Sunday, May 11, 2025

 सबसे अच्छे लोगों के पास सुन्दरता के लिए भावनाएँ होती हैं, जोखिम मोल लेने की हिम्मत होती है, सच कहने का अनुशासन होता है, क़ुर्बानी देने की कुव्वत होती है। विडम्बना यह होती है कि अपने इन्हीं गुणों के कारण वे सहज भेद्य होते हैं; उन्हें अक्सर जख़्म दिये जाते हैं, और कभी-कभी तो तबाह कर दिया जाता है। 

-- अर्नेस्ट हेमिंग्वे ('अ फ़ेयरवेल टु आर्म्स')

बौद्धिक बाज़ार में सेल लगी है।


एक किलो मूर्खता के साथ अति आत्मविश्वास का पाँच सौ ग्राम का पैकेट मुफ़्त! 

पाँच किलो कूपमण्डूकता के साथ दो किलो आत्ममुग्धता मुफ़्त! 

तीन दर्जन कविता के साथ महानता-बोध का तीन लीटर का छोटा गैस सिलेंडर मुफ़्त! 

दस किलो कठमुल्लेपन के साथ दस किलो थेंथरपन मुफ़्त! 

दस लीटर लिब्बूपन के साथ रीढ़ की हड्डी निकालने का आपरेशन मुफ़्त! 

एक कुन्तल धार्मिक कठमुल्लेपन के साथ आधा कुन्तल अंधराष्ट्रवाद, आधा कुन्तल युद्धोन्माद और एक ट्राली गाय का गोबर मुफ़्त! 

जल्दी आओ! ज़्यादा पाओ! फिर न कहना कि बताया नहीं!

Saturday, May 10, 2025

 नूर का अर्थ है रौनक। इससे नूरा विशेषण बना है। नूरा कुश्ती यानी ऐसी कुश्ती जिसमें कुश्ती की रौनक या तड़क-भड़क तो हो लेकिन कुश्ती वास्तविक न हो। 

नूरा कुश्ती में पहलवान मिलीभगत करके लड़ते हैं, किसी की हार या जीत नहीं होती और दोनों प्रतिद्वंद्वियों के समर्थक अपने-अपने पहलवान की वाहवाही करते हुए उन्हें कंधों पर उठाये लौट जाते हैं। 

नूरा कुश्ती के बाद दोनों पहलवानों की घटती हुई साख उनके समर्थकों में फिर से जम जाती है। दोनों पहलवान दावा करते हैं कि वे ही भारी पड़ रहे थे और बस जीतने ही वाले थे। वो तो रेफरी का रोल निभा रहे उस्ताद जी ने ही कुश्ती बराबरी पर छुड़वा दी। 

इसतरह लोग उस्ताद जी के रुतबे के भी क़ायल हो जाते हैं। 

समझे कि नहीं समझे?

(10 May 2025)

Friday, May 09, 2025

प्रासंगिक सवाल...

 मौजूदा अविवेकपूर्ण युद्धोन्मादी माहौल में कात्यायनी की यह टिप्पणी। 

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युद्धोन्माद के माहौल में कुछ असुविधाजनक लेकिन सबसे अधिक प्रासंगिक सवाल जिन्हें सबसे अधिक अप्रासंगिक बना दिया गया है! 

जब भी अंधराष्ट्रवाद, युद्धोन्माद और प्रतिशोधी सैन्यवाद की लहर पूरे समाज पर हावी हो जाती है और रक्तपिपासु मीडिया का गला "ख़ून के बदले ख़ून" की चीख-पुकार मचाते हुए फट जाता है तो सच्चे क्रान्तिकारी और जनपक्षधर लोग धारा के विरुद्ध खड़े होकर इस अंधी लहर का विरोध करते हैं और युद्ध के असली चरित्र का पर्दाफ़ाश करते हैं। 

इस परीक्षा में तमाम बुर्जुआ लिबरल्स और सोशल डेमोक्रेट्स हमेशा फेल होते हैं। कार्ल काउत्स्की से लेकर आजतक के सभी सोशल डेमोक्रेट्स की एक प्रमुख अभिलाक्षणिकता होती है -- अंधराष्ट्रवाद! सभी प्रतिक्रियावादी  युद्धों में  लिबरल्स और सोशल डेमोक्रेट्स उसीतरह अपने-अपने देशों के शासक वर्गों के साथ जा खड़े होते हैं जैसे कि देश के भीतर उठ खड़े होने वाले क्रान्तिकारी युद्धों में। 

सोचने की बात यह है कि शासक वर्गों की जो सत्ता अपने देश की जनता के विरुद्ध विविध रूपों में दिन-रात युद्ध छेड़े रहती है, वही दूसरे देशों से युद्ध  या सीमा पर तनाव की स्थिति में अपने देश की जनता के हितों की रक्षक भला कैसे हो जाती है! सीमाओं पर लड़े जाने वाले युद्ध ज़्यादातर दो देशों के शासक वर्गों के बीच के युद्ध होते हैं। वे उन देशों की आम जनता के बीच के टकराव नहीं होते। अलग-अलग देशों की आम मेहनतकश जनता के बीच हितों का कोई टकराव नहीं होता। लेकिन युद्धों में जो सैनिक तोपों के चारा बनते हैं वे आम जनता के बेटे-बेटियाँ होते हैं। शहरों और गाँवों पर जब बम बरसते हैं तो ज़्यादातर नुकसान आम नागरिकों के जानमाल का ही होता है। देश काग़ज़ पर बना नक़्शा नहीं होता। देश आम लोगों से बनते हैं और शासक वर्गों के सामरिक टकरावों में वही आम लोग तबाहियों का शिकार होते हैं। 

यह भी याद रखना ज़रूरी है कि पूँजीवादी दुनिया में युद्ध अपने आप में एक उद्योग है-- सबसे बड़ा और सबसे लाभकारी उद्योग! सीमाओं पर जब तनाव बने रहते हैं और यहाँ-वहाँ लगातार जब युद्ध चलते रहते हैं तो युद्धक सामग्री निर्माण उद्योग फलता-फूलता रहता है। युद्धों में उत्पादक शक्तियों और सामाजिक सम्पदा का विनाश होता रहता है और युद्धोत्तर काल में शहरों तथा यातायात-संचार के साधनों आदि के पुनर्निर्माण में पूँजीपतियों को पूँजी निवेश करने और मुनाफ़ा कूटने का अवसर मिलता रहता है। इसतरह पूँजीपतियों को अपने उद्योगों की 'प्रॉफिटेबिलिटी' सुनिश्चित करने और 'प्रॉफ़िट मैक्सिमाइज़ेशन' का भरपूर अवसर मिलता रहता है। पूँजीवादी दुनिया में अगर सीमा पर तनावों, शीतयुद्धों और छोटे-बड़े युद्धों की निरंतरता न बनी रहे तो हथियारों का व्यापार रुक जायेगा  या मंदा  हो जायेगा और दुश्चक्रीय निराशा की ढलान पर लुढ़कती हुई विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था जल्दी ही महामंदी की खाई में जा गिरेगी। 

इस बात को भी समझना ज़रूरी है कि युद्ध राजनीति की ही निरंतरता होते हैं। आर्थिक जगत में पूँजीपतियों की मुनाफ़ा कूटने की गलाकाटू आपसी प्रतिस्पर्धा राजनीति की दुनिया में प्रतिबिंबित और विस्तारित होती है और अलग-अलग देशों के पूँजीपतियों के बीच यह राजनीतिक टकराव तीखा होकर, बीच-बीच में सामरिक टकरावों का रूप लेता रहता है। 

यह भी समझना ज़रूरी है कि राजकीय हिंसा ही सबसे बड़ा आतंकवाद होती है। शासक वर्ग का आतंकवाद ही आतंकवाद के सभी रूपों को जन्म देता है। सत्ता के निरंतर और क्रूर दमन-उत्पीड़न से त्रस्त लोगों के सामने जब जनक्रान्ति को नेतृत्व देने वाली कोई वैकल्पिक क्रान्तिकारी शक्ति संगठित रूप में उपस्थित नहीं होती तो उसी जनता के बीच से थोड़े से लोग, हथियार उठाकर (जनता को तैयार किये बिना) सशस्त्र संघर्ष छेड़ देते हैं। यह मध्यवर्गीय अतिवादी क्रान्तिवाद, दुस्साहसवाद या आतंकवाद का रास्ता है। इस रास्ते पर चलने वाले लोग अगर एक समतामूलक, न्यायशील लोकसत्ता की स्थापना के प्रगतिशील यूटोपिया को लेकर चलते हैं तो हम उन्हें क्रान्तिकारी आतंकवादी कहते हैं, हालाँकि वे अपने लक्ष्य को कभी हासिल नहीं कर सकते और उल्टे जनक्रान्ति की धारा को नुकसान ही पहुँचाते हैं। दूसरे किस्म के आतंकवादी किसी न किसी किस्म के प्रतिगामी यूटोपिया के शिकार होते हैं। वे अतीतजीवी, पुनरुत्थानवादी, धार्मिक मूलतत्ववादी, राष्ट्रीय श्रेष्ठतावादी, राष्ट्रीय संकीर्णतावादी या नस्लवादी होते हैं। ऐसे प्रतिगामी आतंकवादी अगर शुरू से ही पूँजीवादी शासकों और साम्राज्यवादियों की कठपुतली नहीं भी होते, तो बाद में बन जाते हैं। इतिहास के अनुभव बताते हैं कि कई बार साम्राज्यवादी और पूँजीवादी शासक अपनी गोट लाल करने के लिए ऐसे आतंकवादी ग्रुपों को खड़ा भी करते हैं और उनकी आर्थिक-सामरिक मदद करते हैं। और जब उनका उल्लू सीधा हो जाता है, या कोई आतंकवादी संगठन अपना स्वतंत्र सामाजिक आधार विकसित करने के बाद उनके लिए भस्मासुर बन जाता है, तो फिर "आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध" के नाम पर उनको ठिकाने लगा दिया जाता है। कोई भी धार्मिक कट्टरपंथी आतंकवादी संगठन या आन्दोलन अपना सामाजिक आधार तभी विकसित कर पाता है जब जनता साम्राज्यवाद या किसी किस्म के देशी निरंकुश बुर्जुआ सत्ता के बर्बर दमन का शिकार होती है और उसके सामने कोई वैकल्पिक क्रान्तिकारी नेतृत्व नहीं होता, या कोई साम्राज्यवादी शक्ति अथवा देशी बुर्जुआ सत्ता विशिष्ट कारणों से ऐसे नेतृत्व को कुचल देने में क़ामयाब हो चुकी होती है। यूँ कहा जा सकता है कि किसी भी देश में आतंकवादियों के गुट या तो साम्राज्यवाद या किसी "दुश्मन" देश के शासक वर्ग की कठपुतली होते हैं, या जनता में व्याप्त घोर निराशा, निरुपायता, पराजय-बोध और विकल्पहीनता की अभिव्यक्ति होते हैं। कई बार वे दोनों एक साथ भी होते हैं। यानी हर हाल में आतंकवाद पूँजीवादी व्यवस्था का उत्पाद होता है और उसके विरुद्ध छेड़े गये हर युद्ध का निशाना आम जनता ही बनती है, चाहे वह इस देश की हो या उस देश की। दुनिया भर में चल रहे "आतंकवाद के विरुद्ध युद्धों" में या तो साम्राज्यवादी गुट या फिर प्रतिस्पर्धी देशों के पूँजीवादी शासकों की गोट लाल होती रहती है और सारा कहर जनता पर टूटता रहता है। इसतरह "आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध" हमेशा और सबसे पहले, जनता के विरुद्ध युद्ध के रूप में ही अमली शक़्ल अख़्तियार करता है। 

इस समय पूरे देश में पहलगाम के आतंकी जनसंहार के बाद बदला लेने के लिए देशभक्ति के नाम पर अंधराष्ट्रवादी युद्धोन्माद की लहर सी चल रही है जो पाकिस्तान स्थित आतंकवादी ठिकानों पर भारत के चयनित हवाई हमलों के बाद गगनभेदी कोलाहल में बदल चुकी है। ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जो पाकिस्तान को सबक सिखाने के नाम पर पूरा खुला युद्ध छेड़ देने की माँग कर रहे हैं। और पाकिस्तान द्वारा भी सीमा पर गोलाबारी तथा भारतीय बमबारी द्वारा लाहौर के एयर डिफेंस सिस्टम को तबाह किये जाने के बाद दोनों देशों के बीच घोषित युद्ध की सम्भावना प्रबल होती जा रही है। 

पहली बात तो यह कि ऐसी कोई भी कार्रवाई कश्मीर की ज़मीन से धार्मिक कट्टरपंथी आतंकवाद को समाप्त नहीं कर सकती। कुछ आतंकी गिरोह अगर खत्म होंगे तो उनकी जगह कुछ दूसरे गिरोह ले लेंगे। कश्मीर में आतंकवाद को जन्म भारतीय सत्ता के शासकीय आतंकवाद ने दिया है। शासकवर्गीय प्रचार से अंधे-बहरे हो चुके लोग यह जानते भी नहीं कि हाल ही में धारा 370 हटाकर और जम्मू कश्मीर का राज्य का दर्जा छीनकर कश्मीरी अवाम के साथ जो विश्वासघात भारत के बुर्जुआ शासक वर्ग ने किया उसका सिलसिला तो 1953 में ही शुरू हो चुका था जब कश्मीरी जनता को आत्मनिर्णय का अधिकार देने के वायदे को ताक पर रखकर बहुमत से चुनी गयी शेख अब्दुल्ला की सरकार को बरखास्त करके उन्हें बीस सालों के लिए जेल में ठूँस दिया गया। अफजल बेग के जनमत संग्रह मोर्चा को प्रतिबंधित कर दिया गया। तीन दशकों से भी अधिक समय से लोकतांत्रिक तरीकों से आन्दोलन चला रही कश्मीरी जनता को जब बर्बर दमन का शिकार बनाया गया तो 1980 के दशक में घोर निराशा और निरुपायता के माहौल में छिटफुट नौजवानों के आतंकवादी गुट उभरने लगे और इनमें से कइयों को मदद देने और कई नये आतंकवादी गुट खड़ा करने का काम फिर पाकिस्तानी शासक वर्ग ने भी किया। कश्मीर में भारत के बढ़ते सैन्य दमन का नतीजा यह हुआ कि जो कश्मीरी हमेशा से सेक्युलर मिज़ाज के हुआ करते थे और जिन्ना की साम्प्रदायिक राजनीति के घोर विरोधी थे, उनके बीच भी पाकिस्तान-परस्त धार्मिक कट्टरपंथी आतंकवादी गुट अपना सीमित लेकिन विचारणीय सामाजिक आधार विकसित करते चले गये। कश्मीरी जनता और उसके आत्मनिर्णय के अधिकार का आन्दोलन  भारत और पाकिस्तान के शासक बुर्जुआ वर्गों के टकराव के बीच पिसकर रह गया और कश्मीर दक्षिण एशिया की राजनीतिक बिसात पर बस एक मोहरा बनकर रह गया। 

कश्मीर आज दुनिया का सबसे अधिक 'मिलिटराइज़्ड जोन' है। क्या आप जानते हैं कि 'एसोसिएशन ऑफ़ पेरेंट्स ऑफ़ डिसअपीयर्ड पर्सन्स' मुख्यतः कश्मीर के दस हज़ार ग़ायब हो चुके नौजवानों की माँओं का संगठन है? कश्मीर में कई हज़ार उन स्त्रियों को 'हाफ़ विडो' कहा जाता है जिनके पतियों को सेना उठा ले गयी और वे नहीं जानतीं कि वे अब ज़िन्दा भी हैं या नहीं। क्या आपने कुनान पोशपुरा गाँव के बारे में सुना है जहाँ सौ कश्मीरी स्त्रियों के साथ वर्दीधारियों ने सामूहिक बलात्कार किया था? क्या आप शोपियां पहलगाम और हन्दवारा में भारतीय सेना द्वारा किये गये सामूहिक बलात्कारों के बारे में जानते हैं? क्या आपने  दर्दपुरा गाँव का नाम सुना है जिसे विधवाओं के गाँव के रूप में जाना जाता है। वहाँ आज भी चालीस साल से अधिक उम्र का एक भी मर्द नहीं है। क्या आपको पता है कि कश्मीर की सच्चाई सामने लाने वाले कितने कश्मीरी पत्रकार, कितने बुद्धिजीवी और कितने मानवाधिकार कार्यकर्ता आज जेल के सींखचों के पीछे हैं? और आपको यह भी नहीं पता होगा कि 2019 में कश्मीर में धारा 370 हटाये जाने से लेकर अबतक साढ़े तीन हज़ार कश्मीरी राजनीतिक बंदी भारत की अलग-अलग जेलों में बंद हैं! ये सच्चाइयाँ भारतीय सत्ताधारी और बुर्जुआ मीडिया कभी भी भारतीय नागरिकों के सामने नहीं आने देंगे  और कश्मीर हमेशा ही अंधराष्ट्रवादी युद्धोन्माद पैदा करने के लिए ईंधन के रूप में इस्तेमाल होता रहेगा। जाहिर सी बात है कि जबतक बंदूक के ज़ोर पर बर्बरतापूर्वक कश्मीरी जनता के आत्मनिर्णय के बुनियादी जनवादी अधिकार को दबाकर रखा जायेगा और जनान्दोलन की कोई भी गुंजाइश नहीं बची रहेगी, तबतक निराशा के दमघोंटू माहौल में जब-तब, यहाँ-वहाँ आतंकवादी गुट सरगर्म होते रहेंगे और पाकिस्तानी बुर्जुआ शासक भी उस आँच पर अपनी रोटी सेंकते रहेंगे। 

इसबार भी ऐसा ही हुआ है और अंधराष्ट्रवादी जुनून में बह रहे बहुतेरे जागरूक माने जाने वाले बुद्धिजीवी भी उन फ़ौरी बुनियादी सवालों को  नहीं उठा रहे हैं जो सबसे पहले उठाये जाने चाहिए। सबसे पहला सवाल तो यह बनता है कि पहलगाम के आतंकी जनसंहार के लिए सुरक्षा की भारी चूक की क्या अहम भूमिका नहीं थी? आखिर हत्याकाण्ड के घण्टों बाद तक सुरक्षा बल क्यों घटना स्थल पर नहीं पहुँचे? संवेदनशील इलाका होते हुए भी वहाँ पहले से सुरक्षा बलों की मौजूदगी क्यों नहीं थी? सवाल तो यह भी है कि जिसतरह पुलवामा की घटना 2019 के आम चुनावों के ऐन पहले हुई थी, उसीतरह पहलगाम की घटना बिहार विधानसभा चुनावों के ऐन पहले क्यों घटित हुई है? सवाल यह भी है कि पुलवामा की घटना और उसके पीछे की सुरक्षा चूकों की जाँच के क्या नतीजे निकले थे? जम्मू कश्मीर के पूर्व राज्यपाल सतपाल मलिक ने पुलवामा को लेकर जो सवाल उठाये थे उनपर सरकार की चुप्पी क्या बताती है? ये सभी सवाल युद्धोन्माद की लहर में बह गये हैं और ख़ुद को जनपक्षधर और तर्कशील मानने वाले लोग भी उसी लकीर पर सोच रहे हैं जिनपर यह सरकार उनसे सोचवाना चाहती है। 

सच यह है कि मँहगाई, बेरोज़गारी, मुद्रास्फीति , जनता के बुनियादी अधिकारों में लगातार कटौती, लगातार बढ़ते दमन, एक के बाद एक काले क़ानूनों के निर्माण तथा ईडी, सीबीआई, चुनाव आयोग, न्यायपालिका आदि की भूमिका और चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर उठ रहे सवालों के चलते गहराते जनाक्रोश को भटकाने और 'डिफ्यूज़' करने के लिए मोदी सरकार को सीमा पर झड़प या खुले युद्ध की जितनी ज़रूरत है, उतनी ही चतुर्दिक गहन संकट और जनाक्रोश के सैलाब से घिरी पाकिस्तान की शहबाज़ शरीफ़ सरकार को भी है। दोनों देश के सत्ताधारी चाहते हैं कि युद्धोन्मादी अंधराष्ट्रवाद की लहर में बहकर उनके देशों की जनता ज़िन्दगी के बुनियादी सवालों को कुछ समय के लिए भूल जाये। इसतरह,युद्ध या युद्ध का माहौल दोनों देशों के सत्ताधारियों की एक फ़ौरी ज़रूरत भी है। और बुर्जुआ शासक वर्गों को युद्ध से होने वाले सामान्य लाभों की हमने ऊपर चर्चा की ही है। 

साथ ही, यह नुक़्ता भी ग़ौरतलब है कि पाकिस्तान से युद्ध या युद्ध जैसी तनावपूर्ण स्थिति की मोदी की फ़ासिस्ट सरकार की एक महत्वपूर्ण उद्देश्यपूर्ति में अहम भूमिका हो सकती है। पाकिस्तान एक मुस्लिम देश है और जिस कश्मीर में आतंकी घटना को मुद्दा बनाया गया है, वह भी मुस्लिम बहुल क्षेत्र है। ऐसे में "मुस्लिम आतंकियों" को प्रश्रय देने वाले एक मुस्लिम देश के साथ युद्ध की स्थिति पूरे भारत की मुस्लिम अल्पसंख्यक आबादी को दुष्प्रचार का निशाना बनाकर अलग-थलग करने और फ़ासिस्ट आतंक का शिकार बनाने में विशेष सहायक सिद्ध होगी और यह काम लगातार हो भी रहा है। पहलगाम की घटना के बाद से ही गोदी मीडिया, भाजपा का आईटी सेल और तृणमूल स्तर पर संघ के अनुषंगी संगठन इस काम को ज़ोर शोर से और लगातार कर रहे हैं। पूरे देश में कश्मीरी छात्रों और व्यापारियों को हमले और धमकियों का निशाना बनाया गया। साथ ही मीडिया, संघी दस्ते और भाजपा का आईटी सेल ने 'हिन्दू-मुस्लिम'का खेल  और जोर-शोर से, और आक्रामकता के साथ खेलना शुरू कर दिया। युद्ध के बनते हुए माहौल में मोदी सरकार एक मुँह से "राष्ट्रीय एकता" की बात कर रही है और दूसरी ओर हिन्दुत्ववादी बहुसंख्यावादी फ़ासिज़्म के सैकड़ों मुँह तृणमूल स्तर पर मुस्लिम-विरोधी प्रचार में जी-जान से जुटे हुए हैं। 

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-- कात्यायनी


Sunday, May 04, 2025

कविता_रोशनाबाद

 

मुहब्बत का शजरा 

इलाही मियाँ, साकिन गाँव निजामपुर, ब्लॉक हसनपुरा, जिला सिवान, बिहार 

अब्बू की पिटाई और पढ़ाई के ख़ौफ़ से 

भागकर गये थे कलकत्ता 

जब मुल्क इमरजेंसी के ख़ौफ़ के साये तले

जी रहा था।

चटकल में जल्दी ही डबल ताँत चलाने लगे

और घर भेजने लायक कमाने लगे।

कलकत्ता में इश्क़ हुआ उनका 

एक मछली बेचने वाली बंगालन से।

बताते चलें कि इलाही मियाँ के अब्बू 

रज्जाक मियाँ भी नामी-गिरामी आशिक थे 

अपने ज़माने के।

सत्रह के थे जब अपने मामा की शादी में 

गये थे तरवारा बाज़ार से पचरुखिया।

फिर मामा से भी अधिक जाने लगे

उनके ससुराल और एक दिन 

मामी की छोटी बहन को ही भगा ले आये

निजामपुर।

फिर क्या था, निकाह होना ही था।

वापस लौट चलें इलाही मियाँ की दास्तान पर।

उन्नीस सौ अस्सी की दहाई में  कलकत्ता के 

चटकल जब बन्द हो रहे थे एक के बाद एक 

तो अपनी बंगालन बीवी और आठ साल की

बेटी सकीना को लेकर गाँव आ गये इलाही मियाँ 

और बटाई पर खेती करने लगे।

सकीना करने लगी दूसरों के खेतों में मजूरी 

अपनी माँ के साथ।

सत्रह की उम्र में 

निकाह हुआ सकीना का पास के गाँव के 

एक दुहाजू भट्ठा मालिक के साथ 

लेकिन वह दस दिनों बाद ही मायके भाग आयी।

पूछने पर बस इतना ही बताया कि मुआ

लगता भर साँड़ है, वैसे है पूरा बैल।

चन्द दिन ही गुज़रे थे कि 

सकीना का दिल जा लगा इमरान डफाली से 

जो ख़ानदानी पेशा छोड़ 

अब चूड़ियांँ बेचता था गाँव-गाँव घूमकर।

फिर सकीना ने घर बसाया उस छैल-छबीले

 इमरान मसूदी के साथ।

दोनों ने खोल ली चूड़ी-टिकुली की एक दुकान 

हसनपुरा बाज़ार में।

इधर गाँव वाले करते रहे तरह-तरह की बातें 

और बीवी के ज़ोर देने पर

इलाही मियाँ फिर चले गये कलकत्ता 

जो अब कोलकाता कहलाता था।

दिसम्बर 1992 में जब गिरायी गयी बाबरी मस्जिद 

उसी रात इमरान और सकीना की

झोंपड़ी जला दी गयी 

और लूट ली गयी दुकान।

इमरान के मामू जान लाये फिर दोनों को 

देवबंद अपने साथ।

सकीना की बेटी मुनीजा तब दो साल की थी।

आगे का किस्सा बस इतना रहा कि

इमरान मरा एक रोड एक्सिडेंट में 

और तीन साल बाद डेंगू ने जान ले ली सकीना की 

मुनीजा जब सोलह की थी।

इमरान के मामू मुनीजा की शादी 

करवाना चाहते थे अपने नवासे से 

लेकिन मुनीजा का दिल लगा था अनवर से

जो यतीम था और ख़ादिम था 

मदरसा मदनिया में तालीम देने वाले 

एक मौलवी साहिब का।

मौक़ा देख अनवर के साथ भाग आयी 

मुनीजा रोशनाबाद 

और पठानपुरा बस्ती में आ बसी जिसे सभी 

छोटा पाकिस्तान कहते हैं।

मुनीजा दवाइयों की एक फैक्ट्री में 

पैकिंग का काम करती है 

और अनवर मुलाज़िम है एक कूरियर कम्पनी में।

मुनीजा हँसोड़ है और हाज़िर जवाब भी।

कहती है,"मैं तो ख़ानदानी दिलफेंक हूँ आपा!

इश्क़ और मेहनत-मशक़्क़त - ये दो चीज़ें 

मेरे ख़ून में हैं!

मेरा शजरा मुहब्बत का शजरा है।"

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डफाली - उप्र और बिहार में ओबीसी में वर्गीकृत एक मुस्लिम जाति जो पारम्परिक तौर पर सूफ़ी दरगाहों के बाहर या शादी-ब्याह और पारिवारिक उत्सवों के मौक़े पर डफ़ या डफ़ली बजाया करती थी।

शजरा - वंशवृक्ष।

(4 May 2025)


Thursday, May 01, 2025

 मजदूरों का भी अपना उत्सव  होना चाहि‍ए।

वह उत्सव है पहली मई का दि‍न और इस पर उन्हें  ऐलान करना चाहि‍ए

            ’’सभी को काम, सभी को आजादी, सभी को बराबरी ।‘’  

- स्‍तालि‍न

साथि‍यो!बहुत समय पहले पि‍छली सदी में, सभी देशों के मजदूरों ने फैसला लि‍या था कि‍ वे हर साल यह दि‍न, पहली मई मनाया करेंगे। यह फैसला 1889 में लि‍या गया था जब कई देशों के समाजवादि‍यों की पेरि‍स कांग्रेस में मजदूरों ने संकल्प‍  के साथ यह ऐलान कि‍या था कि‍ ठीक इसी दि‍न, मई की पहली तारीख को, जब प्रकृति‍ सार्दियों की नींद से जाग उठती है,  और जब वनों और पहाड़ों पर हरि‍याली का समारोह दि‍खाई देने लगता है और जब खेत-खलि‍हान और घास के मैदान फूलों की शोभा से भर उठते हैं, सूरज  की गर्म धूप खि‍ल उठती  है, हवा में नवजीवन का नया आनन्द  भर जाता है और प्रकृति‍ नृत्य और आनन्द  में झूम उठती है—ठीक उसी दि‍न उन्होंने संकल्प के साथ बुलन्द  आवाज में ऐलान कि‍या था कि‍ मजदूर वर्ग मानवजाति‍ के जीवन में बसन्त की बहार लाने जा रहा है, पूँजीवाद के शि‍कंजे से मुक्ति  का आस्वादन । आजादी और  समाजवाद के आधार पर दुनि‍या का कायाकल्प करना ही मजदूर का ध्येय है। 

हर वर्ग के अपने उत्सव होते हैं। कुलीन सामन्त जमींदार वर्ग ने अपने उत्सव चलाये और इन उत्सवों पर उन्होंने ऐलान कि‍या कि‍ कि‍सानों को लूटना उनका ‘’अधि‍कार’’ है। पूँजीपति‍ वर्ग के अपने उत्सव  होते हैं और इन वे मजदूरों का शोषण  करने के अपने ‘’अधि‍कार’’ को जायज ठहराते हैं। पुरोहि‍त-पादरि‍यों के भी अपने उत्सव है और उन पर वे मौजूदा व्यवस्थाा  का गुणगान करते हैं जिसके तहत मेहनतकश लोग गरीबी में पीसते हैं और नि‍ठल्ले लोग ऐशो-आराम में रहकर गुलछर्रे उड़ाते हैं। मजदूरों के भी अपने उत्‍सव होने चाहि‍ए जि‍स दि‍न वे ऐलान करें: सभी को काम, सभी के लि‍ए आजादी, सभी लोगों के बराबरी। यह उत्सव है मई दि‍वस का उत्सव।

(यह परचा 'पहली मई ज़िन्‍दाबाद।' शीर्षक से मार्च 1912 में मई दि‍वस बनाने के लि‍ए जे.वी.स्‍तालि‍न द्वारा तैयार और प्रकाशित कि‍या गया था।)

Monday, April 28, 2025

बर्फ़बारी के मौसम का क़सीदा


बाहर बर्फ़बारी जंगल को

यंत्रणा दे रही है। 

असम्पृक्त भालू अपनी खोह में

शीतनिद्रा में पड़ा हुआ है। 

परिचित दुखों के आदी लोग

अपरिचित दुखों के दुर्गम प्रदेश से

गुज़र रहे हैं। 

मध्यकालीन मन्दिर का पुराना विशाल घण्टा

बजा रहे हैं जश्न मनाते हुए 

नये ज़माने के हत्यारे। 

हिम के बोझ से पुराने पत्ते गिर रहे हैं। 

बीज इन्तज़ार कर रहे हैं बर्फ़ की परत के नीचे

तापमान के बढ़ने का। 

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(28 Apr 2025)

Sunday, April 27, 2025

 अन्वेषा वार्षिकी पर वरिष्ठ कवि और 'धरती' के सम्पादक साथी शैलेन्द्र चौहान की टिप्पणी 'जनसंदेश टाइम्स' में। 






Tuesday, April 22, 2025

 "लोग राजनीति में सदा छल और आत्म-प्रवंचना के नादान शिकार हुए हैं और तब तक होते रहेंगे, जब तक वे तमाम नैतिक, धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक कथनों, घोषणाओं और वायदों के पीछे किसी न किसी वर्ग के हितों का पता लगाना नहीं सीखेंगे। सुधारों और बेहतरी के समर्थक जब तक यह नहीं समझ लेंगे कि हर पुरानी संस्था, वह कितनी ही बर्बरतापूर्ण और सड़ी हुई क्यों न प्रतीत होती हो, किन्हीं शासक वर्गों के बल-बूते पर ही कायम रहती है, तब तक पुरानी व्यवस्था के संरक्षक उन्हें बेवकूफ बनाते रहेंगे।"

 लेनिन ("कार्ल मार्क्स और उनकी शिक्षा") से ।

Friday, April 18, 2025

 "कवि की मुख्य ज़िम्मेदारी होती है कि वह भाषा को पर्याप्त पारदर्शी बनाए, ताकि उसके जरिये हम उन महत्वपूर्ण चीज़ों को देख सकें जो इस दुनिया में और जीवन में , और मृत्यु में भी, मौजूद हैं |"

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"मेरे लिए कविता स्नायु-तंत्र में एक स्फुलिङ्ग के समान होती है जो शब्दों के माध्यम से उद्घाटित  हो सकती है --- शब्द जो गँवारू होते हैं लेकिन साथ ही खरे होते हैं और अनुनाद की क्षमता से भरपूर होते हैं, यहाँ तक कि रूप भी, उनके रूप में वह सामर्थ्य होती है कि हम उन्हें बोल सकें और उन्हें सुन सकें | वे ठोस नहीं होते, लेकिन उनका एक रूप होता है |" 

---डेविड हुएर्ता (प्रसिद्ध मेक्सिकन कवि )


Thursday, April 17, 2025

 एक बुज़ुर्ग साहित्यकार महोदय हैं। एक पत्रिका के सम्पादक भी हैं। पिछले साल आज ही के दिन मैंने ग़ज़ा में जायनवादी फासिस्टों द्वारा जारी नरसंहार पर एक पोस्ट डाली थी तो मुझे झिड़कते हुए उन्होंने कमेंट किया था कि मुझे अपने देश के ठोस हालात पर सोचना और लिखना चाहिए न कि दूर देश की किसी अमूर्त समस्या पर। उन महात्मा की उम्र का ख़याल करते हुए तब मैंने उनका विनम्र प्रतिवाद ही करके छोड़ दिया था जिसका मुझे अब बहुत अफ़सोस होता है। 

निकृष्टतम कोटि के चोचल ढेलोक्रेट अपने मेटामार्फोसिस के बाद ऐसे ही तिलचट्टों में बदल जाते हैं। 

बाद में मैंने देखा कि अपने देश की ठोस समस्याओं पर, मॉब लिंचिंग या हिन्दुत्ववादियों की तमाम फासिस्टी बर्बरताओं और अंधेरगर्दियों पर इन महामना ने कभी चूँ या पूँ तक नहीं किया। तब मुझे लगा कि यह उन अराजनीतिक बुद्धिजीवियों से भी गये-गुज़रे विशुद्ध साहित्यिक जंतु हैं जिनकी भर्त्सना ओत्तो रेने कस्तीय्यो ने अपनी प्रसिद्ध कविता में की थी। 

अभी पिछले दिनों उन्होंने मुझे फोन करके बताया कि उनकी अतिमेधावी सुपुत्री कविता की दुनिया में कैसे नये-नये मील के पत्थर गाड़ रही हैं और अन्वेषा वार्षिकी के लिए उनसे कविताएँ न माँगकर मैंने कितनी भयंकर और ऐतिहासिक भूल की है। धिक्कार है मेरे उदारतावाद को, कि फिर भी मैंने उन्हें कुछ दोटूक नहीं कहा। अब मैं सोचती हूँ कि ये वाले साहित्यिक अंकल जी भी सोसायटी के खलिहर अंकल जी लोगों से कम गये-गुज़रे नहीं हैं। ये महोदय न केवल राजनीतिक लबड़धोंधो और साहित्यिक भकचोन्हर हैं, बल्कि ख़ानदानवादी चेंथरचौधुर चपरकनाती भी हैं। 

ऐसी ही विभूतियों को पाकर हिन्दी साहित्य धन्य-धन्य होता रहा है।

(17 Apr 2025)

Wednesday, April 16, 2025

 वर्ग संघर्ष के बिना पर्यावरणवाद वैसे ही है जैसे बागवानी करना ।

-- चिको मेण्डेस

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इसमें कुछ और चीज़ें जोड़ना ज़रूरी है... जैसे... 

वर्ग संघर्ष के बिना नारीवाद वैसे ही है जैसे किटी पार्टी !

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वर्ग संघर्ष की विचारधारा और राजनीति के बिना कला-साहित्य की सुन्दरतम कृति भी वैसी ही है जैसे 'विषरस भरा कनकघट' !

Sunday, April 13, 2025

भागो नहीं, दुनिया को बदलो !!

 

महाविद्रोही जनमनीषी राहुल सांकृत्यायन के जन्मदिवस (9 अप्रैल) और स्मृति दिवस (14 अप्रैल) के अवसर पर

तर्क व ज्ञान की मशाल लेकर आगे बढ़ो और रूढ़ियों को तोड़ डालो ! 

भागो नहीं, दुनिया को बदलो !!

राहुल सांकृत्यायन हमारे देश की एक महान शख्सियत थे। इनका नाम आज हर बच्चे की जुबान पर होना चाहिए था और हर युवा तक इनके विचारों की पहुँच होनी चाहिए थी लेकिन अफ़सोस की बात है कि आज बहुतेरे लोग उन्हें या उनकी वैचारिक विरासत को जानते तक नहीं। राहुल सांकृत्यायन ने पूरे समाज में धार्मिक रूढ़ियों और पाखण्डों के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी और आम मेहनतकश जनता को शोषण-उत्पीड़न के विरुद्ध जागरूक किया। जनता को लूटने वाली और समाज को जाति और सम्प्रदाय के आधार पर बाँटने वाली शक्तियाँ उनके विचारों से आज भी डरती हैं और जनपक्षधर ताकतें अपने संघर्षों के लिए उनसे आज भी प्रेरणा लेती हैं।

राहुल सांकृत्यायन का जन्म में 9 अप्रैल 1893 को आजमगढ़ में हुआ था। इनका बचपन का नाम केदारनाथ पाण्डे था। ज्ञान की ललक और घुमक्कड़ी के चस्के ने इनके सोचने-समझने के ढंग-ढर्रे को ही नहीं बदला बल्कि इसी प्रक्रिया में इन्होंने अपना नाम भी बदल डाला। राहुल कई भाषाओं और विषयों के अद्भुत जानकार थे, चाहते तो आराम से रहते हुए बड़ी-बड़ी पोथियाँ लिखकर शोहरत और दौलत दोनों कमा सकते थे परन्तु वे एक सच्चे कर्मयोद्धा थे। उन्होंने आम जन, ग़रीब किसान, मज़दूर की दुर्दशा और उनकी मुक्ति के विचारों को अपनाया। उनके बीच रहते हुए उन्हें जागृत करने का काम किया और संघर्षों में उनके साथ रहे। वे वास्तव में जनता के अपने आदमी थे। उन्हें ग़रीब किसान और मज़दूर प्यार से राहुल बाबा बुलाते थे। 

राहुल ने अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल समाज को बदलने के लिए जनता को जगाने में किया। इसके लिए उन्होंने सीधी-सरल भाषा में न केवल अनेक छोटी-छोटी पुस्तकें और सैकड़ों लेख लिखे, बल्कि लोगों के बीच घूम-घूमकर गुलामी और अन्याय के विरुद्ध संघर्ष के लिए उन्हें संगठित भी किया। अंग्रेज़ हुकूमत तथा ज़मींदारों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए उन पर लाठियाँ पड़ीं, कई बार उन्हें जेल में डाला गया लेकिन वहाँ भी वे लगातार लिखते रहे। उनकी कई किताबें तो अलग-अलग जेलों में ही लिखी गयीं। राहुल दूर तक देख सकते थे इसलिए उन्होंने यह समझ लिया था कि भारतीय समाज की तर्कहीनता, अन्धविश्वास, सदियों पुराने गतिरोध, कूपमण्डूकता आदि पर करारी चोट करके ही इसे आगे बढ़ाया जा सकता है। वे कहते थे, “समाज की बेड़ियाँ जेलखाने की बेड़ियों से भी सख्त हैं।" "हमें अपनी मानसिक दासता की बेड़ी की एक-एक कड़ी को बेदर्दी के साथ तोड़कर फेंकने के लिए तैयार रहना चाहिए। बाहरी क्रान्ति से कहीं ज्यादा ज़रूरत मानसिक क्रान्ति की है। हमें आगे-पीछे-दाहिने-बायें दोनों हाथों से नंगी तलवारें नचाते हुए अपनी सभी रूढ़ियों को काटकर आगे बढ़ना होगा।" औपनिवेशिक शासन के दौरान किसानों की लड़ाई लड़ते हुए भी राहुल ने इस बात को नहीं भुलाया कि केवल अंग्रेज़ों से आज़ादी और ज़मीन मिल जाने से ही उनकी समस्याओं का अन्त नहीं हो जायेगा। उन्होंने साफ़ कहा था कि मेहनतकशों की असली आज़ादी जनता के अपने शासन में ही आयेगी। 

राहुल सांकृत्यायन ने भारतीय समाज की हर बुराई, हर तरह की दिमाग़ी गुलामी, हर तरह के अन्धविश्वास, तमाम गलत परम्पराओं पर चोट की और उनके विरुद्ध जनता को शिक्षित किया। राहुल कहते थे “ऐसे समाज के लिए हमारे दिल में क्या इज़्ज़त हो सकती है, क्या सहानुभूति हो सकती है? बाहर से धर्म का ढोंग, सदाचार का अभिनय, ज्ञान-विज्ञान का तमाशा किया जाता है और भीतर से यह जघन्य, कुत्सित कर्म ! धिक्कार है ऐसे समाज को !! सर्वनाश हो ऐसे समाज का !!!" “जिस समाज ने प्रतिभाओं को जीते-जी दफ़नाना कर्तव्य समझा है और गदहों के सामने अंगूर बिखेरने में जिसे आनन्द आता है, क्या ऐसे समाज के अस्तित्व को हमें पलभर भी बर्दाश्त करना चाहिए?" वे लोगों का सीधा आह्वान करते थे - "भागो नहीं, दुनिया को बदलो !" 

धार्मिक कट्टरता, जातिभेद की संस्कृति और हर तरह की दिमाग़ी गुलामी के ख़िलाफ़ राहुल सांकृत्यायन के आह्वान पर अमल हमारे समाज की आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है। आज समाज में जारी लूट-खसोट और दमन-शोषण पर पर्दा डालने और इनके विरुद्ध जनता की एकजुटता को तोड़ने के लिए तमाम तरह के प्रयास जारी हैं। आम लोगों को धर्म और जाति के नाम पर एक-दूसरे के ख़ून का प्यासा बनाया जा रहा है। विज्ञान की जगह पोंगापन्थ को बढ़ावा दिया जा रहा है और आगे बढ़ने की बजाय पीछे जाने के रास्ते खोले जा रहे हैं तो राहुल के विचारों को जानना और जन-जन तक पहुँचाना और भी ज़रूरी हो गया है। 

राहुल सांकृत्यायन का जीवन देश के हर युवा के लिए प्रेरणादायक है। वे मेहनतकश लोगों से प्यार करते थे और उनके लिए अपना जीवन कुर्बान कर देना चाहते थे। जीवन छोटा था, काम बहुत अधिक था। सदियों से सोये भारतीय समाज को जगाना आसान नहीं था। बाहरी दुश्मन से लड़ना आसान था, लेकिन अपने समाज में बैठे दुश्मनों और खुद अपने भीतर पैठे हुए संस्कारों, मूल्यों, रिवाजों के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए लोगों को तैयार करना उतना ही कठिन था। राहुल को एक बेचैनी सदा घेरे रहती। वे एक साथ दो-दो किताबें लिखने में जुट जाते। ट्रेन में चलते हुए, सभाओं के बीच मिलने वाले घण्टे-आध घण्टे के अन्तराल में, या सोने के समय में भी कटौती करके वह लिखते रहे। लगातार काम करते रहने से उनका लम्बा, बलिष्ठ, सुन्दर शरीर जर्जर हो गया। पर वह रुके नहीं। यह सिलसिला तब तक चला जब तक मस्तिष्क पर पड़ने वाले भीषण दबाव से उन्हें स्मृतिभंग नहीं हो गया। याद ने साथ छोड़ दिया। आर्थिक परेशानी ने घेर लिया। पूरा इलाज भी नहीं हो सका और 14 अप्रैल 1963 को 70 वर्ष की उम्र में मज़दूरों-किसानों के प्यारे राहुल बाबा ने आँखें मूंद लीं। लेकिन उन्होंने जो मुहिम चलायी उसे आगे बढ़ाये बिना आज हिन्दुस्तान में इंक़लाब लाना मुमकिन नहीं है। आज हमारे समाज को जिस नये क्रान्तिकारी पुनर्जागरण और प्रबोधन की ज़रूरत है, उसकी तैयारी के लिए महाविद्रोही राहुल सांकृत्यायन हमें सदैव प्रेरित करते रहेंगे। 

आज फ़ासिस्ट शक्तियाँ देश की सत्ता में बैठी हैं और भारतीय समाज उनके हमलों से त्रस्त है। लेकिन उनसे लड़ने का मन्त्र भी राहुल सांकृत्यायन ने ही दिया था : “यदि जनबल पर विश्वास है तो हमें निराश होने की आवश्यकता नहीं है। जनता की दुर्दम्य शक्ति ने, फ़ासिज्म की काली घटाओं में, आशा के विद्युत का संचार किया है। वही अमोघ शक्ति हमारे भविष्य की भी गारण्टी है।"  

राहुल सांकृत्यायन की विरासत को आगे बढ़ाने के लिए हम देश के उन सभी नौजवान साथियों का आह्वान करते हैं जो पोंगापन्थ, अन्धविश्वासों, दकियानूसी, कूपमण्डूकता और धार्मिक व जातीय बँटवारे की राजनीति के ख़िलाफ़ हैं, जो हर तरह के अन्याय और शोषण के ख़िलाफ़ विद्रोह के पक्षधर हैं। आओ! अँधेरे की ताक़तों के विरुद्ध तर्क और ज्ञान की मशाल लेकर आजीवन संघर्षरत रहे राहुल सांकृत्यायन के मिशन को आगे बढ़ाने का संकल्प लो !

इन्क़लाब ज़िन्दाबाद !

(नौजवान भारत सभा)


Friday, April 11, 2025

'श्री दुष्ट महाख्यानम्'


 'श्री दुष्ट महाख्यानम्' (अविकल संस्करण)। आख्यान के दीर्घाकार से विचलित न हों और प्रति दिन ध्यानस्थ होकर इसका सस्वर वाचन करें तथा इसे कण्ठाग्र कर लें। दुष्ट कोप से सुरक्षित रहेंगे। आलस्य करेंगे तो जीवन में हानि उठायेंगे और तदनन्तर पश्चाताप करेंगे।) 

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श्री दुष्ट महाख्यानम्

(टीका सहित) 

विषय-प्रवेशिका

दुष्टों अथवा दुर्जनों की महिमा अपरम्पार होती है !

दुष्ट कई प्रकार के होते हैं ! जैसे राजनीतिक-सामाजिक दुष्टता जहाँ अपने शिखर पर पहुँचकर जघन्यतम और अमानवीयतम हो जाती है,  वह पराकोटि या परिणति-बिंदु फासिज्म है I

वर्गीय दुष्टता एक ऐतिहासिक-सामाजिक परिघटना है ! जैसे एक पूँजीपति व्यक्तिगत तौर पर शरीफ़ हो सकता है, पर उसका वर्ग ही दुष्ट वर्ग है क्योंकि वह शोषक है, मज़दूरों से अधिशेष निचोड़ना ही उसके सामाजिक अस्तित्व का आधार है ! इस वर्गीय दुष्टता से हम व्यक्तिगत प्रतिशोध नहीं ले सकते ! इस वर्गीय दुष्टता को वर्ग-संघर्ष की ऐतिहासिक प्रक्रिया से ही समाप्त किया जा सकता है ! एक वर्ग के रूप में जबतक पूँजीपति मौजूद रहेगा, तबतक उसकी वर्गीय दुष्टता मौजूद रहेगी !

जहाँतक व्यक्तिगत दुष्टता का सवाल है, दुष्टों या दुर्जनों की कई कोटियाँ होती हैं ! ऐसे दुर्जन आपको समाज के आम लोगों में भी बहुतायत में मिल जायेंगे --आम मध्य वर्ग और मज़दूरों में भी मिल जायेंगे ! आम लोगों में यह दुर्जनता कई बार , वर्ग समाज में जीने वाले नागरिक के सामाजिक (और इसलिए मानवीय) व्यक्तित्व के विघटन से पैदा होता है ! कई बार जनवादी और तार्किक चेतना की कमी के कारण, दिमाग़ के पोर-पोर में बैठे धार्मिक, जातिगत और जेंडरगत कुसंस्कार और पूर्वाग्रह भी हमें मानवद्रोही और दुष्ट बना देते हैं !

ऐसा भी होता है कि बुर्जुआ समाज में दिन-रात, सतत, अंधी प्रतिस्पर्द्धा में जीते हुए, कुत्तादौड़ में दौड़ते हुए, भेड़ियाधसान करते हुए हम अपनी मनुष्यता खोते चले जाते हैं और तुच्छ और कूपमंडूक होने के साथ ही ईर्ष्या और दुष्टता में जीने को भी कुछ यूँ एन्जॉय करने लगते हैं जैसे खाज का रोगी खुजली कर-करके आनंदित होता है ! ज़िंदगी की कुत्ता-दौड़ में जो पीछे छूट गया वह आगे वाले को लंगी मारने की पूरी कोशिश करता है ! और आगे बढ़ने के लिए हर व्यक्ति किसी को भी रौंद-कुचल देना चाहता है ! जो विजयी है, वह विशिष्ट है और जो पीछे छूट गया वह दीन-हीन, तिरस्करणीय है !

इसतरह बुर्जुआ समाज दुष्टता का कोरोना से भी घातक वायरस फैलाता रहता है ! न्यायशील और तार्किक विचारों, न्यायशील सामूहिक कर्म तथा कला-साहित्य और प्रकृति के गहन सानिध्य से जिस हद तक हमारी प्रतिरोधक क्षमता विकसित हुई रहती है, उसी हद तक हम दुष्टता के संक्रामक वायरस से बच पाते हैं ! आज हम जिस रुग्ण, बर्बर, ज़रा-जीर्ण पूँजीवादी समाज में जी रहे हैं, उसमें दुष्टता के वायरसों का पूरा परिवार नाना संक्रामक आत्मिक-सांस्कृतिक व्याधियों से समाज को त्रस्त किये हुए है ! 

जब कोई व्यक्ति या सामाजिक समूह बार-बार की पराजयों या सुदीर्घ दासता के चलते गहरे पराजय-बोध से भर जाता है तो उसके भीतर भी एक किस्म का यथास्थितिवाद और चालाकी एवं कायरता भरी दुनियादारी पैदा हो जाती है ! तब उसके पास उन्नत मानवीय आदर्श और सपने देखने की क्षमता नहीं रह जाती, उसके व्यक्तित्व में उदात्तता और सरलता का लेश मात्र भी नहीं रह जाता ! ऐसे व्यक्तित्व तुच्छता, जलन-कुढ़न और ईर्ष्या से लबालब भरे रहते हैं, अपने से अधिक सक्षम और ताक़तवर के आगे एकदम साष्टांग हो जाते हैं और अपने से नीचे वाले को, अपने से कमजोर को एकदम रगड़-कुचल देना चाहते हैं और फिर उनकी छाती पर बैठकर हुकूमत करना चाहते हैं !  उत्पादन की प्रक्रिया से कटे हुए सर्वहारा के एक हिस्से का भी विमानवीकरण हो जाता है ! उनमें से कई आत्मघाती ढंग से खुद को ही नष्ट करते रहते हैं, पर कई ऐसे दुष्ट भी बन जाते हैं जो फासिस्टों के भाड़े के लठैत बन जाते हैं, मानवीय हर चीज़ से बेगाने हो जाते हैं, उससे नफ़रत करने लगते हैं और जघन्य-वीभत्स दुष्कर्मों के लिए भी तैयार रहते हैं ! दुष्टता के सभी रूप बुर्जुआ समाज की रुग्णता के, या यूँ कहें कि वर्ग-समाज की रुग्णता के मूर्त रूप होते हैं ! 

बहरहाल, मैंने तो अपने जीवन में सबसे अधिक, भाँति-भाँति के दुर्जन और दुष्ट खाते-पीते मध्यवर्गीय समाज में ही पाए हैं ! व्यापारियों, प्रॉपर्टी डीलरों और वकीलों-डाक्टरों-प्रोफेसरों जैसे पेशेवर बुद्धिजीवियों के अतिरिक्त कवियों-लेखकों-कलाकारों की दुनिया में भी तरह-तरह के दुष्ट जीव देखे हैं -- ईर्ष्यालु, हर बनते काम को बिगाड़ने के लिए तत्पर रहने वाले, चुगलखोर और कुटने, निहायत स्वार्थी, मतलबी, पद-पुरस्कार लोलुप, रसिया और रंगबाज़ ... ... ! शायद यह भारतीय समाज में पुनर्जागरण और प्रबोधन के प्रोजेक्ट के खंडित-विकलांग चरित्र  तथा दो सौ वर्षों की गुलामी से पैदा हुई जनवादी व तार्किक चेतना की कमी ही है जिसने हमारे मध्यवर्गीय बौद्धिक समाज के भी एक बड़े हिस्से को इसक़दर दुष्ट बनाया है ! हमारे समाज के ताने-बाने में जनवाद की कमी के कारण यहाँ का मानसिक श्रम करने वाला तबका शारीरिक श्रम करने वालों से सिर्फ़ अपने को बहुत श्रेष्ठ ही नहीं समझता, बल्कि उनसे घृणा करता है ! पुरुष-स्वामित्ववाद और सवर्ण-श्रेष्ठतावाद के संस्कार इस अमानवीय सामाजिक दुष्टता को और मज़बूत बनाते हैं ! इस वस्तुगत सामाजिक स्थिति का पूरा लाभ फासिज्म की राजनीति को मिलता है ! यानी आज जो ब्राह्मणवाद/सवर्ण-श्रेष्ठतावाद की और मर्दवाद की संस्कृति और राजनीति है वह फासिज्म का टूल बन गया है ! यूँ कहें कि ब्राह्मणवाद और मर्दवाद आज पूँजीवाद की सेवा में सन्नद्ध हैं !

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प्रथम सर्ग

तो चलिए, दुष्टों के बारे में फिर कुछ और बातें की जाएँ ! दरअसल, जो भी दुष्टों के सताए हुए लोग हैं, उन्हें दुष्टों की निंदा से सुख प्राप्त होता है !

संस्कृत का एक कवि (नाम मुझे पता नहीं) कहता है :

"दुर्जनं प्रथमं वन्दे सज्जनं तदनंतरम

मुखप्रक्षालानात्पूर्व गुद्प्रक्षालनं यथा I"

अर्थात्, पहले मैं दुर्जन की वन्दना करता हूँ, उसके बाद सज्जन की, ठीक उसीप्रकार, जैसे मुख-प्रक्षालन के पहले गुदा-प्रक्षालन किया जाता है !(यहाँ तत्सम शब्दों के इस्तेमाल से बात थोड़ी सभ्यतापूर्ण लग रही है ! इसी बात को अगर देशज और तद्भव शब्दों में कह दिया जाए तो बात फूहड़ और अश्लील लगने लगेगी ! तत्सम शब्दों या अंग्रेज़ी में कहने पर गाली गाली नहीं लगती और गंदी बात भी शालीनतापूर्ण लगने लगती है !!)

लेकिन दुष्ट जनों के सूक्ष्म पर्यवेक्षण के मामले में तुलसीदास का कोई जोड़ नहीं है ! साथ ही दुष्टों के गुण बताते हुए जिस ह्यूमर और विट का प्रदर्शन तुलसीदास ने किया है, वह भी बेजोड़ है ! 'रामचरित मानस' के 'बालकाण्ड' की शुरुआत में ही तुलसी दुष्टों की वन्दना करते हैं ताकि वे उनका सत्कार्य पूरा होने दें ! हालांकि अंत में वह यह संदेह भी प्रकट करते हैं कि इस वन्दना से दुष्टों पर कोई प्रभाव पड़ेगा ! वह कहते हैं कि अत्यंत प्यार से पालने पर भी कौव्वा निरामिषभोजी नहीं हो सकता ! तुलसी की इस पूरी खल-वन्दना का आनंद लीजिये :

"बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥

पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें॥

हरि हर जस राकेस राहु से। पर अकाज भट सहसबाहु से॥

जे पर दोष लखहिं सहसाखी। पर हित घृत जिन्ह के मन माखी॥

तेज कृसानु रोष महिषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा॥

उदय केत सम हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके॥

पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं॥

बंदउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा॥

पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना। पर अघ सुनइ सहस दस काना॥

बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही। संतत सुरानीक हित जेही॥

बचन बज्र जेहि सदा पिआरा। सहस नयन पर दोष निहारा॥

दोहा-उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति।

जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति॥

मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा। तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा॥

बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा॥"

अब सुविधा के लिए इस 'खल-वन्दना' का भावार्थ भी पढ़ लीजिये :

अब मैं सच्चे भाव से दुष्टों की वन्दना करता हूँ जो बिना किसी प्रयोजन के दायें-बायें होते रहते हैं। दूसरों की हानि करना ही इनके लिये लाभ होता है तथा दूसरों के उजड़ने में इन्हें हर्ष होता है और दूसरों के बसने में विषाद। ये हरि (विष्णु) और हर (शिव) के यश के लिये राहु के समान हैं (अर्थात् जहाँ कही भी भगवान विष्णु या शिव के यश का वर्ण होता है वहाँ बाधा पहुँचाने वे पहुँच जाते हैं)। दूसरों की बुराई करने में ये सहस्त्रबाहु के समान हैं। दूसरों के दोषों को ये हजार आँखों से देखते हैं। दूसरों के हितरूपी घी को खराब करने के लिये इनका मन मक्खी के समान है (जैसे मक्खी घी में पड़कर घी को बर्बाद कर देती है और स्वयं भी मर जाती है वैसे ही ये दूसरों के हित को बर्बाद कर देते हैं भले ही इसके लिये उन्हें स्वयं ही क्यों न बर्बाद होना पड़े)। ये तेज (दूसरों को जलाने वाले ताप) में अग्नि और क्रोध में यमराज के समान हैं और पाप और अवगुणरूपी धन में कुबेर के समान धनी हैं। इनकी बढ़ती सभी के हित का नाश करने के समान केतु (पुच्छल तारा) के समान है। ये कुम्भकर्ण के समान सोये रहें, इसी में सभी की भलाई है। जिस प्रकार से ओला खेती का नाश करके खुद भी गल जाता है उसी प्रकार से ये दूसरों का काम बिगाड़ने के लिये खुद का नाश कर देते हैं। ये दूसरों के दोषों का बड़े रोष के साथ हजार मुखों से वर्णन करते हैं इसलिये मैं दुष्टों को (हजार मुख वाले) शेष जी के समान समझकर उनकी वन्दना करता हूँ। ये दस हजार कानों से दूसरों की निन्दा सुनते हैं इसलिये मैं इन्हें राजा पृथु (जिन्होंने भगवान का यश सुनने के लिये दस हजार कान पाने का वरदान माँगा था) समझकर उन्हें प्रणाम करता हूँ। सुरा जिन्हें नीक (प्रिय) है ऐसे दुष्टों को मैं इन्द्र (जिन्हे सुरानीक अर्थात देवताओं की सेना प्रिय है) के समान समझकर उनका विनय करता हूँ। इन्हें वज्र के समान कठोर वचन सदैव प्यारा है और ये हजार आँखों से दूसरों के दोषों को देखते हैं। दुष्टों की यह रीत है कि वे उदासीन रहते हैं ( अर्थात् दूसरों को दुःख पहुँचाने के लिये यह नहीं देखते कि वह मित्र है अथवा शत्रु)। मैं दोनों हाथ जोड़कर प्रेमपूर्वक दुष्टों की वन्दना करता हूँ।

मैंने अपनी ओर से वन्दना तो की है किन्तु अपनी ओर से वे चूकेंगे नहीं। कौओं को बड़े प्रेम के साथ पालिये , किन्तु क्या वे मांस के त्यागी हो सकते हैं?

(तुलसी की चौपाइयों का भावार्थ मैंने जी.के. अवधिया के ब्लॉग "धान के देश में!" से यथावत ले लिया है )

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द्वितीय सर्ग

क्या ख़याल है ! दुष्टों के बारे में थोड़ा और गलचौर किया जाए ? अगर कभी दुष्टों के पाले पड़े होंगे, और आप खुद दुष्ट नहीं होंगे, तो मज़ा ज़रूर आयेगा ! 

एक गाँधीवादी टाइप अंकलजी हैं ! मुझे तो, जो गाँधी टोपी वह पहने रहते हैं, साक्षात वैसे ही लगते भी हैं ! जो भी हो, आदमी भले हैं ! मुझे बहुत दुर्विनीत और क्रोधी स्वभाव का मानते हैं ! सच्चे शुभचिंतक हैं ! डरते हैं कि इतना क्रोध करने और तनाव में रहने से मुझे उच्च रक्तचाप  हो सकता है, हृदयगति भी रुक सकती है, बुढ़ापा जल्दी आ सकता है और बहुत सारे लोग मेरे शत्रु हो सकते हैं जो मुझे हानि पहुँचा सकते हैं ! वे मुझे समझाते हैं और मैं उनको समझाती हूँ और अंततः हम एक-दूसरे को समझाने में कभी सफल नहीं हो पाते !

अंकलजी लगातार मुझे दुष्टों की दुष्टताओं को भूल जाने और उन्हें क्षमा कर देने और उनपर ध्यान ही न देने की कोशिश करने के लिए कहते हैं ! और मेरी आदत यह है कि कोई दुष्ट मिल जाए और उसका टारगेट मैं न भी होऊँ, तो भी मैं रुककर उसका बारीकी से अध्ययन करने लगती हूँ कि अब यह कौन सी दुष्टता करेगा, किसको निशाना बना रहा है, अभी यह क्या सोच रहा है, आदि-आदि ...! 

उच्च कोटि के दुष्टों की एक खासियत होती है ! वे काहिल और सुस्त या मनहूस  नहीं होते ! लगातार खुराफात के बारे में सोचते रहते  हैं या करते रहते हैं !  दुष्ट लोग सक्रिय लोग होते हैं ! उन्होंने अपने को इस दुनिया में जीने लायक बना लिया है ! जो सुस्त और काहिल भलेमानस होते हैं वे सिर्फ़ सरकारी दफ्तरों में नौकरी करने के लिए ही इस धरती पर आये हैं ! न वे बिंदास-बेलौस जी पाते हैं, न ज़िंदगी को बदलने की लड़ाई में कुछ तूफानी अंदाज़ में शिरक़त ही कर पाते हैं !

तो पिछली बार जब अंकलजी मिले, तो बोले,"तुम संस्कृत के शास्त्रीय आचार्यों के अनुभव और अभिव्यक्तियों की सूक्ष्मताओं का तो बहुत ख़याल करती हो ! देखो, एक आचार्य क्या कहते हैं:

'क्षमा शस्त्रं करे यस्य दुर्जन: किं करिष्यति |

अतॄणे पतितो वन्हि: स्वयमेवोपशाम्यति ||'

अर्थात्, क्षमा रूपी  शस्त्र जिसके हाथ में हो , उसे दुर्जन क्या कर सकता है ? अग्नि , जब किसी जगह पर गिरता है जहाँ घास न हो , अपने आप बुझ जाता है I

मैंने अंकलजी से कहा," इन वाले आचार्य के जीवनानुभव शायद कुछ कम हैं ! अब मैं आपको कुछ दूसरे आचार्यों की वाणी सुनाती हूँ:

'सर्प दुर्जनयोर्मध्ये वरं सर्पो न दुर्जनः I

सर्पो दशति कालेन दुर्जनास्तु पदे -पदे II'

अर्थात्, सर्प और दुर्जन के बीच सर्प को चुनो, न कि दुर्जन को क्योंकि सर्प तो समय आने पर डंसता है, पर दुर्जन तो कदम-कदम पर डंसता है I

'खलानां कंटकानां च द्विविधैव प्रतिक्रिया I

उपानन्मुखभंगो वा दूरतो वा विसर्जनम् II'

अर्थात्, दुष्ट मनुष्य और कांटे से छुटकारा पाने के दो ही उपाय हैं -- या तो जूते से मुँह तोड़ दो, या फिर दूर से ही भगा दो I

'दुर्जस्नन सज्जनं कर्तुमुपायो नही भूतले I

अपानं शतधा धौतं न श्रेष्ठमिन्द्रियं भवेत्II'

अर्थात्, इस पृथ्वी पर दुर्जन को सज्जन बनाने का कोई उपाय नहीं है I अपान इन्द्रिय को सौ बार धोकर भी उसे श्रेष्ठ इन्द्रिय नहीं बनाया जा सकता ।

'दुर्जनः स्वस्वभावेन परकार्य विनश्यति I

नोदरतृप्तिमायाति मूषकः वस्त्रभक्षकः II'

अर्थात्, दुर्जन अपने स्वभाव से ही दूसरे के कार्य को हानि पहुंचाता है I वस्त्रभक्षक चूहा उदर-तृप्ति के लिए वस्त्र नहीं काटता I

'यथा परोपकारेषु नित्यं जागर्ति सज्जनः I

तथा परापकारेषु जागर्ति सततं खलः II'

अर्थात्, जैसे सज्जन परोपकार करना के लिए नित्य जाग्रत रहता है, वैसे ही दुष्ट व्यक्ति दूसरों का अपकार करने के लिए सतत जाग्रत रहता है I

'तक्षकस्य विषं दन्ते मक्षिकायाश्व मस्तके I

वृश्चिकस्य विषं पृच्छे सर्वांगे दुर्जनस्य तत् II'

सांप का विष उसके दांत में, मक्खी का उसके मस्तक में और बिच्छू का पूँछ में होता है, लेकिन दुर्जन का तो पूरा शरीर ही विष से भरा होता है I

'दुर्जनो नार्जवं याति सेव्यमानोSपि नित्यशःI

स्वेदनाभ्यंजनोपायै:श्वापुच्छमिव नामितम II'

अर्थात्, जैसे कुत्ते की पूंछ स्वेदन-अंजन आदि उपायों से सीधी नहीं होती, उसीप्रकार चाहे जितनी भी सेवा करें, दुर्जन को सीधा नहीं बनाया जा सकता !"

मैं अंकलजी को दुष्टों के बारे में अभी पाँच-छः श्लोक और सुनाने वाली थी, पर अंकलजी अबतक मुझे रास्ते पर लाने के मिशन से पर्याप्त निराश हो चुके थे I उन्होंने कहा कि मैं दुष्टों से शत्रुता मोल लेने के खतरों को समझ नहीं रही हूँ, इसीलिये संघियों और भक्तों से अक्सर बैर मोल लेती रहती हूँ ! मैंने अंकलजी से कहा कि गाँधी से मैं चाहे जितनी असहमति रखूँ, पर उनकी एक बात ठीक थी कि वह पतली गली से बच निकलने की टैक्टिक्स नहीं अपनाते थे !

 अंकलजी के असंतोष में अब कुछ नाराज़गी भी घुलने लगी थी ! कुछ कारण बताकर वह तुरत चलते बने !

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तृतीय सर्ग

तो  'दुष्ट-महाख्यान' को आगे बढ़ाते हैं ! 

कल मैंने बताया था कि अंकलजी को दुष्टों के बारे में मैं 5-6 श्लोक और सुनाने वाली थी, लेकिन वह खिसक लिए ! फिर कुछ मित्रों ने कहा कि वे श्लोक हमलोगों को सुना ही डालिए, ताकि समय पर काम आवे ! मैं भी सोच रही हूँ कि परोपकार के इस पावन कृत्य से पीछे क्यों हटूं ! तो लीजिये, दुष्टों के बारे में संस्कृत के प्राचीन आचार्यों के मुँह से कुछ और सुनिए:

'बोधितोSपि बहु सूक्ति विस्तरै:किं खलो जगति सज्जनो भवेत् I

स्नापितोSपि बहुशो नदीजलै: गर्दभःकिमु हयो भवेत् क्वचित् II'

अर्थात्, सद्वचनों का उपदेश देने से क्या इस विश्व के दुष्ट जन सज्जन हो जायेंगे ? नदी के जल से बार-बार स्नान करने के बाद भी क्या गधा घोड़ा बन पायेगा ?

'अहमेव गुरु:सुदारुणानामिति हलाहल मा स्म तात दृप्य: I

ननु सन्ति भवादृशानि भूयो भुवनेस्मिन्  वचनानि दुर्जनानाम् II'

अर्थात्, हे हलाहल ! मैं भयंकरों में सर्वाधिक भयंकर हूँ, ऐसा कदापि न सोचना ! इस जगत में तुमसे अधिक भयंकर दुष्ट के वचन हैं !

'अमरैरमृतं न पीतमब्धे: न च हलाहलमुल्बनं हरेण I

विधिना निहितं खलस्य वाचि द्वयमेतत् बहिरेकमन्तरान्यत् II'

अर्थात्, सागर में से जो अमृत देवताओं ने नहीं पिया और जो हलाहल शंकर ने नहीं पिया, उन दोनों को ब्रह्मा ने दुष्टों की वाणी में रख दिया -- अमृत को बाहर, और हलाहल को भीतर !

'वर्जनीयो मतिअमता  दुर्जनः सख्यवैरयो: I

श्र्वा भवत्यपकाराय लिहन्नपि दशन्नपि II'

अर्थात्,  विवेकवान मनुष्य को दुष्ट से न मित्रता करनी चाहिए, न शत्रुता ! कुत्ता चाटता है, या काटता है, दोनों ही स्थितियों में बुरा ही होता है !

'बहुनिष्कपटद्रोही  बहुधान्योपधातकः I

रंध्रान्वेषी च सर्वत्र दूषको मूषको यथा II'

अर्थात्, दुष्ट चूहों की तरह होते हैं ! वे निष्कपट लोगों से द्रोह करते हैं जैसे चूहा कीमती चीज़ों को कुतर देता है, चूहों की ही तरह वे  छिद्र ढूँढ़ते रहते हैं और गन्दगी फैलाते हैं !

'त्यकत्वापि निज प्राणान् परहित विघ्नं खलः करोत्येव I

कवले पतिता सद्यो वमयति खलु मक्षिकाSन्नभोक्तारम् II'

अर्थात्, दुष्ट अपने प्राण त्याग कर भी दूसरे के हित में विघ्न डालने को तैयार रहता है, जैसे भोजन में पड़ी हुई मक्खी भोजन करने वाले को उल्टी करने के लिए विवश कर देती है I

'रविरपि न दहति तादृग् यावत् संदहति वालिका निकर:I

अन्यस्माल्लब्धपदः नीचः प्रायेण दुस्सहो भवती II'

अर्थात्, बालू  जितना जलाता है, उतना सूरज भी नहीं जलाता I दूसरों के प्रभाव से पद पाने वाला नीच मनुष्य प्रायः दुस्सह्य होता है I

'तुष्यन्ति भोजनैर्विप्रा:मयूरा घनगर्जितै: I

साधवः परकल्याणे: खला: परविपत्तिभिः II'

अर्थात्, ब्राह्मण भोजन से, मयूर मेघ-गर्जना से, सज्जन व्यक्ति  परहित से और दुष्ट व्यक्ति परविपत्ति से संतुष्ट होता है !

'अहो दुर्जन संसर्गात् मानहानि: पदे पदे I

पावको लोहसंगेन मुद्ररैरभिहन्यते II'

अर्थात्, दुष्ट मनुष्य की संगत से पग-पग पर मानहानि होती है, वैसे ही जैसे, लोहे के साथ के कारण आग को भी हथौड़े से पिटना पड़ता है !

'क्वचित् सर्पोSपि मित्रत्वमियात् नैव खलः क्वचित्I

न शेषशायिनोSप्यस्य वशे दुर्योधनः हरे: II'

अर्थात्, कभी साँप भी मित्र बन सकता है, पर दुष्ट को कभी मित्र नहीं बनाया जा सकता ! हरि शेषनाग को शैय्या बनाकर सोते थे, पर दुर्योधन उनका मित्र न हो सका !

'गुणायंते दोषाः सुजनवदने दुर्जन्मुखे

गुणाः दोषायंते तदिदं नो विस्मयपदम् I

महमेघः क्षारं पिबति कुरुते वारि मधुरम्

फणी क्षीरं पीत्वा वमति गरलं दुस्सहतरं II'

अर्थात्, कोई आश्चर्य नहीं कि सज्जन पुरुष के मुँह में दोष भी गुण बन जाते हैं जबकि दुर्जन मनुष्य के मुँह में गुण भी दोष बन जाता है ! बादल खारा जल पीकर मीठे जल की वर्षा करते हैं, जबकि साँप दूध पीकर भी भयंकर विष उगलता है !

'न दुर्जनः सज्जनतामुपैति बहु प्रकारैरपि सेव्यमानः I

अत्यंतसिक्तः पयसा धृतेन न निम्बवृक्षः मधुतामुपैति II'

अर्थात्, बहुत प्रकार से सेवा करने के बाद भी दुर्जन को सज्जन नहीं बनाया जा सकता ! ढूध और घी में बहुत अधिक भिगोने के बाद भी नीम के पेड़ को  मीठा नहीं बनाया जा सकता !

'पाषाणो भिध्यते टंके वज्रः वज्रेण भिध्यते I

सर्पोSपि भिध्यते मन्त्रैर्दुष्टात्मा नैव भिध्यते II'

अर्थात्, पत्थर को टंक से, वज्र को वज्र से और साँप को मन्त्र से भेदा जा सकता है, लेकिन दुष्ट को किसी भी तरह से नहीं भेदा जा सकता !

'सर्प क्रूरः खलः क्रूरः सर्पात् क्रूरतर: खलः I

मन्त्रेण शाम्यते सर्पः न खलः शाम्यते कदाII'

अर्थात्, साँप क्रूर होता है, दुष्ट भी क्रूर होता है, पर दुष्ट साँप से अधिक क्रूर होता है ! साँप को मन्त्र से शांत किया जा सकता है लेकिन दुष्ट को किसी भी तरह से शांत नहीं किया जा सकता !

'खलः सर्षपमात्राणि परछिद्राणि पश्यति I

आत्मनो बिल्वमात्राणि पश्यन् अपि न पश्यति II'

अर्थात्, दुष्ट दूसरों का सरसों बराबर दोष भी तुरत देख लेता है, लेकिन अपने बेल के फल बराबर दोष को देखकर भी नहीं देखता है !

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समापन सर्ग

तो हे विद्वज्जनो ! हे सुधी श्रोताओ ! दुष्ट जनों की महिमा इस भाँति अनादि-अनंत-अगाध हुआ करती है कि शेषनाग उन्हें अपने सहस्त्र मुखों से नहीं बता सकते, गणेश उनका वर्णन नहीं कर सकते और वेदव्यास उन्हें लिपिबद्ध नहीं कर सकते ! फिर भी किसी सीमा तक इस कार्यभार को मुझ अकिंचन ने संपन्न करने का तुच्छ प्रयास किया ताकि वर्तमान फासिस्ट  तमस के घटाटोप  में, दुष्टता के महासाम्राज्य में जीते हुए आप दुष्टों का अध्ययन कर सकें, उन्हें पहचान सकें, उनकी भयंकरता को समझें, उनसे सावधान रहें और अनुकूल अवसर आते ही उन्हें उनकी दुष्टता का यथोचित दंड दें ! इस प्रयोजन में संस्कृत के प्राचीन आचार्यों से तो इतनी ही सहायता मिल सकती थी ! शेष कार्य आपको स्वयं संपन्न करना होगा !

इति श्री दुष्ट महाख्यानम् समाप्तं भवति। 

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(11 Apr 2025)