Thursday, April 17, 2025

 एक बुज़ुर्ग साहित्यकार महोदय हैं। एक पत्रिका के सम्पादक भी हैं। पिछले साल आज ही के दिन मैंने ग़ज़ा में जायनवादी फासिस्टों द्वारा जारी नरसंहार पर एक पोस्ट डाली थी तो मुझे झिड़कते हुए उन्होंने कमेंट किया था कि मुझे अपने देश के ठोस हालात पर सोचना और लिखना चाहिए न कि दूर देश की किसी अमूर्त समस्या पर। उन महात्मा की उम्र का ख़याल करते हुए तब मैंने उनका विनम्र प्रतिवाद ही करके छोड़ दिया था जिसका मुझे अब बहुत अफ़सोस होता है। 

निकृष्टतम कोटि के चोचल ढेलोक्रेट अपने मेटामार्फोसिस के बाद ऐसे ही तिलचट्टों में बदल जाते हैं। 

बाद में मैंने देखा कि अपने देश की ठोस समस्याओं पर, मॉब लिंचिंग या हिन्दुत्ववादियों की तमाम फासिस्टी बर्बरताओं और अंधेरगर्दियों पर इन महामना ने कभी चूँ या पूँ तक नहीं किया। तब मुझे लगा कि यह उन अराजनीतिक बुद्धिजीवियों से भी गये-गुज़रे विशुद्ध साहित्यिक जंतु हैं जिनकी भर्त्सना ओत्तो रेने कस्तीय्यो ने अपनी प्रसिद्ध कविता में की थी। 

अभी पिछले दिनों उन्होंने मुझे फोन करके बताया कि उनकी अतिमेधावी सुपुत्री कविता की दुनिया में कैसे नये-नये मील के पत्थर गाड़ रही हैं और अन्वेषा वार्षिकी के लिए उनसे कविताएँ न माँगकर मैंने कितनी भयंकर और ऐतिहासिक भूल की है। धिक्कार है मेरे उदारतावाद को, कि फिर भी मैंने उन्हें कुछ दोटूक नहीं कहा। अब मैं सोचती हूँ कि ये वाले साहित्यिक अंकल जी भी सोसायटी के खलिहर अंकल जी लोगों से कम गये-गुज़रे नहीं हैं। ये महोदय न केवल राजनीतिक लबड़धोंधो और साहित्यिक भकचोन्हर हैं, बल्कि ख़ानदानवादी चेंथरचौधुर चपरकनाती भी हैं। 

ऐसी ही विभूतियों को पाकर हिन्दी साहित्य धन्य-धन्य होता रहा है।

(17 Apr 2025)

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