Tuesday, February 06, 2024

मनोहर की कहानी


मनोहर की कहानी 

मनोहर की कहानी पिछले साल की है। उमर तक़रीबन बाइस-तेइस साल होगी। बहुत कम बोलता था। लेकिन जब बोलता था तो एकदम दो-टूक, बेलागलपेट और फैसलाकुन ! दोस्त भी दो-तीन से अधिक नहीं। दिहाड़ी करता था। रोज़ाना नौ बजे तक साइकिल के हैंडल पर टिफिन का डब्बा टाँगे लेबर चौक पहुँच जाता था।

और नौजवानों की तरह मोबाइल में घुसे रहने का शौक़ नहीं था। हाँ, रोज़ाना सुबह अपनी खोली के सामने के चायख़ाने पर बैठकर अखबार ज़रूर पड़ता था। प्राइवेट से हाईस्कूल परीक्षा का फॉर्म भी भर रखा था । घनघोर जाड़ा और बरसात छोड़कर हमेशा छत पर ही सोता था और तारों को निहारता रहता था हालाँकि रोशनाबाद के धूल-धुआँ भरे आसमान में तारे कम ही नज़र आते हैं और जो दिखते भी हैं वे बूढ़ी-थकी आँखों की तरह टिमटिमाते हुए।

चाहे कुछ भी हो, हर इतवार को मनोहर अपने गाँव ज़रूर चला जाता था। गाँव में खेती-बाड़ी कुछ नहीं था, न घर का कोई अपना। माँ तो बचपन में ही नहीं रही। पिता  दिल्ली के नांगलोई के किसी कारखाने में उसके बचपन में ही कमाने चला गया था। कुछ ही बरसों बाद कारखाने में लगी आग में उसकी मौत हो गयी। कारखाना ग़ैरक़ानूनी था। उसकी बहुमंज़िली इमारत के गेट पर रात को मालिक ताला लगाकर जाया करता था। आग रात में लगी। आठ मज़दूर तो आग में  जलकर और जलते चमड़े और केमिकल्स के ज़हरीले धुएँ में घुटकर मर गये। कुछ ऊपरी मंजि़लों से नीचे कूदने के कारण चकनाचूर हड्डियों के साथ दर्दनाक मौत मरे या ज़िन्दगी भर के लिए अपाहिज हो गये। किसी को कोई मुआवजा नहीं मिला। पुलिस, लेबर डिपार्टमेंट और स्थानीय नेताओं ने मिलकर सारा मामला रफ़ा-दफ़ा कर दिया।

मनोहर को पिता की बस हल्की सी याद थी। घर में एकमात्र दादी बची थी जिसने उसे पालपोसकर बड़ा किया था। दादी दूसरों के खेतों में काम करती थी और कुछ घरों में भी बरतन-बासन, सफ़ाई-दफ़ाई कर लिया करती थी। 

दादी रोज़ रात को आँगन में चमकते तारों से भरे आसमान के नीचे बिस्तर लगाती थी और बाजू में लेटे मनोहर को आसमान में छिटके तारों की कहानियांँ गढ़-गढ़कर सुनाती चली जाती थी। कभी वे तारों के झुण्डों के आपसी रिश्तों से जुड़ी होती थीं तो कभी किनारे अकेले टिमटिमाते किसी अकेले तारे के दु:ख और उदासी की कहानी होती थी। दादी ने जो कुछ भी जीवन देखा-भोगा था उनमें थोड़ी कल्पना, थोड़े अपने सपनों और थोड़ी अपनी अधूरी चाहतों का रंग भरती थी और उन्हें सितारों की कहानियाँ बनाकर मनोहर को सुनाती थी। मनोहर ने सितारों की कहानियाँ सुनते -सुनते ज़िन्दगी के बारे में बहुत कुछ जाना था। आसमान के तमाम तारों में से दो को उसने अपनी माँ और पिता की पहचान भी दे दी थी। 

दादी के पास लेटकर तारों की कहानियांँ सुनने का सिलसिला मनोहर के जवान होने तक जारी रहा। इन तमाम किस्सों से दो-तीन किताबें तैयार हो सकती थीं लेकिन मनोहर एदुआर्दो गालियानो तो था नहीं। वह बिजनौर के एक गाँव के भूमिहीन जाटव परिवार का बेटा था जिसके माँ-बाप नहीं थे, सिर्फ़ दादी थी और जिसने जातिगत अपमान का दंश सहते हुए किसी तरह से सिर्फ़ सातवीं क्लास तक की पढ़ाई की थी। अनुभव, त्रासदियाँ, सपने और फंतासियाँ तो अगणित लोगों के पास होती हैं। उनमें से सिर्फ़ दशमलव एक प्रतिशत उन सहृदय और सृजनशील लोगों के माध्यम से प्रकाश में आ पाती हैं, जिनके पास जीने की न्यूनतम ज़रूरतें और कामचलाऊ सामाजिक सम्मान होता है या कुछ संघर्ष और यंत्रणाओं के बाद जो लोग ये चीज़ें किसी हद तक हासिल कर लेते हैं। फिर यह जो प्रकाश में आता है वह अक्सर उस भाषा के चर्चित, या दुनिया के महान साहित्य तक में शुमार हो जाता है। बहरहाल, इन साहित्यिक टाइप बातों से आपको पकाने की जगह मैं फिर मनोहर की दास्तान पर वापस लौटती हूँ।

पंद्रह साल का होने के बाद मनोहर को भी गाँव के एक दबंग जाट किसान की गायों-भैंसों की देखभाल का काम मिल गया था। यहीं उसे पहली बार एक दोस्त भी मिला -- अक्षयबर। अक्षयबर जाति का अहिरवार था जिसके पुरखे बुंदेलखंड में चंबल किनारे के किसी गाँव से उजड़कर यहाँ आ बसे थे। मनोहर जिस जाट के गायों -भैंसों का काम देखता था, उसके परिवार ने अक्षयबर के परिवार को अपनी ज़मीन पर बसा दिया था और वे चार पुश्त से उसके खेतों में काम करते थे। अक्षयबर मुँहफट था, बहुत अच्छा गवैया था और खेतों में काम करने वाली लड़कियों से ठिठोलीबाज़ी उसका एक मुख्य शग़ल था। इसके उलट मनोहर अंतर्मुखी और शर्मीला था लेकिन दोनों की दोस्ती बेहद गहरी थी। अक्षयबर किसी सुन्दर लड़की को पटाने -भगाने की अपनी योजना मनोहर को सुनाता था लेकिन मनोहर की सितारों की कहानियांँ भी उसे बहुत भाती थीं, जैसे वह किसी और दुनिया में पहुँच जाता था।

मनोहर जब सातवीं में पढ़ रहा था उसी साल नजीबाबाद के किसी स्कूल से बदली होकर भट्ट मास्साब उसके स्कूल में आये। सरकारी स्कूल के एक खंडहर नुमा वीरान क्वार्टर में उन्होंने तीन दिनों तक साफ़ -सफ़ाई और मरम्मत के कामों के बाद अपना आसन जमाया। भट्ट मास्साब घोषित तौर पर जात-पात नहीं मानते थे। उनका खाना भी स्कूल में अपने दिवंगत पति की जगह पर नियुक्त एक जाटव स्त्री पकाती थी। भट्ट मास्साब गणित के माहिर शिक्षक थे लेकिन उनका कमरा साहित्य की किताबों से ठसाठस भरा हुआ था। साथ ही वह भयंकर गपोड़ी भी थे। उनके अड्डे पर हमेशा लड़कों की भीड़ लगी रहती थी। उनके जाति-विरोधी विचारों के कारण जाट और ब्राह्मण परिवार अपने बच्चों को भट्ट मास्साब के पास जाने से रोकते थे, फिर भी उनके कई बच्चे आते ही थे। एक ख़ास बात यह थी कि भट्ट मास्साब बिना पैसा लिए होम्योपैथी की दवाएँ भी देते थे। इस नाते कई बार ग़ैर-दलित जातियों के किसानों को भी उनके पास आना पड़ता था।

भट्ट मास्साब ने ही मनोहर को प्रेमचंद, शरतचन्द्र आदि लेखकों से परिचय कराया और राहुल और भगतसिंह की रचनाएँ भी पढ़वाईं। एक साल के भीतर मनोहर की बाहरी दुनिया और सितारों की कहानियों की दुनिया का क्षेत्रफल बहुत अधिक फैल गया। इसी बीच दो घटनाएँ घटीं। शिक्षा विभाग के अफसरों से लेकर हेडमास्टर तक से लगातार जारी दुश्मनी के चलते भट्ट मास्साब का ट्रांसफर फर्रूखाबाद के किसी गाँव के स्कूल में हो गया। उसीके तीन महीने बाद ठंड लगने और न्यूमोनिया होने के बाद मनोहर की दादी की मौत हो गयी। गाँव में अब कुछ ऐसा नहीं था जो मनोहर को वहाँ बाँधे रह सके। एक अक्षयबर की दोस्ती का थोड़ा मोह था, लेकिन मनोहर ने अपना रास्ता तय कर लिया था। 

घर की चाभी अक्षयबर को सौंपकर वह हरिद्वार सिडकुल आ गया। एक साल के भीतर आधे से अधिक कारखानों के मालिक और लेबर कांट्रैक्टर उसे मज़दूरों को भड़काने और सुपरवाइज़रों फ़ोरमैनों से पंगा मोल लेने वाले बदमाश मज़दूर के तौर पर जानने लगे। उसे ठिकाने लगाने के बारे में भी सोच पाना आसान नहीं था। बीस-पच्चीस मज़दूर अब मज़बूती से उसके साथ खड़े रहते थे। ज़्यादातर कारखानों में उसे काम मिलना मुश्किल हो गया। फिर जब कोई  ऐसा काम नहीं मिलता तो वह लेबर चौक जाने लगा। हाँ, हर इतवार वह गाँव ज़रूर जाता था। अक्षयबर से चाबी लेकर घर की ख़ूब साफ़ -सफ़ाई करता था और फिर आँगन में बिस्तर बिछाकर देर तक चमकते तारों को उसी तरह देखता और कुछ कल्पना करता था जैसे बचपन से करता आया था।

फिर  एक दिन उसे एक कारखाने के कैम्पस में स्थित एक पुरानी इमारत को गिराने का काम एक लेबर कांट्रैक्टर के ज़रिए मिला। सात दिनों का काम था -- तीन पाली में चौबीसों घंटे । तीसरे दिन रात क़रीब आठ बजे टूटती इमारत के पश्चिमी हिस्से से शोर उठा। दूसरे हिस्सों से मज़दूर जब भागकर पहुँचे तो देखा, मनोहर ज़मीन पर चित्त पड़ा हुआ है। उसकी छाती पर करीब बीस किलो का कांक्रीट का एक टुकड़ा पड़ा हुआ है। मनोहर मर चुका था लेकिन उसकी आँखें खुली हुई आसमान की ओर देख रहीं थीं।

इत्तेफ़ाक से अक्षयबर एक दिन पहले ही अपने जिगरी यार से मिलने रोशनाबाद आया हुआ था और कमरे पर सो रहा था। ख़बर मिलते ही भागते हुए आया। आते ही वह मनोहर के निर्जीव शरीर से लिपट गया। कुछ देर बाद उसकी आँखों से बहते आँसू रुक गये और वह खड़ा हो गया। फिर सिर के पास बैठकर अपनी नम गर्म हथेलियों से मनोहर की खुली आँखों को बंद करते हुए पास खड़े मज़दूरों से बोला,"साला मरने के बाद भी आसमान के तारों को देखकर कोई कहानी सोच रहा है। अब इसको इस ज़िम्मेदारी से छुट्टी देनी होगी। अगर इसकी आँखें खुली छोड़ दी जायें तो इसका  सारा प्राण इसकी आँखों में  आ जायेगा और यह आसमान के तारों को देखते हुए धरती के अँधेरे के बारे में सोचता रहेगा। अरे, इसे चैन से मरने देने के लिए कुछ काम तो तुम लोगों को भी करना होगा।"

आगे की बात कहानी से बाहर की है, यहाँ की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी की गुप्त रहस्यमय बातें हैं! और आप सुनकर करेंगे भी क्या! करनी न धरनी, बस ऐसी बातों से थोड़ी देर भावुक होकर अपने संवेदनशील होने पर गर्व करते रहेंगे। वैसे भी आजकल तो सबको गर्व करने की आदत डाली जा रही है। 

चलिए, फिर भी इतना बताये दे रहे हैं कि आजकल इस औद्योगिक इलाके में मज़दूर मनोहर के टाइम से भी अधिक बवाली होते जा रहे हैं। आये दिन हड़ताल और जुलूस और लाठीचार्ज और गिरफ़्तारियाँ। एक दिन लाठीचार्ज के बाद पुलिस वाले एक टपरी में बैठकर चाय पी रहे थे। एक अधेड़ कांस्टेबल बोला,"बाल-बच्चे पालने के लिए इतना धतकरम करना होगा रोज़ -रोज़, यह तो कभी नहीं सोचा था। सोचते ही नहीं थे पहले कुछ!" साथ बैठा उससे कुछ कम उम्र का कांस्टेबल बोला, "हमको तो मन करता है हम भी बवाली बन जायें, जबर्जस्त बवाली। भैंचों, लगता ही नहीं कि इंसान हैं!"

आगे की उत्तर कथा में इतना और जोड़ दें कि अक्षयबर भी अब गाँव छोड़कर मज़दूरी करने आ गया है। उसी खोली में रहता है जिसमें मनोहर रहता था। अक्षयबर भी अब खुली छत पर सोता है और देर तक तारों को देखते हुए कुछ सोचता रहता है और उनके बारे में कुछ कहानियांँ बनाता रहता है, हालाँकि यहाँ रोशनाबाद में, इतनी धूल, धुंध और धुआँ है कि सितारे दिखते ही बहुत कम हैं और जो दिखते हैं वे बहुत मद्धम, टिमटिमाते हुए।

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(6 Feb 2024)


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