महाविद्रोही जनमनीषी राहुल सांकृत्यायन के जन्मदिवस (9 अप्रैल) और स्मृति दिवस (14 अप्रैल) के अवसर पर
तर्क व ज्ञान की मशाल लेकर आगे बढ़ो और रूढ़ियों को तोड़ डालो !
भागो नहीं, दुनिया को बदलो !!
राहुल सांकृत्यायन हमारे देश की एक महान शख्सियत थे। इनका नाम आज हर बच्चे की जुबान पर होना चाहिए था और हर युवा तक इनके विचारों की पहुँच होनी चाहिए थी लेकिन अफ़सोस की बात है कि आज बहुतेरे लोग उन्हें या उनकी वैचारिक विरासत को जानते तक नहीं। राहुल सांकृत्यायन ने पूरे समाज में धार्मिक रूढ़ियों और पाखण्डों के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी और आम मेहनतकश जनता को शोषण-उत्पीड़न के विरुद्ध जागरूक किया। जनता को लूटने वाली और समाज को जाति और सम्प्रदाय के आधार पर बाँटने वाली शक्तियाँ उनके विचारों से आज भी डरती हैं और जनपक्षधर ताकतें अपने संघर्षों के लिए उनसे आज भी प्रेरणा लेती हैं।
राहुल सांकृत्यायन का जन्म में 9 अप्रैल 1893 को आजमगढ़ में हुआ था। इनका बचपन का नाम केदारनाथ पाण्डे था। ज्ञान की ललक और घुमक्कड़ी के चस्के ने इनके सोचने-समझने के ढंग-ढर्रे को ही नहीं बदला बल्कि इसी प्रक्रिया में इन्होंने अपना नाम भी बदल डाला। राहुल कई भाषाओं और विषयों के अद्भुत जानकार थे, चाहते तो आराम से रहते हुए बड़ी-बड़ी पोथियाँ लिखकर शोहरत और दौलत दोनों कमा सकते थे परन्तु वे एक सच्चे कर्मयोद्धा थे। उन्होंने आम जन, ग़रीब किसान, मज़दूर की दुर्दशा और उनकी मुक्ति के विचारों को अपनाया। उनके बीच रहते हुए उन्हें जागृत करने का काम किया और संघर्षों में उनके साथ रहे। वे वास्तव में जनता के अपने आदमी थे। उन्हें ग़रीब किसान और मज़दूर प्यार से राहुल बाबा बुलाते थे।
राहुल ने अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल समाज को बदलने के लिए जनता को जगाने में किया। इसके लिए उन्होंने सीधी-सरल भाषा में न केवल अनेक छोटी-छोटी पुस्तकें और सैकड़ों लेख लिखे, बल्कि लोगों के बीच घूम-घूमकर गुलामी और अन्याय के विरुद्ध संघर्ष के लिए उन्हें संगठित भी किया। अंग्रेज़ हुकूमत तथा ज़मींदारों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए उन पर लाठियाँ पड़ीं, कई बार उन्हें जेल में डाला गया लेकिन वहाँ भी वे लगातार लिखते रहे। उनकी कई किताबें तो अलग-अलग जेलों में ही लिखी गयीं। राहुल दूर तक देख सकते थे इसलिए उन्होंने यह समझ लिया था कि भारतीय समाज की तर्कहीनता, अन्धविश्वास, सदियों पुराने गतिरोध, कूपमण्डूकता आदि पर करारी चोट करके ही इसे आगे बढ़ाया जा सकता है। वे कहते थे, “समाज की बेड़ियाँ जेलखाने की बेड़ियों से भी सख्त हैं।" "हमें अपनी मानसिक दासता की बेड़ी की एक-एक कड़ी को बेदर्दी के साथ तोड़कर फेंकने के लिए तैयार रहना चाहिए। बाहरी क्रान्ति से कहीं ज्यादा ज़रूरत मानसिक क्रान्ति की है। हमें आगे-पीछे-दाहिने-बायें दोनों हाथों से नंगी तलवारें नचाते हुए अपनी सभी रूढ़ियों को काटकर आगे बढ़ना होगा।" औपनिवेशिक शासन के दौरान किसानों की लड़ाई लड़ते हुए भी राहुल ने इस बात को नहीं भुलाया कि केवल अंग्रेज़ों से आज़ादी और ज़मीन मिल जाने से ही उनकी समस्याओं का अन्त नहीं हो जायेगा। उन्होंने साफ़ कहा था कि मेहनतकशों की असली आज़ादी जनता के अपने शासन में ही आयेगी।
राहुल सांकृत्यायन ने भारतीय समाज की हर बुराई, हर तरह की दिमाग़ी गुलामी, हर तरह के अन्धविश्वास, तमाम गलत परम्पराओं पर चोट की और उनके विरुद्ध जनता को शिक्षित किया। राहुल कहते थे “ऐसे समाज के लिए हमारे दिल में क्या इज़्ज़त हो सकती है, क्या सहानुभूति हो सकती है? बाहर से धर्म का ढोंग, सदाचार का अभिनय, ज्ञान-विज्ञान का तमाशा किया जाता है और भीतर से यह जघन्य, कुत्सित कर्म ! धिक्कार है ऐसे समाज को !! सर्वनाश हो ऐसे समाज का !!!" “जिस समाज ने प्रतिभाओं को जीते-जी दफ़नाना कर्तव्य समझा है और गदहों के सामने अंगूर बिखेरने में जिसे आनन्द आता है, क्या ऐसे समाज के अस्तित्व को हमें पलभर भी बर्दाश्त करना चाहिए?" वे लोगों का सीधा आह्वान करते थे - "भागो नहीं, दुनिया को बदलो !"
धार्मिक कट्टरता, जातिभेद की संस्कृति और हर तरह की दिमाग़ी गुलामी के ख़िलाफ़ राहुल सांकृत्यायन के आह्वान पर अमल हमारे समाज की आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है। आज समाज में जारी लूट-खसोट और दमन-शोषण पर पर्दा डालने और इनके विरुद्ध जनता की एकजुटता को तोड़ने के लिए तमाम तरह के प्रयास जारी हैं। आम लोगों को धर्म और जाति के नाम पर एक-दूसरे के ख़ून का प्यासा बनाया जा रहा है। विज्ञान की जगह पोंगापन्थ को बढ़ावा दिया जा रहा है और आगे बढ़ने की बजाय पीछे जाने के रास्ते खोले जा रहे हैं तो राहुल के विचारों को जानना और जन-जन तक पहुँचाना और भी ज़रूरी हो गया है।
राहुल सांकृत्यायन का जीवन देश के हर युवा के लिए प्रेरणादायक है। वे मेहनतकश लोगों से प्यार करते थे और उनके लिए अपना जीवन कुर्बान कर देना चाहते थे। जीवन छोटा था, काम बहुत अधिक था। सदियों से सोये भारतीय समाज को जगाना आसान नहीं था। बाहरी दुश्मन से लड़ना आसान था, लेकिन अपने समाज में बैठे दुश्मनों और खुद अपने भीतर पैठे हुए संस्कारों, मूल्यों, रिवाजों के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए लोगों को तैयार करना उतना ही कठिन था। राहुल को एक बेचैनी सदा घेरे रहती। वे एक साथ दो-दो किताबें लिखने में जुट जाते। ट्रेन में चलते हुए, सभाओं के बीच मिलने वाले घण्टे-आध घण्टे के अन्तराल में, या सोने के समय में भी कटौती करके वह लिखते रहे। लगातार काम करते रहने से उनका लम्बा, बलिष्ठ, सुन्दर शरीर जर्जर हो गया। पर वह रुके नहीं। यह सिलसिला तब तक चला जब तक मस्तिष्क पर पड़ने वाले भीषण दबाव से उन्हें स्मृतिभंग नहीं हो गया। याद ने साथ छोड़ दिया। आर्थिक परेशानी ने घेर लिया। पूरा इलाज भी नहीं हो सका और 14 अप्रैल 1963 को 70 वर्ष की उम्र में मज़दूरों-किसानों के प्यारे राहुल बाबा ने आँखें मूंद लीं। लेकिन उन्होंने जो मुहिम चलायी उसे आगे बढ़ाये बिना आज हिन्दुस्तान में इंक़लाब लाना मुमकिन नहीं है। आज हमारे समाज को जिस नये क्रान्तिकारी पुनर्जागरण और प्रबोधन की ज़रूरत है, उसकी तैयारी के लिए महाविद्रोही राहुल सांकृत्यायन हमें सदैव प्रेरित करते रहेंगे।
आज फ़ासिस्ट शक्तियाँ देश की सत्ता में बैठी हैं और भारतीय समाज उनके हमलों से त्रस्त है। लेकिन उनसे लड़ने का मन्त्र भी राहुल सांकृत्यायन ने ही दिया था : “यदि जनबल पर विश्वास है तो हमें निराश होने की आवश्यकता नहीं है। जनता की दुर्दम्य शक्ति ने, फ़ासिज्म की काली घटाओं में, आशा के विद्युत का संचार किया है। वही अमोघ शक्ति हमारे भविष्य की भी गारण्टी है।"
राहुल सांकृत्यायन की विरासत को आगे बढ़ाने के लिए हम देश के उन सभी नौजवान साथियों का आह्वान करते हैं जो पोंगापन्थ, अन्धविश्वासों, दकियानूसी, कूपमण्डूकता और धार्मिक व जातीय बँटवारे की राजनीति के ख़िलाफ़ हैं, जो हर तरह के अन्याय और शोषण के ख़िलाफ़ विद्रोह के पक्षधर हैं। आओ! अँधेरे की ताक़तों के विरुद्ध तर्क और ज्ञान की मशाल लेकर आजीवन संघर्षरत रहे राहुल सांकृत्यायन के मिशन को आगे बढ़ाने का संकल्प लो !
इन्क़लाब ज़िन्दाबाद !
(नौजवान भारत सभा)
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