Tuesday, January 16, 2024

नाटक में समकालीनता

 

नाटक में समकालीनता

हमें मंच पर अँधेरे को प्रस्तुत करना था

उसकी सम्पूर्ण भयावहता के साथ। 

लेकिन हल्की सी रोशनी का अहसास

बचा ही रह जाता था किसी न किसी तरह से। 

तब हमने मंच और समूचे प्रेक्षागृह को

अधिकतम सम्भव रंगारंग रोशनी 

और नेपथ्य को संगीत और शोर से भर दिया

एक कला-साहित्य महोत्सव की तरह

और फिर अचानक सारी रोशनी ग़ायब

और एकदम सन्नाटा! 

फिर लोगों ने आसपास के घुप्प अँधेरे को

शिद्दत के साथ महसूस किया

और दमघोंटू चुप्पी को भी। 

पर्दे पर देखीं सबने ख़ौफ़ की परछाइयाँ

और मंच से ख़ून बहता हुआ, 

चुपचाप नीचे उतरता हुआ, 

प्रेक्षागृह में भरता हुआ। 

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(16 Jan 2024)


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