए तने से बहता हुआ रक्त

मेरे हृदय में प्रवाहित हो रहा था। 

उसके फलों के कत्थई गुच्छों पर 

मँडराती मधुमक्खियाँ

मद्धम गुनगुन स्वर में विलाप कर रहीं थीं। 

हवा की सांत्वना की शान्तिवादी कोशिशें

विफल हो चुकी थीं। 

सोशल डेमोक्रेटिक  बकरियों को उम्मीद थी कि

फिर भी कुछ हरी पत्तियाँ बची रह जायेंगी

चबाने के लिए

अगर कुछ प्रार्थना पत्र लिखे जायें

मिमियाहट की विनम्र भाषा में। 

कविगण ख़ुशहाली के नये उद्यानों की ओर

प्रस्थान कर चुके थे सुन्दर कविताओं के साथ

फौजी बूटों तले कुचले गये फूलों से भरी

सड़कों पर सफ़र करते हुए। 

जलकुम्भी के विस्तार ने सोख लिया था

पानी के ऑक्सीजन का बड़ा हिस्सा। 

तालाब में जहाँ कमल खिले थे

वहाँ कुछ लाशें तैर रही थीं। 

सौन्दर्यशास्त्र की सुनहरी जिल्द वाली

किताबों पर बैठे थे चितकबरे बिसखोपरे। 

नींद के दरवाज़ों  पर कोई लगातार

दस्तक दे रहा था

इस सपने के क़ैदख़ाने से

बाहर आने के लिए आवाज़ लगाते हुए। 

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(30 Mar 2025)


Monday, March 24, 2025

एक अकेले दुख का क़सीदा

 

मृत निजी क्षणों की अवांछित संतान था वह। 

एक अकेला दुख। अनाथ। 

उगा था दिल के नीमअँधेरे, सीलनभरे कोने में। 

एक मटमैले मशरूम की तरह। 

किसी लापरवाही का नतीजा। 

कुपोषित। क्षयग्रस्त। पीतमुख।

घाटी के छोटे से वीरान रेलवे स्टेशन पर अक्सर

घूमता मिलता था निरुद्देश्य। 

मध्यकालीन पत्थर की सीढ़ियों के

हर मोड़ पर ठहरकर

आसपास उदास नज़रें डालता हुआ

वापस लौटता था

घरों के पीछे की गलियों से होकर

लोगों से बचता-बचाता

अपने खण्डहर हो रहे निवास तक जाता था

जब घुग्घू रातों की रहस्यमयी यात्राओं पर

निकल चुके होते थे। 

सामूहिक दुखों के संग-साथ से

अपरिचित वह एकान्तिक निजी दुख

एक रात अपने असह्य अकेलेपन से त्रस्त

किसी विरल आपवादिक क्षण में

बस्ती की मुख्य सड़क पर आ गया हठात्

या शायद अनायास। 

एक घर का दरवाज़ा थोड़ा सा धकेल

झाँका उसने अन्दर। 

वहाँ शोर था एक-दूसरे से अपरिचित लेकिन

नितान्त आत्मीय सामूहिक दुखों का

और जीवन के अनन्त उल्लास का

और उम्मीदों का समूह नृत्य चल रहा था।

ये भाप की तरह उड़कर आये थे

रोज़मर्रा की ज़िन्दगी के समन्दर से

और उस कमरे में उमड़-घुमड़ कर बरस रहे थे। 

घबराकर झट दरवाज़ा भेड़ दिया उसने। 

बेइख्तियार उमड़ आये आँसुओं की तरह

वह फिर अपने कोटर में वापिस 

लौट जाना चाहता था लेकिन

अपनी उत्सुकता दबा नहीं पाया और

पीछे की ओर जाकर एक बन्द खिड़की की

झिरियों से भीतर झाँकने लगा। 

उसे ख़ुद भी पता नहीं चला कि कब 

एक साँप की तरह रेंगता हुआ वह खिड़की से

अन्दर घुसा और कोने में रखे धूल-गर्द से ढँके

पुराने पियानो में समा गया। 

जब भी मामूली लोगों की ज़िन्दगी के

सामूहिक दुखों या उल्लास का शोर 

शिखर पर होता था

पियानो रोता था चुपचाप।

**

(24 Mar 2025)

Sunday, March 16, 2025

पहाड़ों की सर्दियों की कठिन रात का क़सीदा

 

 इस चोटी से उस चोटी तक

घाटी के आरपार फैले

विशाल काले कम्बल के किस कोने में

सुनहरी नागिन 'हिस्स-हिस्स' कर रही है?

ओ सुनहरी नागिन! यहाँ नहीं मिलेंगे तुम्हें

बिल्लौरी आँखों वाले घमण्डी हरे मेढक

और मुझे डँसकर तुम विषरिक्त हो जाओगी। 

मैं तो बची रहूँगी फिर भी

लेकिन तुम कहाँ जाओगी अपने सन्देहों

और अपनी प्यास  के साथ? 

सो जाओ इस  विशाल अँधेरे

विस्तार के किसी कोने में। 

देखो, उधर इतिहास से डरी हुई

चितकबरी बिल्ली सो रही है

भविष्य की अनिश्चितता के बारे में आश्वस्त 

बूढ़े भूरे खरगोश के साथ। 

महत्वाकांक्षी घुग्घुओं का आकलन है कि यह

लम्बी रात उनकी प्रसिद्धि का युग है। 

नदी के इस पार से बेचैन चकवी पुकार रही है

पिछले पहर से

और मर्दवादी चकवा नहीं दे रहा कोई जवाब। 

इतनी रात को सफ़ेद चाँदनी की सिसकियों के बीच

किसके लिए चमक रही हैं हिममण्डित चोटियाँ

और आसमान से झरते दूध की फुहारों में

भीग पा रहे हैं कितने शोकसंतप्त हृदय?

नीचे घाटी की कटोरी में तैर रहे हैं जो जुगनू

कहीं डूबकर मर तो न जायेंगे? 

सारे आदमखोर गुलदार तराई के साल के

जंगलों की ओर चले गये हैं। 

क्या वे आगे मैदानों की ओर जायेंगे? 

वहाँ तो पहले से ही आदमखोरों का 

आतंक है  इनदिनों! 

उधर राजधानी की हवा में इतना प्रदूषण है

कि किसी भी तरह से देखी नहीं जा सकतीं

पहाड़ों पर टिमटिमाती बत्तियाँ। 

और हमें भी तो नहीं पता कि कितनी दूर तक

जाती है इन जलती बत्तियों की रोशनी

सघन कोहरे को भेदती हुई। 

हठी बत्तियाँ फिर भी जलती रहती हैं हर रात।

मैदानी महानगरों के कलाकेन्द्रों में 

रूपवादी कछुए

खुर्दबीनों पर झुके हुए नयी कला-सामग्रियों की

जाँच-पड़ताल में डूबे रहते हैं। 

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(16 Mar 2025)


Wednesday, March 12, 2025

 अच्छे से अच्छे कवि या अपने बहुत प्रिय कवि से भी काव्य-शैली, रूपक या बिम्ब-विधान उधार लेने से अच्छी कविता नहीं बन जाती। 

अच्छी से अच्छी  चीज़ की अच्छी से अच्छी नक़ल भी एक प्रहसन ही होती है। 

जो कवि हमें बहुत अधिक प्रभावित करते हैं उनकी प्रभाव-छाया से मुक्त होने के बाद ही कलम उठानी चाहिए। पसंद करने और नक़ल करने में फ़र्क़ होना चाहिए। जूते और टोपी किसी की चाहे जितनी अच्छी लगे, पहननी तो अपनी ही चाहिए। 

जबतक किसी निजी पीड़ा, अनुभूति या प्रेक्षण का पर्याप्त अमूर्तन या सामान्यीकरण न हो जाये, जबतक कोई विचारपरक या सौन्दर्यपरक अवबोध अवधारणा में रूपांतरित न हो जाये तबतक उसे कविता में नहीं उतारना चाहिए। कविता कवि और पाठक जनसमुदाय के बीच एक विचारधारात्मक-भावनात्मक-सौन्दर्यात्मक सेतु होती है। यह निजी डायरी नहीं होती। इसे नितान्त वैयक्तिक भावोच्छवासों का टोकरा या आहों-कराहों या "पवित्र आत्मस्वीकृतियों" या वायदों-मनुहारों या भँड़ासों का कूड़ेदान मत बनाइए। यह सब अपने प्रेमी/प्रेमिका/प्रियजन से बातचीत और चिट्ठीपत्री करके कर लीजिए। जो निजी भाव सामान्यीकृत न हों वे कविता में आकर क्षुद्र चीज़ों की जुगुप्सापूर्ण नुमाइश बनकर रह जाते हैं चाहे रूपक और बिम्ब जितने भी सुन्दर गढ़ लिये जायें। 

भावों में उदात्तता के बिना काव्यात्मक सौन्दर्य पैदा नहीं किया जा सकता। और व्यक्तित्व में उदात्तता न हो तो भावों में उदात्तता हवा में से नहीं टपक पड़ेगी। 

आत्मसंघर्ष और व्यक्तित्वांतरण एक क्रान्तिकारी के लिए जितना ज़रूरी होता है, उतना ही एक सच्चे कवि के लिए भी ज़रूरी होता है। 

**

(डायरी के इन्दराज, 12 मार्च 2025)


Sunday, March 09, 2025

 (नेपाली कवि कामरेड बलराम तिमल्सिना ने मेरी कविता 'एक नीले सपने का क़सीदा' का नेपाली भाषा में अनुवाद किया है) 

एउटा नीलो सपनाको कथा

******** 

कालो -खैरो 

राजकीय हिंसाको छायाँ मुन्तिर

अँध्यारोमा रातो रगत घोलिएको थियो ।

सडकहरूमा निरङ्कुश आवाजको साम्राज्य थियो 

मन्दिरमा घण्टहरू 

पुरै तागत लगाएर बजिरहेका थिए 

अनि चिहानघारीमा 

रातको एकान्तमा 

पँहेला जूनकीरीहरू चम्किरहेका थिए ।

लखेटिरहेको हत्याराबाट बच्नको लागि

म अँध्यारो अनि घुमाउरो 

अप्ठेरो  गल्लीको बाटो दौडिरहेकी थिएँ

यत्तिकैमा 

खै निद्रामा हो या ब्युँझेको बेला हो

एउटा ढोका खुल्यो 

अनि म वास्तविक हो या अवास्तविक 

कुनै अर्कै लोकमा प्रवेश गरें ।

त्यहाँ एउटा सपनाको नीलोपनमा 

सबै कुराले नुहाएका थिए ।

एउटा काव्यात्मक नीलो आवेगमा ।

आशाहरूले भरपुर

निर्भिक बैंसालुपनको निश्चल नीलोपनमा ।

जूनेली पनि नीलै बनेर वर्षिरहेको थियो ।

वनस्पतीहरूले पनि 

त्यो रात नीलो बन्न पाऊँ भनेर अनुमती मागेका थिए ।

नीलोपनको त्यो स्वप्निल विस्तारमा

मैले एउटा रातो रङ्गको सपना देखें ।

सायद सपनामै अर्को सपना

अनि खुसीले मरें ।

मेरो शरीर नीलो बन्यो 

अनि नीलो सपनामा घोलियो ।

भूइँमा पराजित अनि किंकर्तयविमूढ

त्यही चक्कु देखिन्थ्यो 

जुन चक्कु मेरो पिठ्युँमा गाडिएको थियो ।

**

©Kavita Krishnapallavi 

अनु :बलराम

मूल कविता:

एक नीले सपने का क़सीदा

काले-भूरे राजकीय हिंसा के घटाटोप में

लाल रक्त घुल रहा था अँधेरे में। 

सड़कों पर फ़ासिस्ट शोर का साम्राज्य था

मन्दिरों के घण्टे पूरी ताक़त के साथ 

बज रहे थे

और क़ब्रिस्तान में रात की वीरानगी में

पीले जुगनू चमक रहे थे।

पीछा करते हत्यारों से बचने के लिए मैं

तंग घुमावदार अँधेरी गलियों से होकर

भाग रही थी कि सहसा

नींद में या कि जागे में

खुला एक दरवाज़ा

और मैं वास्तविक या कि अवास्तविक

किसी और दुनिया में प्रवेश कर गयी। 

वहाँ एक सपने के नीलेपन में

सबकुछ नहाया हुआ था। 

एक काव्यात्मक नीले आवेग में। 

उम्मीदों से लबरेज़

निर्भीक तरुणाई के निष्कलुष नीलेपन में। 

चाँदनी भी बरस रही थी नीली। 

वनस्पतियों ने इजाज़त माँगी थी वहाँ उस रात

कि नीली हो जायें। 

नीलेपन के उस स्वप्निल विस्तार में

मैंने एक लाल रंग का सपना देखा। 

शायद सपने में एक सपना

और ख़ुशी से मर गयी। 

नीला पड़ गया मेरा शरीर

और नीले सपने में घुल गया।

फ़र्श पर पड़ा था पराजित,  किंकर्तव्यविमूढ़

इस्पात का वही चमकता हुआ चाकू

जो मेरी पीठ में धँसा हुआ था। 

**

Saturday, March 08, 2025

एक नीले सपने का क़सीदा

 

काले-भूरे राजकीय हिंसा के घटाटोप में

लाल रक्त घुल रहा था अँधेरे में। 

सड़कों पर फ़ासिस्ट शोर का साम्राज्य था

मन्दिरों के घण्टे पूरी ताक़त के साथ 

बज रहे थे

और क़ब्रिस्तान में रात की वीरानगी में

पीले जुगनू चमक रहे थे।

पीछा करते हत्यारों से बचने के लिए मैं

तंग घुमावदार अँधेरी गलियों से होकर

भाग रही थी कि सहसा

नींद में या कि जागे में

खुला एक दरवाज़ा

और मैं वास्तविक या कि अवास्तविक

किसी और दुनिया में प्रवेश कर गयी। 

वहाँ एक सपने के नीलेपन में

सबकुछ नहाया हुआ था। 

एक काव्यात्मक नीले आवेग में। 

उम्मीदों से लबरेज़

निर्भीक तरुणाई के निष्कलुष नीलेपन में। 

चाँदनी भी बरस रही थी नीली। 

वनस्पतियों ने इजाज़त माँगी थी वहाँ उस रात

कि नीली हो जायें। 

नीलेपन के उस स्वप्निल विस्तार में

मैंने एक लाल रंग का सपना देखा। 

शायद सपने में एक सपना

और ख़ुशी से मर गयी। 

नीला पड़ गया मेरा शरीर

और नीले सपने में घुल गया।

फ़र्श पर पड़ा था पराजित,  किंकर्तव्यविमूढ़

इस्पात का वही चमकता हुआ चाकू

जो मेरी पीठ में धँसा हुआ था। 

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(8 Mar 2025)


Friday, March 07, 2025

 नेपाली कवि कामरेड  बलराम तिमल्सिना ने 'काठ का कुन्दा' कविता का नेपाली भाषा में अनुवाद किया है। 

काठको मुढो !

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पोखरीको किनारामा 

एक छेउ पानीलाई छोएको

अनि अर्को छेउ

एउटा भत्किएको झुपडीमा गाडिएको

एउटा काठको मुढो छ ।

पानीमा परेको भागलाई

हरियो लेऊले छोपेको छ 

झुपडीतिर धसिएको भागलाई 

स-साना नीला फूल फुल्ने 

जङ्गली लहराले छोपेको छ ।

बीचको भागमा 

एउटा सानो टोड्को छ 

जहाँ एउटा सानो चराको गुँड छ ।

काठको एउटा सडिरहेको मुढासँग पनि

यदि यति धेरै जिन्दगी, आशा ,प्रेम

जिजीविषा ,युयुत्सा

र हरियालीका लागि 

यति धेरै स्थान हुन सक्छ भने 

मान्छे भनेको त मान्छे नै हो नि !

अँ , यदि मान्छे नै काठको मुढो भैसकेकै हो भने 

कुरा निकै अप्ठेरो छ।

त्यस्तो खाले मानिस 

वास्तविक काठको मुढो भन्दा पनि

हजारौं गुणा बढी गएगुज्रेको हुन्छ ।

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©Kavita Krishnapallavi 

अनु :बलराम

  मूल कविता

काठ का कुन्दा 

पोखर के किनारे पड़ा हुआ है 

काठ का एक लम्बा कुन्दा 

अपने एक सिरे से पानी को छूता हुआ,

दूसरा सिरा एक टूटी हुई झोंपड़ी में धँसा हुआ।

पानी में पड़े हिस्से को ढँक रखा है हरित शैवाल ने।

झोंपड़ी में धँसे हिस्से को छाप रखा है 

छोटे-छोटे नीले फूलों वाली जंगली लतर ने।

बीच के हिस्से में एक छोटा सा खोखल है 

किसी छोटी सी चिड़िया का बसेरा।

काठ के एक सड़ते हुए कुन्दे के पास भी 

अगर इतनी ज़िन्दगी, इतनी उम्मीदें, इतना प्यार,

इतनी जिजीविषा, इतनी युयुत्सा 

और हरियाली की इतनी जगह  है 

तो आदमी तो फिर भी आदमी है।

हाँ, अगर आदमी ही काठ का कुन्दा बन चुका हो

तो मामला संगीन है।

ऐसा आदमी एक वास्तविक काठ के कुन्दे से भी 

गया-गुज़रा होता है हज़ार गुना।

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