Saturday, August 30, 2025

मैं ग़ज़्ज़ा हूँ

 

मैं ग़ज़्ज़ा हूँ

मैं ग़ज़्ज़ा हूँ

आउश्वित्ज़ और तमाम गैस चैम्बरों का

एक जीवित स्मृति स्तंभ। 

मेरे भीतर साँस लेते हैं

भस्मीभूत हिरोशिमा और नागासाकी। 

मैं वियतनाम में कार्पेट बॉम्बिंग की

जीती-जागती मिसाल हूँ। 

हड्डियों, राख, रक्त और लाशों के

चीथड़ों और खण्डहरों और 

जैतून के ठूँठों से भरी मेरी छोटी सी धरती पर

इतिहास की तमाम यातनाएंँ एक साथ

निवास करती हैं। 

मैं विश्वासघातों और आत्मसमर्पणों के साथ ही

जिजीविषा, युयुत्सा और मुक्तिस्वप्नों के

अमरत्व का भी सबसे विश्वसनीय

और प्रामाणिक गवाह हूँ। 

जब भी तुम समझोगे

एक आततायी समय में जीने के लिए

ज़िन्दगी दाँव पर

लगाकर लड़ने की ज़रूरत, 

ख़ुद को मेरे साथ खड़ा होने के लिए

मजबूर महसूस करोगे।

#ग़ज़्ज़ा

(30 Aug 2025)

Saturday, August 23, 2025

 

धरती के उस टुकड़े पर

जहाँ तितलियाँ भी बच्चों से

लम्बी ज़िन्दगी जीती हैं, 

मैं तुम्हारे लिए 

कैसी कविता लिखूँ? 

-- अहमद आरिफ़

#ग़ज़्ज़ा

Friday, August 22, 2025

#ग़ज़्ज़ा


 वहाँ इन्द्रधनुष उगता है

लहूलुहान। 

मौत की बारिश के बीच

ज़िन्दगी साँस लेती रहती है। 

#ग़ज़्ज़ा

(22 Aug 2025)

Monday, August 11, 2025

ज़ुल्म की बारिश के दिनों में प्यार की बातें


आतंक और निराशा के 

ऐतिहासिक दिनों से गुज़रते हुए

एक दिन मैंने पूछा उससे, तुम प्यार में 

कब पड़े पहली बार

और फिर कितनी बार? 

उसने बताया कि वह प्यार में पड़ता नहीं, 

उठता रहा। 

जब भी पड़ने को हुआ प्यार में, 

प्यार ने उसे ऊपर उठा दिया

और ऊँचाई से ज़िन्दगी उसे 

और साफ़ नज़र आने लगी। 

फिर बताया उसने कि

प्यार करने की चन्द सफलताओं 

और बहुतेरी विफलताओं के बीच

वह आम लोगों से उम्मीदों और सपनों की

सौगातें हासिल करता रहा

और ज़िन्दगी को प्यार करना सीखता रहा

जैसे इंसाफ़ को और आज़ादी को प्यार करते हैं

 ग़ज़्ज़ा के रहवासी 

मौत की दिन-रात जारी बारिश के बीच।

**

(11 Aug 2025)


Friday, July 18, 2025

पुरानी डायरी के कुछ बिखरे-बिखरे नोट्स


याद रखना और भूलना -- रचने के लिए दोनों ज़रूरी हैं ! पर यह चुनाव हम शायद ही कभी सही कर पाते हैं कि क्या भूलें क्या याद करें !

*

ज़िन्दगी में बहुत अधिक सिनेमा होना चाहिए -- बहुत सारे रहस्य, दृश्यात्मकता, पार्श्व-संगीत, आश्चर्य, विषण्णताएँ, स्वप्न, एक दृश्य में से खुलता दूसरा दृश्य ... I इसतरह शायद ज़िंदगी में कुछ कविता पैदा की जा सके, या शायद कुछ कविता खोजी जा सके !

*

भीड़ की तमाम बुराइयाँ हमें भद्र नागरिकों में भी दीख जाती हैं ।

*

नयी सदी में लगातार लोग बूढ़े पैदा हो रहे हैं I जो वास्तव में नया है, या जिसमें नयेपन की संभावना है; उसे वे झेल नहीं पाते I वे स्मृतियों को स्वप्न समझते हैं और कृत्रिम मेधा और मशीनों के साथ जीते हुए प्यार करने के बारे में ऊदबिलावों की तरह सोचते हैं ।

*

कवि अपने विचारों की अस्तव्यस्तता, बौनी महत्वाकांक्षाओं और गृहस्थी की उलझनों में मर रहे हैं, लेकिन कविताएँ फिर भी लिखे चले जा रहे हैं !

*

सितारों की ओर देखने पर अँधेरे और अकेलेपन का भय समाप्त हो जाता है ।

*

सभी अमर प्रेमियों के बारे में सबकुछ जानने के बाद भी प्यार तो हर प्रेमी ( या प्रेमिका ) अपने ढंग से ही करता है I प्रेम एक ऐसी चीज़ है जिसका हर प्रेम करने वाला अपने ढंग से आविष्कार करता है I विद्रोहों और जन-क्रांतियों के बारे में भी शायद यही बात लागू होती है I मार्क्स सही थे -- त्रासदी को दुहराने की हर कोशिश सिर्फ़ और सिर्फ़, प्रहसन ही हो सकती है I महानों के बारे में पढ़-जानकर महान बनने का सपना पालने वाले बौने विदूषक ही हो सकते हैं ।

*

भाष्यकार रचना का सुन्दर-सटीक भाष्य करता है और रहस्यों को अनावृत्त करता है I रचनाकार चीज़ों को उनकी पूरी रहस्यात्मकता के साथ ही देखता है I जिसका रहस्य खुल चुका हो, वह कलात्मक पुनर्सृजन के लिए किसी काम का नहीं रह जाता I नेरूदा अपने एक सौनेट में प्रेयसी को यूँ प्यार करने की बात करते हैं जैसे अँधेरी चीज़ों को किया जाता है, गुप्त ढंग से, छाया और आत्मा के बीच ।

*

जब आप प्यार करते हैं, या दिल की गहराइयों से विद्रोह के बारे में सोचते हैं तो आपकी आत्मा पर पड़े दाग़-धब्बे नीम-अँधेरे से बाहर आ जाते हैं और आपकी आँखों के सामने चमकने लगते हैं I इससे आपके भीतर की मनुष्यता भी एक नयी चमक हासिल करती है ।

*

सफलताएँ और मान्यताएँ अक्सर हमें अपनी क्षुद्रताओं और स्वार्थ को देखने से रोकती हैं I अक्सर हम आत्मधर्माभिमानी और अहम्मन्य हो जाते हैं ! यह मखमली घास की ढलान पर आँख मूँदकर लुढ़कने के समान होता है, जिसका अंत एक गन्दगी भरे दलदल में होता है ।

(18 Jul 2025)

Sunday, July 13, 2025

लोकरंजकतावाद

 

लोकप्रिय होने का अतिरेकी लोभ कविता को जीवन के ज्वलंत प्रश्नों पर गहन विमर्श से दूर ले जाता है, गतानुगतिकता के कोल्हू का बैल बना देता है, या फिर लोकरंजकतावाद (पॉप्युलिज़्म) की गड़ही में धकेल कर गिरा देता है। त्वरित लोकस्वीकार्यता का लोभी कवि यथास्थिति की और सांस्कृतिक वर्चस्व की शक्तियों की निर्भीक आलोचना की धार खो देता है और कालान्तर में, प्रायः, संस्कृति प्रतिष्ठानों के फाटक पर बैठा पत्तल चाटता हुआ पाया जाता है।

Sunday, July 06, 2025

शीर्षकहीन एक कविता

 

इक सुनहली याद

जैसे खेत में छूटी पके दानों  की इक बाली। 

कि जैसे भोर के धुँधले क्षितिज पर

उभरती लाली। 

कि जैसे रात में बांदल नदी यह दून घाटी की

और इसके किनारे 

बिना पत्तों का खड़ा यह पेड़। 

उदासी रात सी निस्तब्ध। 

लेकिन इस अँधेरे में कहीं से आ रही है रोशनी

लम्बा सफ़र तय करके। 

रक्तवर्णी फूल हँसते हैं

 वहाँ निस्संग डालों पर। 

हिलते हैं, उमगते हैं

लपकते पास आने को। 

**

(6 Jul 2025)


Monday, June 30, 2025

 लगातार मेहनत और संघर्ष की ज़िन्दगी जीने के बाद अगर आप किसी मीलपत्थर के पास थककर देर तक बैठ जाते हैं तो फलहीन बूढ़े पेड़ के पीले पत्ते आपके सिर पर गिरने लगते हैं, पस्तहिम्मती का अजगर अपनी कुण्डली में जकड़ लेने के लिए धीरे-धीरे आपकी ओर सरकने लगता है, क्षुद्रता की लाल चींटियाँ आपके बदन पर रेंगने लगती हैं और कुछ मील आगे खड़ी मौत की सराय में आपके लिए एक कमरे की साफ़-सफ़ाई शुरू हो जाती है। 

उस सराय से आगे का सफ़र कोई इंसान नहीं बल्कि एक प्रेत तय करता है।

(डायरी का एक इन्दराज़)

(30 Jun 2025)


Sunday, June 08, 2025

कविता मुहावरा मसाला श्रृंखला में चौथी कविता

 

बहुत हुआ जब इज़्ज़त का फालूदा। 

कहने लगे लोग कि न छाती छप्पन इंच की

न भेजे में गूदा। 

तब विश्वगुरू ने पूछा एक सनातन सवाल

फिर क्या था, पूरी दुनिया में मच गया बवाल। 

पूछा कि कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा? 

चक्कर खा गया पुतिन

भकुआया ताकता रह गया

गुड फ्रेंड दोलाण्ड ट्रम्प बेचारा। 

*

(8 Jun 2025)

Friday, June 06, 2025

कविता मुहावरा मसाला श्रृंखला में तीसरी कविता

 


मथुरा में रहती है। 

मध्यकाल और आधुनिक काल के बीच

आवाजाही करती है। 

राधा कालेज स्कूटी से आती है। 

लौटानी में डोमिनोज़ का पिज़्ज़ा खाती है। 

फिर वृंदावनबिहारी के आश्रम में जाती है।

भजन गाती है

भागवत कथा बाँचती है। 

नौ मन तेल पेरने पर भी मेरे लिए

राधा नहीं नाचती है। 

मइया कसम, अब तो

बजरंग दल में जायेंगे। 

जिनके लिए राधा नाचती है

उनके पिछवाड़े लट्ठ बजायेंगे। 

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(6 Jun 2025)

Thursday, June 05, 2025

कविता मुहावरा मसाला श्रृंखला में दूसरी कविता

 


हरदम उत्पात मचाते हैं। 

तर्क-विवेक से जानी दुश्मनी निभाते हैं। 

अदरक का स्वाद

उन्हें भाता नहीं । 

लेकिन उनका कहना है कि

बन्दरों से उनका कोई नाता नहीं। 

उनकी तो एक भारत माता 

और दूजी गोमाता है। 

इससे ज़्यादा उन्हें कुछ नहीं आता है। 

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(5 Jun 2025)

Tuesday, June 03, 2025

कविता मुहावरा-मसाला श्रृंखला


 

लगभग दूध का धुला

लोग कहते थे कि हालाँकि कोई

एकदम दूध का धुला नहीं होता

लेकिन वह काफ़ी हद तक

कहे जा सकते हैं। 

मैं मिली तो वाक़ई उनको लगभग

दूध का धुला पाया। 

वह काफ़ी चिपचिप कर रहे थे। 

उनकी बातें भी काफ़ी चिपचिपी थीं

और कविताएँ तो इतनी कि बस

पूछिए ही मत! 

**

(3 Jun 2025)


Saturday, May 31, 2025

चमकती चीज़ों के युग में एक मृत्यु

 


अपनी मृत्यु के समय तक वह क़रीब-क़रीब

बीते हुए ज़माने के स्मृतिचिह्न बनकर

रह गये थे और शहर के संवेदनशील लोगों को

बीच-बीच में अचानक याद आता था कि अरे! 

अभी वह जीवित हैं! 

उनका इतिहास गौरवशाली कहा जा सकता था

लेकिन वर्तमान में उनकी उपयोगिता के बारे में

ज़्यादातर लोगों को संदेह था

जो ज़्यादातर प्रकट नहीं होता था

सार्वजनिक तौर पर

या छिपा होता था औपचारिक सम्मान-प्रदर्शन

के पुष्पगुच्छों की ढेरी के नीचे। 

उनकी विद्वत्ता पर संदेह करने वाले

या कम से कम उसकी सीमा बताने वाले

तो उनके कुछ समकालीन भी हुआ करते थे

लेकिन उनकी मनुष्यता के सभी क़ायल थे

यहाँ तक कि उनके दुश्मन भी। 

फिर यह समय आया धीरे-धीरे कि

मनुष्यता के साथ विद्वत्ता का संयोग

विरल होता चला गया और लोग यह मानकर

चलने लगे कि जहाँ विद्वत्ता होगी वहाँ दुष्टता

अनिवार्यतः उपस्थित होगी, ख़ास तौर पर 

हिंस्र, दुर्निवार महत्वाकांक्षा की शक़्ल में। 

आश्चर्य था कि कुटिलता, निराशा और

व्यवहारवाद के वर्चस्व के नये युग में भी

वह बरसों जीते रहे एक शापित सा जीवन

और महत्वाकांक्षाओं से चमकती

सोने के सिक्के जैसी आँखों वाले 

प्रभावशाली स्त्री-पुरुष निश्चिन्त थे

कि वह जीवित ही इतिहास बन चुके थे। 

फिर भी इतना तो था कि जिस दिन वह मरे

उस दिन पूरे शहर में उनकी चर्चा हुई 

और लोगों ने कुछ इसतरह की बातें कीं कि

बहुत बढ़िया इंसान थे और विद्वान भी थे

और उनका भी एक ज़माना था 

और वह भी क्या ज़माना था! 

*

हालाँकि उनकी शवयात्रा में श्मशान तक 

कुल तैंतीस लोग ही गये थे

लेकिन यह संख्या गर्मी और लू के मौसम को

देखते हुए सन्तोषजनक कही जा सकती थी। 

श्मशान तक तो गाड़ियों में ही जाना था सबको

और अन्तिम यात्रा में शववाहन में उनके

पार्थिव शरीर  के साथ बैठने के लिए

बस थोड़ी ही धक्कामुक्की हुई। 

जाहिर है कि सफलता उन्हें मिलनी  थी

जो पहले से तैयार थे, 

प्रत्युत्पन्नमति से सम्पन्न थे

और सही समय पर सही कदम उठाने की

योग्यता थी जिनके पास। 

फिर शववाहन से अर्थी उतारकर

कंधे पर उठाने में और आगे-आगे चलने में भी

वे ही आसानी से सफल हुए

जिनके पास योजना थी कि यथासमय

अपने को उनका सुयोग्य उत्तराधिकारी

सिद्ध कर सकें। 

अन्तिम क्रिया सम्पन्न हुई विद्युत शवदाह गृह में

आनन-फानन में। 

कई लोगों ने फेसबुक पर शोक संदेश

भेज दिया था वहीं से माला लदे

पार्थिव शरीर के साथ अपनी तस्वीर लगाते हुए।

अगले दिन शोकसभा में कुल इक्यासी लोग

उपस्थित थे और हर्षदायी होने की हद तक

सन्तोषजनक बात यह थी कि ढाई घण्टे के 

कार्यक्रम के दौरान कोई मजबूरी बताकर

बीच से उठकर जाने वाले सिर्फ़ तेरह थे। 

बाकी बचे अड़सठ लोगों में से

सत्ताइस वक्ता थे जिनके पास

एक से एक मार्मिक यादें थीं

जो दिवंगत से उनकी बेहद क़रीबी दिखलाती थीं। 

इसतरह नये ज़माने से पुराने ज़माने की

विदाई हुई और सभागार से बाहर निकलते हुए

किसी एक ने कहा दूसरे से, "चलिए, इसी बहाने

मिलना तो हो गया आपसे। 

कभी घर आइए न, 

थोड़ी बातें करेंगे तसल्ली से।"

**

(31 May 2025)

Friday, May 30, 2025

स्मृति-शेष : न्गूगी वा थ्योंगो

 


28 मई 2025

महान अफ्रीकी लेखक को याद करते हुए कात्यायनी की टिप्पणी

एक अँधेरे समय में न्गूगी का जाना 

अफ्रीका के महान जनपक्षधर लेखक न्गूगी वा थ्योंगो नहीं रहे। विगत 28 मई को 87 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।

 केन्या में पैदा हुए न्गूगी वा थ्योंगो की रचनात्मक सक्रियता का सुदीर्घ कालखण्ड छः दशकों से भी अधिक लम्बा था। अपने उपन्यासों, नाटकों, कहानियों, निबन्धों और  व्याख्यानों के जरिए न्गूगी ने केन्या में उपनिवेशवाद, नवउपनिवेशवाद तथा खण्डित आज़ादी वाली विकलांग देशी बुर्जुआ जनवादी सत्ता के एक भ्रष्ट निरंकुश बुर्जुआ सत्ता में रूपांतरण और नवउदारवादी दौर की विनाशकारी परिणतियों की एक त्रासद महाकाव्यात्मक गाथा रची जो कमोबेश समूचे अफ्रीकी महाद्वीप की और विशेषकर पूर्वी अफ्रीकी देशों की त्रासदी बयान करती थी। न्गूगी सच्चे अर्थों में चिनुआ अचेबे जैसे महान अफ्रीकी लेखकों की परम्परा को आगे विस्तार देने वाले लेखक थे।

न्गूगी के लेखन की वैचारिकी पर पैट्रिस लुमुम्बा, अमिल्कर कबराल, नेग्रीट्यूड आन्दोलन के प्रवर्तक एमी सेज़ायर और लियोपोल्ड सेंघोर तथा फ्रांज फैनन का काफ़ी हद तक प्रभाव दिखता है। उन्हें आम तौर पर एक मार्क्सवादी ही माना जाता है लेकिन कुल मिलाकर वह एक 'पैनअफ्रीकनिस्ट' क्रान्तिकारी वामपंथी थे। साम्राज्यवाद के राजनीतिक -सांस्कृतिक वर्चस्व के बारे में उनके विचारों पर यहाँ-वहाँ उत्तर-उपनिवेशवाद की वैचारिकी की भी प्रभाव-छायाएँ दिखती हैं लेकिन जैसा कि महान लेखकों के साथ प्रायः होता है, उनके विचारधारात्मक अंतरविरोधों का अतिक्रमण करते हुए उनका लेखन मुख्यतः, अकुण्ठ रूप से न केवल साम्राज्यवाद-विरोधी है, बल्कि उस देशी बुर्जुआ वर्ग की भ्रष्ट और निरंकुश दमनकारी सत्ता का भी विरोध करता है जो स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अपने रैडिकल राष्ट्रवादी चरित्र को त्यागकर कालान्तर में साम्राज्यवादी शक्तियों का 'जूनियर पार्टनर' बन गया था।

न्गूगी ताज़िन्दगी साम्राज्यवाद और पूंँजीवाद के विचारधारात्मक, राजनीतिक और सांस्कृतिक वर्चस्व के विरुद्ध अपनी लेखनी को हथियार बनाकर लड़ते रहे। अफ्रीकी जनसमुदाय के सामाजिक जीवन, संस्कृति और आत्मिक जगत का सजीव परावर्तन हमें उनकी रचनाओं में देखने को मिलता है। और बेशक़, ताज़िन्दगी वह इसकी क़ीमत भी चुकाते रहे। उनकी पूरी ज़िन्दगी जेल, यंत्रणा, निर्वासन की और हत्या तक की कोशिशों से बच निकलने की एक लम्बी कहानी है।

न्गूगी के क्रान्तिकारी यथार्थवाद की कुछ वैसी ही अफ्रीकी देशज विशिष्टताएँ हैं जैसे मारखेज के क्रान्तिकारी यथार्थवाद हमें लातिन अमेरिकी रंग-गंध रचा-बसा नज़र आता है। इतना तय है कि बीसवीं शताब्दी की दुनिया के महान क्रान्तिकारी साहित्य की वैश्विक धरोहर में न्गूगी की उपस्थिति में शायद ही किसी को सन्देह हो।

न्गूगी का पहला बहुचर्चित और पुरस्कृत उपन्यास 'वीप नॉट, चाइल्ड' एक गिकुयू परिवार की कहानी कहता है जो आपातकाल और माउ माउ विद्रोह के दौरान केन्याई स्वाधीनता संग्राम के प्रवाह में शामिल हो जाता है। 1965 में  प्रकाशित उनका दूसरा  उपन्यास 'द रिवर बिटवीन', जो सबसे  पहले लिखा गया था लेकिन प्रकाशित बाद में हुआ, अलग हो जाने वाले एक प्रेमी जोड़े की कहानी बयान करते हुए ईसाइयत और औपनिवेशिक संस्कृति के साथ पारम्परिक जीवन पद्धति और विश्वासों के टकराव का प्रामाणिक  चित्रण प्रस्तुत करता है। 1967 में प्रकाशित 'अ ग्रेन ऑफ़ ह्वीट' कला  की दृष्टि से अपेक्षतया अधिक परिपक्व उपन्यास था जो स्वतंत्रता संघर्ष और उसके बाद के समय के दौरान के विभिन्न सामाजिक, नैतिक और नस्ली मुद्दों पर केन्द्रित था। 1971 में प्रकाशित जिस उपन्यास ने न्गूगी को पश्चिमी साहित्यिक जगत में चर्चा के केन्द्र में ला दिया था, वह था 'पेटल्स ऑफ़ ब्लड'! इस उपन्यास में स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद पूर्वी अफ्रीकी देशों में उभरी सामाजिक और आर्थिक समस्याओं का, विदेशी कम्पनियों द्वारा जारी किसानों और मज़दूरों के शोषण-उत्पीड़न का तथा भ्रष्ट, लोलुप और निरंकुश देशी बुर्जुआ वर्ग का विशद चित्रण प्रस्तुत किया गया है।

न्गूगी का मानना था कि उपनिवेशवादियों ने उपनिवेशों की जनता के मानसिक उपनिवेशन के लिए और अपने विचारधारात्मक -राजनीतिक-सांस्कृतिक वर्चस्व को मजबूत बनाने के लिए भाषा का एक हथियार केवल रूप में इस्तेमाल किया, देशी भाषाओं को पिछड़ा और हीन बताते हुए पराधीनों पर अपनी भाषा को थोपा और उनके बीच से अपने विश्वस्त सहयोगी के रूप में एक मध्यमवर्गीय अभिजन बौद्धिक समाज पैदा किया जो अपने औपनिवेशिक स्वामियों की भाषा पढ़ता-बोलता था और श्रेष्ठता बोध से ग्रस्त रहता था जबकि आम लोग उस भाषा को लेकर हीनता-ग्रंथि से ग्रस्त रहते थे। भाषा के जरिए मानसिक उपनिवेशन की यह प्रक्रिया उत्तर-औपनिवेशिक काल में भी जारी रही और नवउदारवादी भूमण्डलीकरण के वर्तमान दौर में भी जारी है। अधिकांश भूतपूर्व उपनिवेशों में शासन, उच्च शिक्षा, शोध, ज्ञान-विज्ञान की भाषा मुख्यतः पुराने उपनिवेशवादी शासकों की ही भाषा है और यह धारणा जनमानस में आज भी गहराई से पैठी हुई है कि उच्च संस्कृति और चिन्तन तो पश्चिमी देशों की भाषाओं में ही हो सकता है। ऐसे सभी देशों में अभिजन समाज के विशेषाधिकारों को और विशेष सामाजिक हैसियत को सुरक्षित बनाने में यूरोपीय भाषाओं में उनकी शिक्षा -दीक्षा की विशेष भूमिका होती है। न्गूगी ने मानसिक उपनिवेशन की इस सांस्कृतिक समस्या के हर पहलू पर और इसमें भाषा की भूमिका पर लगातार लिखा और विपुल मात्रा में लिखा। आगे चलकर, अपने विश्वास और प्रतिबद्धता को ख़ुद अपने व्यवहार में उतारते हुए अपने रचनात्मक लेखन के माध्यम के तौर पर उन्होंने अंग्रेजी का परित्याग कर दिया और अपनी मातृभाषा गिकुयू में लिखना शुरू कर दिया। अब उनकी रचनाएँ पहले गिकुयू में लिखी जातीं थीं और छपती थीं और फिर उसके बाद अंग्रेज़ी में अनूदित होकर छपतीं थीं।

गिकुयू भाषा में लिखे गये और फिर अंग्रेज़ी में अनूदित होकर छपे अपने उपन्यास 'डेविल ऑन द क्रॉस' (1980) में न्गूगी ने अपने देश-काल के सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ को एक तरह की रूपकीय शैली में, कुछ-कुछ पारम्परिक गाथागीत गायकों की याद दिलाने वाली शैली में, प्रस्तुत किया है । यथार्थ और फंतासी की बुनावट करते हुए इसमें शैतान के साथ उन विभिन्न प्रकार के खलनायकों की मीटिंग का ब्यौरा पेश किया गया है जो ग़रीबों का शोषण करते हैं। 1986 में प्रकाशित  न्गूगी का बहुचर्चित उपन्यास  'मातीगारी' उत्तर-औपनिवेशिक केन्याई  समाज  के पूँजीवाद पर और नये आर्थिक अभिजन समाज में व्याप्त धार्मिक पाखण्ड और भ्रष्टाचार को बेहद तीखे ढंग से निरावृत करता है। । न्गूगी का अंतिम उपन्यास 'विज़र्ड ऑफ़ द क्रो' (2004) उपनिवेशवाद की विरासत को व्यंग्य और फंतासी के दोहरे लेंसों से देखते हुए उसके सारतत्व को उद्घाटित करने की कोशिश करता है। वह इसकी परिणति को केवल देशी बुर्जुआ वर्ग की निरंकुश तानाशाह सत्ता के रूप में ही नहीं देखता बल्कि उस संस्कृति में भी देखता है जिसका आमूलगामी रूपांतरण विऔपनिवेशीकरण के रूप में नहीं हुआ है, बल्कि इस नयी देशी बुर्जुआ संस्कृति में साम्राज्यवादी संस्कृति के तत्वों के अतिरिक्त औपनिवेशिक अतीत के सांस्कृतिक तत्व भी संघटक अवयव के रूप में मौजूद हैं।

न्गूगी ने उपन्यासों के अतिरिक्त कई नाटक भी लिखे और पाठकों में लोकप्रिय होने के साथ ही वे अफ्रीकी देशों के अतिरिक्त यूरोप-अमेरिका में भी मंचित हुए। लेकिन इनके चलते न्गूगी को सत्ताधारियों का कोपभाजन भी होना पड़ा। केन्याई बुर्जुआ समाज के ताकतवर लोगों के जीवन में व्याप्त नैतिक अध:पतन, सांस्कृतिक खोखलेपन, पाखंड और संकीर्णता पर चोट करने वाले नाटक 'आइ विल मैरी ह्वेन आइ वांट' (1977) के मंचन के बाद न्गूगी को बिना किसी मुकदमे के एक साल तक जेल में दिन बिताने पड़े। जेल के इन अनुभवों पर केन्द्रित उनकी पुस्तक 'डिटेन्ड: अ राइटर्स प्रिज़न डायरी' 1981 में प्रकाशित हुई।

साहित्य, संस्कृति, भाषा और राजनीति के विविध प्रश्नों पर न्गूगी ने प्रचुर मात्रा में लिखा और भाषण दिये। इनमें से अधिकांश 'होमकमिंग' (1972), 'राइटर्स इन पॉलिटिक्स' (1981), 'डीकोलोनाइज़िंग द माइण्ड : पॉलिटिक्स ऑफ़ लैंग्वेज इन अफ़्रीकन लिटरेचर' (1986), बैरल ऑफ़ अ पेन'(1983), मूविंग द सेंटर'(1993) और 'पेनप्वाइंट्स, गनप्वाइंट्स एण्ड ड्रीम्स'(1998)

संकलनों में मौजूद हैं।

आज साम्राज्यवाद के नवउदारवादी दौर में हम विश्व  स्तर पर धुर-दक्षिणपंथी और फ़ासिस्ट उभारों के साक्षी हो रहे हैं। ऐसे अंधकारमय दौर में दमनकारी सत्ताओं के विरुद्ध वर्ग संघर्ष के सांस्कृतिक मोर्चे के सिपाही सिर्फ़ वही लेखक और संस्कृतिकर्मी हो सकते हैं जिनमें न्गूगी जैसी समझौताहीनता और साहस हो, जो न्गूगी की तरह ही अपने समाज की नब्ज़ महसूस करते हों और जो न्गूगी की ही तरह सच्चे अर्थों में जनता के आदमी हों। बेशर्म समझौतों, घिनौने दोहरेपन, गलीज कायरता के घटाटोप में कितने कवि-लेखक-संस्कृतिकर्मी हैं जो न्गूगी की तरह जीने और लिखने की कुव्वत रखते हैं?

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