Wednesday, February 19, 2025

हुकूमत की ओर से जारी कुछ निर्देश

 (घटिया लोगों के बारे में एक घटिया कविता) 


मत करो अपने अधिकारों के लिए फाइट। 

सारी समस्याओं की जड़ हैं मुल्ले

हम उनको कर रहे हैं टाइट। 

लव जेहाद लैंड जेहाद मज़ार जेहाद

चलाने वाले घुसपैठियों के घरों पर

चला रहे हैं बुलडोज़र

आपकी ज़िन्दगी में फैला रहे हैं लाइट। 

भूल जाओ बेरोज़गारी, मँहगाई और

नागरिक स्वतंत्रता को

देखो हिन्दू-धर्म-ध्वजा की लगातार बढ़ती हाइट। 

खोदेंगे हम मस्जिदों को

मंदिरों के निशान ढूँढ़ने के लिए

छोड़ेंगे नहीं कोई साइट। 

भारत को फिर से बनायेंगे सोने की चिड़िया और

इतिहास में सैकड़ों साल पीछे जाकर

गजनवी, गोरी और बाबर को देंगे

ज़बरदस्त फाइट। 

महाबली डोलाण्ड है हमारा जिगरी दोस्त

जूते भी मारेगा भिगोकर तो बड़े प्यार से

फिर एफ-35  उड़ायेंगे हम जैसे काइट। 

और ये देखो, जल्दी ही राजधानी में उतरने वाली है

पुतिन की भी फ्लाइट। 

इन्तज़ार करो फिर से नयी ख़ुशियों का

टीवी चैनलों पर प्रसारित होने वाली है

 नॉनबॉयोलॉजिकल हिन्दू-हृदय-सम्राट की 

एक नयी बाइट। 

और तुम्हें क्या चाहिए भूखे नंगे नामुरादो! 

देखो इक्कीसवीं सदी में विश्वगुरू भारत की

बढ़ती हुई माइट। 

भक्त बनो, भीड़ बनो, रेवड़ बनो भेड़ों के

यह सोचना तुम्हारा काम नहीं कि 

क्या है रांग और क्या है राइट। 

**

(19 Feb 2025)


Monday, February 17, 2025

भगदड़

 (कविता के रूप में न स्वीकारना चाहें तो इस एक कवितानुमा बयान, या एक गद्यगीत या एक राजनीतिक विचार-कविता के रूप में पढ़ सकते हैं) 


भगदड़ हमारे समय का राष्ट्रीय रूपक है। 

कुम्भ मेले में भगदड़

स्टेशनों पर भगदड़

सड़कों पर भगदड़

सपनों में भगदड़

विचारों में भगदड़

कला और साहित्य में भगदड़

बाज़ार में भगदड़

शेयर मार्केट में भगदड़... 

भगदड़ एक राष्ट्रीय और वैश्विक परिघटना है। 

भगदड़ एक भेड़िया है जो कभी

मनुष्य का शिकार करती है तो कभी मनुष्यता का। 

*

अराजकता अन्तर्निहित अभिलाक्षणिकता है

माल-उत्पादन की प्रणाली की। 

संकट जब बढ़ता है 

मुनाफ़े की दर के गिरने की आम प्रवृत्ति के कारण

और मन्दी गहराती है तो भगदड़ मच जाती है

भूमण्डलीय बाज़ार में। 

भगदड़ मच जाती है तब समाज में, सड़कों पर 

जब सबसे ऊपर बैठे हुए लोग पूँजीवादी

संकट का विकट बोझ डाल देते हैं

नीचे के लोगों पर। 

लोग भागते हैं सड़कों पर 

पाँच किलो अनाज, या बेहद छोटी-छोटी चीज़ों, 

या कुछ बुनियादी ज़रूरतों, 

या अपने दुखों से मुक्ति, 

या मोक्ष-प्राप्ति के लिए

अपने जैसे ही लोगों को कुचलते हुए

और जो सबसे कमज़ोर होते हैं

वही सबसे पहले मौत का निवाला बनते हैं। 

जब संकट के दीर्घायु दौर जारी रहते हैं

तो सत्ता के शीर्ष पर जा बिराजते हैं

आधुनिक बर्बर

चाहे वे फ़ासिस्ट हों या निरंकुश स्वेच्छाचारी,

चाहे वे जनवाद का मुखौटा भर लगाये रहें

या चाहे उसे भी उतार फेंकें। 

ये आधुनिक बर्बर सुव्यवस्थित ढंग से पैदा करते हैं

सड़कों पर अव्यवस्था

और इनकी सुचिन्तित नीतियांँ 

सड़कों पर, जीवन में, नानाविध रूपों में

भगदड़ को जन्म देती हैं। 

*

जैसे शान्त, सुसज्जित, भव्य मंत्रणा कक्षों में

होने वाले कारोबारी सौदों से

सड़कों पर आतंक और मौत का खेल 

खेलने वाली बर्बरता का जन्म होता है, 

उसीतरह योजनाबद्ध ढंग से निर्मित नीतियाँ

सड़कों पर जानलेवा भगदड़ को जन्म देती हैं। 

निराशा और दिशाहीनता के नये-नये आधुनिक

और उत्तर-आधुनिक विचारों के साथ ही

पुरानी मूर्खताएँ भी उन्नततम संचार-माध्यमों पर सवार

दिग-दिगंत की यात्रा करती रहती हैं। 

नये नशों के साथ पुराने नशे भी

बिकते रहते हैं नये चलन के खाद्य पदार्थों में मिलाकर

आकर्षक पैकिंग में लपेटकर। 

कथित धर्मनिरपेक्षता के साम्राज्य में

आला अदालत का जज ईश्वर के परामर्श से

कथित विवादित पूजास्थल के बारे में

फ़ैसला सुनाता है

बहुसंख्यक धार्मिक आबादी के पक्ष में

और एक धार्मिक मेले के प्रचार में

कथित धर्मनिरपेक्ष राज्य मशीनरी अरबों-खरबों रुपये झोंक देती है। 

ऊपर जो नीतियांँ बनती हैं व्यवस्थित ढंग से

वही कई बार सड़कों पर जनसंहारकारी

भगदड़ों को जन्म देती हैं

और हत्यारे कहीं नज़र नहीं आते

और बहुत सारे चतुर सुजान अपने सुरक्षित घरों में बैठे

जनता को ही दोषी ठहरा देते हैं कि

वही अपनी रूढ़िवादी मूर्खता के चलते

आत्मघात के रास्ते पर चल पड़ती है। 

अपने हरावल के नेतृत्व में ही जनता

करती है इतिहास का निर्माण

और क्रान्तिकारी वैज्ञानिक चेतना

उसके भीतर से स्वत: नहीं पैदा होती

बल्कि बाहर से डाली जाती है। 

बेशक़ जनता की पिछड़ी चेतना की भी

की जानी चाहिए मित्रतापूर्ण आलोचना

लेकिन जनता इस आलोचना पर तभी कान देगी

जब आलोचना करने वाला उसका भरोसेमंद साथी हो, 

उसकी लड़ाइयों का सहभागी हो। 

उसी शिक्षक से सीखता है विद्यार्थी

जो ख़ुद सीखता है उनसे जिन्हें सिखाता है, 

जो बोलने से पहले सुनता है

और सिखायी हुई चीज़ों को अमल में

लाने के दौरान भी साथ खड़ा रहता है। 

*

तो भगदड़ में मरने वाली जनता को

उसकी पिछड़ी चेतना और धार्मिक कूपमण्डूकता के लिए

कोसने वाले वैज्ञानिक चेतना वाले बुद्धिजीवियों से

यह सवाल तो बनता ही है

कि तुम जिन चीज़ों को जानने का दावा करते हो

उसे जनता को बताने के लिए

अबतक तुमने क्या किया, 

कितना रहे और लड़े आम लोगों के साथ, 

जीवन क्या जिया? 

लेकिन उससे भी पहले सवाल यह भी किया जा सकता है कि

क्या वास्तव में चीज़ों को जानते हो तुम भी

या मुग़ालते में जीते हो? 

क्या आभासी सतह को भेदकर

सारभूत सत्य तक पहुँच है तुम्हारी

या बस यूँ ही चुबलाते और उगलते रहते हो

जुमले और मुहावरे भारी-भारी? 

**

(17 Feb 2025)

Sunday, February 16, 2025

कला के भविष्य की चिन्ता

 साहित्य अकादमी में दिन भर कविता में प्रेम की अलौकिकता के दर्शन और सौन्दर्यशास्त्र पर गहन विमर्श हुआ। 

शाम को जब सभी साहित्य-चिन्तक और कविगण बाहर आये तो आसमान में बर्बरता के घने बादल छाये थे और आतंक की मूसलाधार बारिश हो रही थी। 

तब अकादमी के अध्यक्ष ख़ुद बाहर आये और हरेक अतिथि को एक-एक इन्द्रधनुषी छाता और सुन्दर बरसाती जूतों की जोड़ी देते हुए बोले, "ऐसी बारिश में आप सभी महानुभावों का सुरक्षित घर पहुँचना ज़रूरी है कला के भविष्य के लिए।"

**

(16 Feb 2025)

Sunday, February 09, 2025

क्रान्तियाँ


-- पाब्‍लो नेरूदा

उच्‍च पदासीन

कीड़ों के खाये हुए कीचड़ के

अपने चोगों सहित गिरे,

नामहीन लोगों ने कंधों पर भाले ताने,

दीवारें ढहा दीं,

आततायी को उसके सोने के द्वार पर कीलों से ठोंका,

या अपनी बाँहदार कमीजों में, बस,

कारखानों, दफ्तरों, खानों में

एक छोटी-सी

सभा में गए।

ये वर्ष

मध्‍यांतर

के

थे।

सोने के दाँतोवाला त्रुजिल्‍लो धराशायी हुआ,

और निकारागुआ में

एक सोमोजा गोलियों से

छलनी हुआ,

अपने दलदल में रक्‍त-स्राव करता मरा,

ताकि एक दूसरा सोमोजा-चूहा

उस मरे हुए चूहे की जगह

पाले की तरह प्रकट हो;

लेकिन वह बहुत दिन न टिक पायेगा।

सम्‍मान और अपमान, उन भयानक दिनों की

विपरीत झंझाएँ!

किसी अबतक छिपी जगह से वे कवि के पास

एक धूमिल जय-पत्र की माला लाये

और उसे पहनाया।

गाँवों से वह अपने चमड़े का ढोल

और पत्‍थर का तूर्य

लिये गुज़रा।

ग्रामीणों ने,

जिन्‍होंने अँधेरे में पाठ पढ़ा था

और भूख को एक धर्म-ग्रंथ की तरह जानते थे,

कवि की ओर आधी मुँदी आँखों से देखा, जिसने ज्‍वालामुखियों,

नदियों, लोगों और मैदानों को पार किया था,

और वे जान गये कौन था वह।

अपने पर्णों के नीचे

उन्‍होंने

उसे शरण दी।

कवि

वहाँ अपने एकतारे के और

छड़ी के साथ था, जिसे उसने पहाड़ों में

किसी सुगंधपूर्ण वृक्ष से काटा था,

और जितने ही ज्‍यादा कष्‍ट उसने सहे,

उतना ही ज्‍यादा उसने सीखा,

उतना ही ज्‍यादा उसने गाया।

उसे मानव परिवार

उसकी अपनी खोयी माताएँ,

अपने पिता,

असंख्‍य

पितामह, संतानें मिल गयी थीं,

और इस तरह उसे हजारों

भाइयों के होने की आदत पड़ी।

इस तरह उसे अकेलेपल की पीड़ा नहीं सहनी पड़ी।

इसके अतिरिक्‍त, उसने अपने एकतारे और

अपनी जंगली छड़ी के साथ

चट्टानों के बीच

एक अन्‍तहीन नदी के तट पर

अपने पाँव शीतल किये।

कुछ नहीं होता था या कुछ नहीं

होता जान पड़ा --

जल, शायद, जो अपने पर ही

सरकता जाता था,

स्‍फटिकता से

गाता हुआ।

लौह-वर्ण के जंगल ने

उसे घेर रखा था।

वह स्थिर बिंदु था,

इस ग्रह का

नीलतम, शुद्ध केंद्र,

और वह वहाँ अपने एकतारे के साथ पहुँचा था,

चट्टानों और

हरहराते हुए जल के

बीच,

और कुछ नहीं होता था,

विस्‍तृत मौन,

और निसर्ग के लोक की धड़कन

और शक्ति के सिवा।

लेकिन, बहरहाल,

एक गहन प्‍यार,

एक क्षुब्‍ध सम्‍मान उसकी नियति थी।

जंगलों और नदियों से बाहर

वह निकला।

उसके साथ, एक स्‍वच्‍छ खड्ग की तरह,

उसके गान की आग चलने लगी।

(अनुवाद: चन्‍द्रबली सिंह)


Saturday, February 08, 2025

कम्‍युनिस्‍ट

 --पाब्‍लो नेरुदा

हम जिन्‍होंने अपनी आत्‍मा पत्‍थर में

लोहे में, कठोर अनुशासन में प्रतिष्ठित की,

हम सिर्फ प्‍यार में जीवित रहे,

और लोग खूब जानते हैं कि हमने अपना रक्‍त बहाया

जब ग्रहण के उदास चन्‍द्रमा ने

तारे का रूप विकृत किया।

अब तुम देखोगे कौन हैं हम और क्‍या सोचते हैं हम।

अब तुम देखोगे हम क्‍या हैं और क्‍या होंगे।

हम पृथ्‍वी की शुद्ध चाँदी हैं,

आदमी की सच्‍ची धातु।

हममें सागर की निरंतर गति है,

हममें सारी आशा की शक्ति मूर्तिमान होती है।

अंधकार का एक क्षण हमें अंधा नहीं बना पाता।

कुछ भी पीड़ा के बिना हम मृत्‍यु का वरण करेंगे।

(अनुवाद:चन्‍द्रबली सिंह)

 अध्ययन हमारे आसपास के माहौल में एक किस्म का जादुई प्रभाव पैदा कर देता है I

-- बाल्ज़ाक

Sunday, February 02, 2025

 सच्चा कवि अपनी सबसे अच्छी कविताओं में अपनी पहचान छुपा कर रख देता है और हृदय खोलकर। 

*

सच्चे कवि की अपनी पसन्दीदा कविता में उसकी आत्मा की निशानदेही की जा सकती है। 

*

कई बार जो कविताएँ कवि का प्यार पाने से वंचित रह जाती हैं, वे वक़्त आने पर उसकी सबसे लायक़ संतान साबित होती हैं। 

*

सच्चा कवि अपनी कविताओं का सबसे अच्छा आलोचक होता है। 

*

कविताएँ कई बार अपने सर्जक कवि से आगे निकल जाती हैं और कई बार कवि अपनी कविताओं को पीछे छोड़ आगे निकल जाता है। 

*

(डायरी के कुछ फुटकल इन्दराज)

(2 Feb 2025)

Tuesday, December 17, 2024

 मेरी कविता 'सफल लोग' का नेपाली भाषा में अनुवाद किया है कामरेड मुक्ति पथिक ने।

सुविधा के लिए नीचे मूल कविता भी दे दी है। 

सफल मानिस

*****

उनीहरूलाई भनिएको थियो-

यो संसारमा

चाहे जसरी नै किन नहोस

सफल हुनुमा नै

जीवनको सार्थकता छ ।

उनीहरूसँग

शिखरसम्म पुग्ने 

नक्सा थिए,

हाइड्रोजन ग्याँसका बेलुन

र प्यारासुटहरू थिए 

अनि हृदयमा थिए-

दुर्दान्त महत्वाकांक्षाहरू ।

तिनीहरूको पिठ्युँमा

सत्ताधारीहरूको धाप थियो भने

असफल मानिसहरूका पिठ्युँमा

तिनीहरूका जुत्ताको छाप थियो ।

**

© Kavita krishnapallavi

अनु:मुक्ति पथिक

 मूल कविता:

सफल लोग

उन्हें बताया गया था कि

इस दुनिया में

चाहे जैसे भी हो, 

सफल होने में ही

जीवन की सार्थकता है I

उनके पास

शिखरों तक पहुँचने के

मानचित्र थे, 

हाइड्रोजन गैस के गुब्बारे

और पैराशूट थे

और हृदय में

दुर्दांत महत्वाकांक्षाएँ I

उनके चूतड़ों पर 

सत्ताधारियों के ठप्पे थे

और असफल लोगों की पीठों पर

उनके जूतों के निशान! 

**


Sunday, December 15, 2024

 'खोना-पाना' कविता का अंग्रेज़ी अनुवाद किया है अग्रज साथी Vinod K. Chandola  ने। 

An English rendition of a poem by Kavita Krishnapallavi

Loss and Gain

-Kavita Krishnapallavi

Lo I have lost all loves

Like I would lose coins in my childhood on my way.

And I can’t reach you now.

Can’t  recollect paths-ways of the days bygone

And love-deluged calls coming from afar are dying down

In the screams rising from burning ghettos.

This is a new tale of gaining and losing things

And I have squandered a sizable portion of life.

The vulture of time has imprinted its paws’ marks on my face but it has not reached my heart, yet.

I have placed my dreams in hiding

In the ghettos of the most melancholy ones and connotations of love have changed for me.

Also I am unable to settle in rather neat and tidy places and hearts now.

My heart is stained with blood and my shabby shoes are wrapped with blood-soaked soil and fatigue of a long journey wearing them how could I enter some sophisticated-elite’s!

Stop calling me back, please.

Coil the kite line of expectation up now.

I have embarked on a journey to some new planetary-system in search of life.

मूल कविता:

खोना-पाना

देखो, मैंने सारे प्यार खो दिए

जैसे बचपन में सिक्के खो देती थी रास्ते में। 

और अब मैं नहीं पहुँच सकती तुम तक। 

बीते दिनों के रास्ते मुझे याद नहीं 

और दूर से आती प्रेमविह्वल पुकारें

डूब रहीं हैं

जलती हुई बस्तियों से उठते शोर में। 

यह चीज़ों को खोने और पाने की 

एक नयी कथा है

और मैं उम्र का एक बड़ा हिस्सा 

ख़र्च कर चुकी हूँ। 

वक़्त के गिद्ध ने चेहरे पर पंजों के निशान

छाप दिये हैं लेकिन हाँ, हृदय तक वह 

नहीं पहुँच सका है अबतक। 

मैंने अपने सपने छुपा कर रख दिये हैं

फ़लाकत-ज़दा लोगों की बस्ती में

और अब प्यार के मायने बदल चुके हैं

मेरे लिए। 

और वैसे भी मैं बेहद साफ़-सुथरी जगहों 

और दिलों में

व्यवस्थित नहीं हो सकती। 

मेरा हृदय ख़ून में लथपथ है और

ख़ून सनी मिट्टी और लम्बे सफ़र की थकान से

लिथड़ी हुई हैं मेरी जर्जर जूतियाँ जिन्हें पहने हुए

 मैं किसी सुसंस्कृत-सम्भ्रान्त नागरिक के घर

भला कैसे जा सकती हूँ! 

वापस बुला लो तुम अपनी पुकार। 

प्रतीक्षा के पतंग की डोर लपेट लो। 

मैं जीवन की तलाश में किसी नये

नक्षत्र मण्डल की यात्रा पर

जा रही  हूँ। 

**


Saturday, December 14, 2024

खोना-पाना


देखो, मैंने सारे प्यार खो दिए

जैसे बचपन में सिक्के खो देती थी रास्ते में। 

और अब मैं नहीं पहुँच सकती तुम तक। 

बीते दिनों के रास्ते मुझे याद नहीं 

और दूर से आती प्रेमविह्वल पुकारें

डूब रहीं हैं

जलती हुई बस्तियों से उठते शोर में। 

यह चीज़ों को खोने और पाने की 

एक नयी कथा है

और मैं उम्र का एक बड़ा हिस्सा 

ख़र्च कर चुकी हूँ। 

वक़्त के गिद्ध ने चेहरे पर पंजों के निशान

छाप दिये हैं लेकिन हाँ, हृदय तक वह 

नहीं पहुँच सका है अबतक। 

मैंने अपने सपने छुपा कर रख दिये हैं

फ़लाकत-ज़दा लोगों की बस्ती में

और अब प्यार के मायने बदल चुके हैं

मेरे लिए। 

और वैसे भी मैं बेहद साफ़-सुथरी जगहों 

और दिलों में

व्यवस्थित नहीं हो सकती। 

मेरा हृदय ख़ून में लथपथ है और

ख़ून सनी मिट्टी और लम्बे सफ़र की थकान से

लिथड़ी हुई हैं मेरी जर्जर जूतियाँ जिन्हें पहने हुए

 मैं किसी सुसंस्कृत-सम्भ्रान्त नागरिक के घर

भला कैसे जा सकती हूँ! 

वापस बुला लो तुम अपनी पुकार। 

प्रतीक्षा के पतंग की डोर लपेट लो। 

मैं जीवन की तलाश में किसी नये

नक्षत्र मण्डल की यात्रा पर

जा रही  हूँ। 

**

(14 Dec 2024)

Wednesday, December 11, 2024

ऐसी ट्रैजेडी यह नीच...

 

 कालेज के दिनों में बढ़िया गाते थे, 

आन्दोलनों में आगे-आगे चलते हुए नारे लगाते थे, 

मुहब्बत और इंक़लाब की कविताएँ भी

लिखते-सुनाते थे मनोहर लाल शर्मा जी। 

गुज़रे दिनों को वह याद करते हैं

नास्टैल्जिक और उदास होकर

और फिर सब्ज़ीबाड़ी में निराई-गुड़ाई करने

चले जाते हैं। 

वर्तमान समय के बारे में चुप रहते हैं

या क्षुब्ध। 

भविष्य की बात आती है तो सिर्फ़

अपने बच्चों के बारे में सोचते हैं

आशंका और अनिश्चितता से भरे हुए। 

एक सपना था पुराना कि फिर से कविता लिखेंगे

जो हो नहीं सका। 

फिर ख़याल आया एक दिन कि कविता नहीं

कुछ गद्य-वद्य ही लिखें

और काग़ज़-कलम लेकर बैठ गये डाइनिंग टेबल पर। 

असम्भव सा लग रहा था फिर भी जमे रहे। 

इतने में पत्नी ने आकर कहा,"मिर्चे का अँचार

भरने के लिए मसाला चाहिए, आनलाइन

मंँगाने में शुद्धता की कोई गारंटी नहीं होती। 

शनिवारी बाज़ार लगा है, चलो चलकर लाते हैं।"

सहसा जैसे हलक़ में कुछ अँटक गया। 

फूटने को हुई बरसों से दबी हुई रुलाई। 

तेज़ी से उठकर भागे बाथरूम की ओर

मनोहर लाल शर्मा जी। 

**

(11 Dec 2024)


Sunday, December 01, 2024

एक मध्यवर्गीय विद्रूप काव्यात्मक विडम्बना

 

एक मध्यवर्गीय विद्रूप काव्यात्मक  विडम्बना  

कायरता तो जैसे हमारे ख़ून में थी

और इन्तज़ार करना हमारा जीवन था।

प्रार्थना पत्रों और निवेदनों की भाषा 

हमें घुट्टी में पिलायी गयी थी 

और मामूली लोगों के प्रति थोड़ी दया और कृपालुता ही

हमारी प्रगतिशीलता थी।

हमारी  दुनियादारी को लोग

भलमनसाहत समझते थे।

संगदिली हमारी उतनी ही थी 

जितनी कि तंगदिली।

अत्याचार और मूर्खता से उतने भी दूर नहीं थे हम

जितना कि दिखाई देते थे और दिखलाते थे।

जब ज़ुल्म की बारिश हो रही हो

और कुछ भी बोलना जान जोखिम में डालना हो

तो हम चालाकी से अराजनीतिक हो जाते थे

या कला और सौन्दर्य के अतिशय आग्रही,

या प्रेम, करुणा, अहिंसा, मानवीय पीड़ा,

ख़ुद को बदलने आदि की बातें करने लगते थे।

और लोग इसे हमारी सादगी और भोलापन 

समझते थे या अतिसंवेदनशीलता।

न जाने हम दुर्दान्त तपस्वी थे वनवासी 

या कला की असाध्य वीणा के अप्रतिम साधक

या अपना हृदय किसी ऊँचे शमी वृक्ष के कोटर में 

रखकर भेस बदलकर बस्तियों में घूमने वाला

कोई मायावी अमानुष

या महज एक दीर्घजीवी कछुआ, 

लेकिन इतना तय था कि कुछ भी 

मनुष्योचित नहीं रह गया था 

हमारे भीतर।

हमारी आत्मा की आँखें नहीं थीं

और न ही कान।

हाँ लेकिन कविताएँ हम

बहुत सुन्दर लिख लेते थे।

**

(1 Dec 2024)

Wednesday, November 27, 2024

Love letter to the might

 

मेरी कविता 'ताक़त के नाम प्रेमपत्र' का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया है लेखक-कवि-पत्रकार-अनुवादक साथी विनोद चन्दोला ने। पाठकों की सुविधा के लिए नीचे मूल कविता भी दे दी गयी है। 

An English rendition of a poem by Kavita Krishnapallavi

Love letter to the might 

- Kavita Krishnapallavi

You are upset in vain oh, poet

I will shield your love letters," 

said the powerful man seated 

on the tall throne

bowing toward the poet.

Then he rose and opened a giant almirah

with the keys.

Took the bundle of love letters from the poet and placed it in the almirah 

between some skulls, books of occult and law,

maps filled with dried stains of blood

and daggers and swords.

Then he said to the poet, “There, sit there on that chair

and choose from multi-colored pens 

any pen that is dear to your heart

and write an ornate love letter

to the murderous greatness,

write another praising the terroristic power, 

and then one more,

to the desire for immortality.”

Translation : Vinod K. Chandola


मूल कविता:

ताक़त के नाम प्रेमपत्र

"नाहक तुम इतने परेशान ह़ो कवि! 

मैं बचाऊँगा तुम्हारे प्रेमपत्रों को,"

कहा ऊँचे सिंहासन पर बैठे

उस ताक़तवर आदमी ने

कवि की ओर झुकते हुए।

फिर वह उठा और एक विशाल अलमारी को खोला

चाभी लगा कर। 

कवि से प्रेमपत्रों का गट्ठर लेकर उसने रखा

उस अलमारी में

कुछ खोपड़ियों, तंत्र विद्या और क़ानून की किताबों, 

ख़ून के सूखे धब्बों से भरे मानचित्रों

और चाकुओं-तलवारों के बीच। 

फिर उसने कवि से कहा, "वहाँ

उस कुर्सी पर बैठो

और  रंग-बिरंगी कलमों में से चुन लो

कोई मनचाही कलम

और एक सुन्दर प्रेमपत्र लिखो

हत्यारी महानता के नाम, 

एक और लिखो आतंककारी ताक़त के नाम

और फिर एक और, 

अमरता की चाहत के नाम। 

**


Saturday, November 23, 2024

कविता की एक रात

 

कविता की एक रात

सुदूर उत्तर-पूर्व से बहती हुई

रक्त-रेखा चुपचाप एक नदी बनती 

आगे बढ़ रही थी। 

मानचित्र के शीर्ष पर केसर के खेतों में

राइफलें खड़ी थीं। 

मध्य क्षेत्र में जंगल कटे पड़े थे

और लाशें गिर रही थीं

कटे पेड़ों की तरह। 

हवा में जो प्रदूषण था उसमें

ज़हरीली गैसों से अधिक दमघोटू

आतंक की गंध थी। 

उन्मादी शोर का ध्वनि प्रदूषण चरम पर था। 

समंदर की छाती पर टिमटिमाती बत्तियांँ

अनुपस्थित थीं उस रात

और सिर्फ़ कुछ आवाज़ें थीं रहस्यमय

अँधेरे में। 

चाँद गहरी नींद सो रहा था

और तारे शोकाकुल थे। 

बस कुछ कवि जग रहे थे

रात्रि के इस बेचैन प्रहर में

उद्विग्नचित्त, 

दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत, 

सर्वप्रिय कविता लिखने की कोशिशों में

डूबे हुए। 

दरबार से बुलावा आया था। 

अगले दिन ही रवानगी थी। 

**

(23 Nov 2024)


Tuesday, November 19, 2024

उदासी के गीत और प्रेम की कविताएँ मेरे लिए

 

उदासी के गीत और प्रेम की कविताएँ मेरे लिए

वह कच्ची समझ का एक रूमानी ज़माना था

जब मेरे पास भी उदासी के गीतों

और प्रेम की कविताओं का एक पूरा खजाना था। 

दुनिया-ज़माने के तमाम दुख तब हाशिये पर

निवास करते थे

और अक्सर तो अपने ही दुख और राग-विराग

समूची दुनिया के लगा करते थे। 

उदासी के गीतों और प्रेम की कविताओं की

कभी गिनती नहीं की मैंने

न उनके बारे में किसी को राज़दार बनाया। 

फिर कवियों के हिसाब से जब प्यार में

डूब मरने के दिन थे

तब मैंने देखा अपने देश में राख-अँधेरे की बारिश

और नेरूदा से ही यह नज़र मिली कि जब

गलियों में लहू बह रहा हो

तो कविता में फूल-पत्ती और मौसम की बातें

भला कैसे कर सकता है कोई सच्चा कवि

और यह भी कि, 

दिल को सच्ची कविता का आवास बनाये बिना

भला कैसे हो सकता है कोई सच्चा प्रेमी! 

इसतरह जब कविताओं और सच्चे प्यार के

दिन आये तो पुरानी रूमानियत से लबरेज़ डायरियों

और पुरानी प्रेम कविताओं के साथ

पुराने प्रेमपत्रों को भी जलाने के दिन आ गये। 

और नये प्रेम की नयी तलाश भी यहीं से शुरू होनी थी। 

प्रेम आया भी बहुत सारा, और बहुत सारे रूपों में

लेकिन नयी दुविधाओं और समस्याओं के साथ। 

मेरी चाहतों और सपनों की राह 

उन घाटियों से होकर जाती थी

जहाँ ज़िन्दगी की ख़ूबसूरती पर

राख बरसती रहती थी

और इंसाफ़पसंदगी को दहशतगर्दी का

दरजा दे दिया गया था। 

इसी राह मैं चली लेकिन चाँद और इन्द्रधनुष

और चुम्बनों की चाहत से सराबोर मेरे किसी भी

प्रेमी को ज़िन्दगी जोखिम में डालना

मंजूर नहीं था। 

प्यार हो या इंसाफ़, इनकी क़ीमत

ज़िन्दगी से अधिक नहीं, उनका कहना था। 

जाहिर है कि मैंने नहीं बदला अपना फ़ैसला

क्योंकि मैं प्यार के लिए भी ज़िन्दगी दे सकती थी

और इंसाफ़ और आज़ादी के लिए  भी

और शेली से भी मुझे प्यार था

और वाल्ट ह्विटमन से भी

और नाज़िम हिकमत और नेरूदा से भी। 

एक लम्बा बीहड़ रास्ता तय करते हुए

बरसों का वक़्त गुज़ारने के बाद

एक दिन अचानक पाया कि

उदासी के कुछ गीत

और प्रेम की ढेर सारी कविताएँ

इस पूरे सफ़र के दौरान

मेरे पीछे-पीछे चलती रहीं थीं

चुपचाप, 

जैसे ख़ुद ही मोल ली गयीं

कुछ ख़ूबसूरत और प्यारी मुसीबतें

बग़ावत की ज़िन्दगी के तमाम

अपरिहार्य जोखिमों के साथ-साथ। 

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(19 Nov 2024)

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(एक नोट: आम तौर पर कविताओं को किसी टिप्पणी के साथ देना अच्छी बात नहीं। लेकिन फिर भी मुझे ज़रूरी लगा। इस कविता की ज़मीन के बारे में मैं कुछ बातें करना चाहती हूँ।

इधर मैं हिन्दी के युवा कवियों में युवा नेरूदा की कविताओं के पहले संकलन 'बीस प्रेम कविताएँ और उदासी का एक गीत' के प्रति अद्भुत दीवानगी का मंज़र देख रही हूँ। बेशक़ इन कविताओं में नेरूदा की सर्जनात्मक प्रतिभा का एक स्फोट दीखता है, लेकिन  एक क्रांतिकारी रोमान के जादू और क्रूर यथार्थ के हठी प्रतिरोध के महाकवि नेरूदा का जन्म इसके बाद होता है, और वह भी काफ़ी चढ़ावों-उतारों से गुज़रने के बाद। ज्ञात हो कि एक युवा ने जब आत्महत्या की तो उसके बाजू में 'बीस प्रेम कविताएँ और उदासी का एक गीत' संकलन खुला पड़ा था और खुली किताब के पन्नों पर ख़ून के छींटे थे। इस घटना ने नेरूदा को हिलाकर रख दिया और उन्होंने तय किया कि यह उनकी कविता का रास्ता नहीं हो सकता। अब यह एक अलग कहानी है कि पश्चिमी अवांगार्द धाराओं के प्रभाव के बाद नेरूदा ने अपनी मिट्टी की गंध वाली नयी एपिकल किस्म की शैली कैसे ईजाद की और अपनी जनता की कठिन ग़ुलामी भरी ज़िन्दगी को देखते हुए उसके संघर्षों में भागीदारी करते हुए कैसे अपनी ज़िन्दगी दाँव पर लगा दी। मुझे तो नेरूदा की इसी दौर की प्रेम कविताएँ उद्दाम और उदात्त प्रेम की कविताएँ लगती हैं जैसे नाज़िम हिकमत की प्रेम कविताएँ! 

आज के कई प्रगतिशील जनवादी कवियों को भी दरअसल उदासी बहुत पसंद आती है, कारण कि वे स्वयं एलियनेशन और अवसाद के शिकार हैं। इससे मुक्ति के लिए संघर्ष की मनोगत शक्ति उनके पास नहीं है, 'जन-संग-ऊष्मा उनके पास नहीं है। काफ़्काई उदासी (हालांँकि काफ़्का में सिर्फ़ यही नहीं है, बहुत कुछ सकारात्मक भी है), दोस्तोवस्कियन नैराश्यपूर्ण द्वंद्व (उनके सघन मानवीय सरोकार और नैतिक द्वंद्व नहीं) और निर्मलवर्माई अवसादग्रस्तता उन्हें दिल से पसंद आती है और उनका ज़मीर उनसे आज़ादी और इंसाफ़ के पक्ष में खड़ा होने के लिए आवाज़ देता है। 

तीसरी ओर से एक और आवाज़ भी आती है और मुक्तिबोध के शब्दों में, 'कीर्ति के इठलाते नितम्बों' को देखकर लालच का परिंदा चोंच मारने के लिए उड़ान भरने को उतावला हो जाता है। आज के ज़माने में कीर्ति तो तभी मिलेगी जब कविता में उदासी और अकेलेपन के कुछ आख्यान रचे जायें, थोड़ी प्रगतिशीलता के रूपकों-बिम्बों की सजावट के साथ!  इसी खींचतान में बिचारे कई युवा कवि एकदम खिंच गये हैं। प्रेमिका कोई पट नहीं रही है, कविता में सिद्धि थोड़ी मिल भी जाये तो अपेक्षित प्रसिद्धि नहीं मिल रही। उधर व्यवस्था ऐसी कि कैरियर भी अधर में।  ऐसे में,  अगर विचारधारा की मनोगत शक्ति ज़बरदस्त न हो और जीवन-लक्ष्य स्पष्ट न हो, तो उदासी के गीत गाने, और अकेलेपन के बेकल विलापों-आलापों से भरी प्रेम कविताएँ लिखने के अतिरिक्त और रास्ता भी क्या बचता है इक्कीसवीं सदी की प्रेमदग्ध विकल युवा प्रेतात्माओं के पास! 

यही सबकुछ सोचते हुए एक कविता दिमाग़ में कौंधी और उसे मैंने एक सांँस में लिख डाला।)