Saturday, August 24, 2024

बैलेंस शीट

 

अधूरे-असफल प्रेमों,

मनगढ़ंत अभियोगों के आधार पर

चलाये गये मुकदमों, 

क़ैद-ए-तनहाई और दण्डद्वीपों पर

निर्वासनों के अंतहीन सिलसिलों, 

अविराम संघर्षों, 

पराजयों, 

विश्वासघातों 

और बीहड़ यात्राओं ने हमें 

मनुष्य बनाने की 

और कविता का मोल बताने की 

भरपूर कोशिश की I

वो तो हम थे 

जो समय से जान-पहचान कर पाने में 

लम्बे समय तक विफल होते रहे I

मिथ्या आत्मतुष्टि, आत्मधर्माभिमान, 

हठ और मूर्खता में 

उसकी पुकारों की 

बार-बार अनसुनी करते रहे I

नतीजतन, 

जो कर्ज़ कभी लिया ही नहीं, 

उसका भी  ब्याज भरते रहे I 

बात द्वंद्ववाद की करते हुए

बार-बार अधिभूतवाद की डगर पर

फिसलते रहे I

ख़ैर, जब होश सँभाला

तो सबकुछ गँवाकर नहीं! 

कुछ तो था बचा हुआ

जहाँ से फिर एक शुरुआत की जा सकती थी I

और तुम क्या करते हो बंधु 

सफलता-असफलता के बारे में, 

खोने और पाने के बारे में, 

फालतू की किताबी बतकही! 

ज़िन्दगी नहीं है 

किसी बनिये की खाताबही! 

***

(24 Aug 2024)


Saturday, August 17, 2024

 रात की बारिश के पोशीदा दुखों का क़सीदा


रात भर की लगातार टिपटिप बारिश के बाद

बादल वापस लौट चुके हैं

धूप के लिए जगह ख़ाली करते हुए। 

*

सारी रात बादल जैसे आँसू बहाते रहे, 

या शायद रात रोती रही, 

या शायद समंदर के आँसू थे

जो लम्बा सफ़र तय करके आये थे

किसी पुराने दुख की याद दिलाने, 

या शायद बर्फ़ीले पहाड़ों की सदियों से जमी

कोई अकथ पीड़ा थी, 

या शायद जंगल की ओझल उदासी थी, 

या शायद हमारे समय की क्रूरताओं पर

इतिहास का लम्बा  विलाप था, 

या शायद बस इतना कि

रात भर आती रही कोई याद थी

या सपने में कोई रुलाई थी

मद्धम बारिश की तरह लगातार

जो नींद से बाहर आकर बरस रही थी। 

*

यह बूढ़ा जामुन का पेड़

पानी और पुरानी यादों से भीगा हुआ

अभी भी चुपचाप रो रहा है। 

पत्तों से टपकती बूँदें

बालों को तर करती पीठ को गीला कर रही हैं। 

यह गीलापन रोम-रोम से होकर

भीतर पहुँच रहा है। 

आत्मा में रिस रहा है कुछ

जैसे चट्टान की दरारों से पानी। 

*

मद्धम रफ़्तार से

लेकिन लगातार

रात भर जो बरसते रहे

वे बादल मेरे हृदय की झील से उठकर

थोड़े न गये थे आसमान तक!

यूँ ही किसी पर इसतरह कोई तोहमत नहीं

मढ़ देना चाहिए बिना किसी सबूत के

बिना किसी गवाह के। 

जिन प्रसंगों पर कोई चुप रहना चाहे, 

उनपर उसकी कविता को भी चुप रहना चाहिए

जैसे कहीं से रिस रहा हो ख़ून लगातार

और बात समाज की न हो, 

तो कविता को न जासूसी-अय्यारी करनी चाहिए, 

न ही मुक़दमा चलाने का काम करना चाहिए।

उसे अपने ज़रूरी कामों पर ध्यान देना चाहिए। 

*

पर कविताएँ कभी भी कवि के बस में 

नहीं रहतीं।

निर्देशों को न मानना उनका सहज स्वभाव होता है। 

ख़ून और आँसुओं की सुराग़रासानी और

निशानदेही करते हुए

अक्सर वे वर्जित इलाकों और गुप्त ठिकानों तक

जा पहुँचती हैं। 

**

(16 Aug 2024)


Wednesday, August 14, 2024

 इतिहास को शरण्य बनाना


जीवित ही क़ब्र में लेट जाने के समान होता है। 

इतिहास से कुछ भी न सीखना

कुछ यूँ होता है जैसे बिना ज़मीन को जाने-पहचाने

बीज छीटे जायें अगली फसल के। 

इतिहास का अंधानुकरण कुछ यूँ होता है

जैसे गड़रिए के बूढ़े कुत्ते के पीछे

चलता है भेड़ों का रेवड़। 

इतिहास से सीखने का मतलब है

बीती हुई चीज़ों को देखना

आलोचनात्मक विवेक के साथ, 

कुछ खोई हुई चीज़ों को 

फिर से पा लेने के लिए उद्यम करना

और उन नयी चीज़ों के बारे में जानना

जिनका आविष्कार किया जाना है। 

इतिहास से सीखना

पूर्वजों के अनुभवों पर

उनके साथ संवाद और बहस करना होता है

ज़रूरी नतीजों तक पहुँचने के लिए। 

यह अपनी सोई हुई जड़ों को

सक्रिय करने के समान होता है

मिट्टी की गहराइयों से पोषक रस सोखकर

ऊपर उठती टहनियों और कोंपलों तक

पहुँचाने के लिए। 

हमारे समय के इस संगीन अँधेरे में

इतिहास से सीखने का मतलब है

उस सवाल का जवाब ढूँढ़ना जो 

सलीब पर लटकाये जाते समय ग़ुलाम डेविड ने

अपने सेनापति और दोस्त स्पार्टाकस से पूछा था:

"स्पार्टाकस, हम क्यों हारे?"

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(13Aug2024)

Friday, August 09, 2024

 बेमतलब की कविता


कभी वह रिसते हुए नासूर की तरह होती है

एक तकलीफ़ जिसके हम आदी हो जाते हैं

कभी एक पुराने ज़ख़्म का निशान भर होती है

कभी ऐसा जैसे कि हम किसी जंगल में भटक गये हों

कभी उदास चाँद की एक भारी सी रात

और एक खुली हुई पुरानी खिड़की

और कभी शताब्दियों पुरानी ह्विस्की

हलक से नीचे उतरती हुई

कभी एक अधूरी कविता जो पूरी न होना चाहती हो

कभी जैसे कहीं दूर सितार पर 

कोई बजा रहा हो राग मधुवंती, 

कभी लम्बे सफ़र के बाद की उतरती हुई थकान

कभी अकारण की ख़ुशी और कभी

जैसे हम जानबूझकर अतार्किक हो जायें

कभी जैसे यूँ ही फूट पड़े रुलाई

कुछ इसतरह जैसे एक सोता फूट निकला हो

चट्टानों के बीच से

और कई बार तो ऐसा भी जैसे 

शहर की सुनसान सड़क पर भाग रहे हों

और कलेजे में धँसी पड़ी हो

नक़्क़ाशीदार मूठ वाली कोई टेढ़ी कटारी

कभी ऐसी ही बेमतलब की बातें

जैसी अभी हम कर रहे हैं

लेकिन ऐसी ही बेमतलब की बातों के जरिए

कई बार हृदय के कई गुप्त रहस्य

उजागर हो जाते हैं और कम से कम

कुछ लोग तो इस सोच में पड़ ही जाते हैं

कि कब उन्होंने कुछ बीत चुकी चीज़ों के बारे में

मसलन बीते दिनों के प्यार के बारे में

कुछ-कुछ इसतरह से सोचा था

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(8Aug2024)


Tuesday, August 06, 2024

ये प्रोफेसर टाइप बौद्धिक जंतु अक्सर ऐसे क्यों होते हैं? सोचा है कभी?

 

भारत के उच्च शिक्षा संस्थान मूलतः और मुख्यतः अकादमीशियनों (इनमें साहित्य, समाज विज्ञान और प्रकृति विज्ञान -- तीनों क्षेत्रों के लोग शामिल हैं) को समाज-विमुख, कूपमंडूक, ऐंठी गर्दनों वाले घमण्डी, नौकरशाह प्रवृत्ति वाला, ग़ैर-जनवादी, कायर, सुविधाभोगी, क्रूर और निर्लज्ज कैरियरवादी और सत्ताधर्मी बनाते हैं। 

अगर कोई ऐसा नहीं है तो एक विरल अपवाद है। इसमें व्यक्तिगत रूप से किसी का दोष नहीं है। शिक्षा तंत्र संस्कृति और संचार के तंत्र के अतिरिक्त, आज्ञाकारी नागरिक पैदा करने वाला सबसे महत्वपूर्ण 'आइडियोलॉजिकल स्टेट ऑपरेटस' है। छात्र के रूप में ऐसा आज्ञाकारी, अनुशासित नागरिक पैदा करने वाले शिक्षक इसकी रीढ़ हैं। इनपर निगाह रखने और स्वयं इनके बीच के बेकाबू तत्वों पर चौकसी और नियंत्रण बरतने के लिए शिक्षा क्षेत्र की बेहद घाघ और दूरदर्शी किस्म की नौकरशाही होती है। 

चूँकि यहाँ मामला ज्ञान-विज्ञान और युवाओं और बौद्धिकों का होता है, इसलिए यहाँ ज़ोर-ज़बरदस्ती का इस्तेमाल सापेक्षत: कम होता है और मानसिक अनुकूलन का काम बौद्धिक हेजेमनी के सूक्ष्म हथकंडों के द्वारा किया जाता है। यहाँ अभिव्यक्ति की सीमित आज़ादी भी दी जाती है, कैम्पस में धन और बल के बूते चलने वाली नंगी बुर्जुआ  राजनीति के साथ-साथ सोशल डेमोक्रेटिक और बुर्जुआ लिबरल छद्म प्रगतिशीलता को भी पर्याप्त स्पेस दिया जाता है हालाँकि पश्चिमी देशों जितना नहीं। जिन साम्राज्यवादी देशों के पास पूँजी की अकूत ताक़त है वहाँ की राज्य सत्ताओं के पास कैम्पस और समाज में "अराजक" स्थितियों और आंदोलनों से निपटने की क्षमता भी बहुत अधिक है, इसलिए जनवाद और छद्म प्रगतिशील सुधारवाद की अधिक मात्रा जनसमुदाय और छात्रों-युवाओं को दे पाना साम्राज्यवादी देशों के शासक वर्गों के लिए अधिक 'अफोर्डेबल' है लेकिन तभी तक, जबतक व्यवस्था का कोई गंभीर आर्थिक संकट न पैदा हो जाये या/और उत्पादन और शासन के सुचारु संचालन में बाधा पैदा करने वाली कोई गंभीर अशांति जुझारू आन्दोलन की शक़्ल न अख़्तियार कर ले। पूरी बीसवीं शताब्दी का इतिहास ही अगर देख लें तो अमेरिकी और यूरोपीय शासक वर्गों द्वारा अपनी ही जनता, विशेषकर मज़दूरों और फिर रेडिकल छात्रों-युवाओं के बर्बर दमन के पचासों उदाहरण देखने को मिल जायेंगे। लेकिन कैम्पसों के बुद्धिजीवियों पर तब भी वे बहुत सीमित और बहुत सम्हल कर हाथ डालते हैं। 

भारत और भारत जैसे पिछड़े पूँजीवादी देशों की स्थिति काफ़ी भिन्न है। यहाँ किसी सम्मानित बौद्धिक को न केवल विश्वविद्यालय और शोध संस्थानो की नौकरशाही मानसिक यंत्रणा और अपमान के द्वारा पागल बना सकती है, बल्कि सत्ता सीधे उसके ऊपर देशद्रोह का मुकदमा चला सकती है और जेलों में सड़ा सकती है। यह स्थिति तो पहले भी थी लेकिन हिंदुत्ववादी फासिस्टों ने सत्ता में आने के बाद इसे पचास गुना बढ़ा दिया है। किसी भी बुद्धिजीवी या प्रोफेसर या वैज्ञानिक को 'अर्बन नक्सल' या देशद्रोही बताकर सालों बिना मुकदमा चलाये जेल में सड़ाना, उनके घरों पर बजरंग दली टाइप फासिस्ट दस्तों का हमला, गोदी मीडिया के जरिए पूरे देश के सामने उन्हें खलनायक या ख़ूँख्वार आतंकी तक सिद्ध कर देना आज आम बात है। 

ऐसे में विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों के प्रोफेसर और वैज्ञानिक, जो आम मध्यवर्गीय नागरिक की तुलना में भी काफ़ी सुविधाजनक जीवन जीने लायक़ पगार उठाता है, वह आसानी से सोच लेता है कि अपने परिवार को, जीवन को और सुविधाओं को जोखिम में डालने वाले पचड़ों में वह भला क्यों पड़े! और अपनी इस ग़लीज़ कायरता भरे स्वार्थ के लिए वह काफ़ी तर्क दे लेता है जिनमें से कुछ निहायत भोंड़े तो कुछ अत्यंत विद्वत्तापूर्ण और अमूर्त हुआ करते हैं। 

इन बौद्धिकों की नीचतापूर्ण कायरता के पीछे एक तो सापेक्षत: सुविधापूर्ण जीवन की आदत की ग़ुलामी होती है, दूसरे  इसी जीवन से  पैदा हुआ उनका अपना अलगाव (एलियनेशन) और उस अलगाव से पैदा हुआ भय का मनोविज्ञान होता है। एक तीसरी बात भी है। उत्तर-औपनिवेशिक भारतीय समाज  के सामाजिक-सांस्कृतिक तानाबाना में जनवाद के तत्व इतने कम हैं और बौद्धिक समाज के निचले संस्तरों की भी आम जनों से दूरी इतनी अधिक है कि किसी बुद्धिजीवी पर यदि सत्ता का दमन हो तो कुछ बुद्धिजीवी ही सिर्फ़ बौद्धिक मंचों, सोशल मीडिया या जंतरमंतर जैसी जगहों पर आवाज़ उठायेंगे, आम लोगों में लगभग कोई सुगबुगाहट तक नहीं होगी। इसके अपवाद भी इसी नतीजे को पुष्ट करते हैं।

 बौद्धिक समाज के जो लोग जनता के जीवन और संघर्षों से जुड़े, उनके लिए एकदम आम लोग भी सड़कों पर उतरे और जुझारू ढंग से लड़े। 

इन बौद्धिकों के लिए सबसे आसान तो यही है कि जनसमुदाय में जनवादी चेतना के अभाव और भारतीय समाज के तानाबाना में ऐतिहासिक कारणों से जनवाद की कमी का हवाला देकर स्वयं अपनी स्वार्थपूर्ण कायरता को छुपा ले जायें। लेकिन यह सवाल तो फिर भी पीछा करता रहेगा कि इतिहास-प्रदत्त स्थितियों को नियतिवादी ढंग से स्वीकार कर मजा मारते रहने की जगह स्थितियों को बदलने के लिए सचेतन तौर पर आपने क्या किया? जाति, जेंडर के सवाल, काले क़ानूनों या सत्ता के उत्पीड़न की किसी भी कार्रवाई के ख़िलाफ़ क्या किसी जुझारू आन्दोलन में आप सड़क पर उतरे? क्या आपने कभी राष्ट्रीय आंदोलन के दौर की तरह जेल जाने, लाठियाँ खाने और नौकरी को दाँव पर लगाने का जोखिम मोल लिया? लिया, लेकिन बहुत कम लोगों ने लिया। 

इसीलिए हम बार-बार कहते हैं कि राष्ट्रीय मुक्ति और जनवादी क्रांति के ऐतिहासिक कार्यभारों के, क्रमिक प्रक्रिया में, अधूरे और विकृत-विकलांग ढंग से ही सही, लेकिन मूलतः और मुख्यतः पूरा होने के बाद, भारतीय मध्यवर्ग की ऊपरी और मँझोली परतें (मुख्यतः बौद्धिक समाज) अब आम मेहनतकश जनों का पक्ष छोड़ चुकीं हैं, उनके साथ ऐतिहासिक विश्वासघात कर चुकी हैं और उच्च सुविधाप्राप्त, विशिष्ट 'अल्पसंख्यक उपभोक्ता समाज' का हिस्सा बन चुकी हैं। इस कमीने समुदाय से न तो जाति और जेंडर के प्रश्न पर किसी जुझारू सामाजिक आंदोलन में ईमानदार भागीदारी की उम्मीद की जा सकती है, न ही यह कल्पना की जा सकती है कि ये लोग साम्राज्यवाद, देशी पूँजीवाद और विशेषकर फासिज्म के विरुद्ध नये मुक्ति संघर्ष के किसी दीर्घकालिक प्रोजेक्ट के हिस्सेदार बनेंगे। इनमें से कुछ लोग यह हिम्मत जुटा सकते हैं, लेकिन उनकी संख्या बहुत कम होगी। ऐतिहासिक महासंघर्ष के नये दौर में आम मेहनतकश जनता अपने नये 'ऑर्गेनिक बुद्धिजीवी' भी ख़ुद पैदा करेगी। इसका मतलब यह कतई नहीं कि यह काम एकदम अपने आप, स्वयंस्फूर्त ढंग से होगा। 

इसके लिए सामाजिक आन्दोलनों को प्रमुखता से एजेण्डा पर लेना होगा, शिक्षा और संस्कृति की नयी वैकल्पिक संस्थाएँ तृणमूल स्तर से खड़ी करनी होंगी, अपने वैकल्पिक मीडिया का तानाबाना खड़ा करना होगा और बिखर चुके जनवादी अधिकार आन्दोलन को भी रस्मी और प्रतीकात्मक बौद्धिक-वैधिक चौहद्दियों से बाहर निकाल कर व्यापक जनाधार पर, यानी व्यापक जनआंदोलन के तौर पर खड़ा करना होगा। 

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(5Aug.2024)


Monday, August 05, 2024

 गुप्त मानवीय रहस्यों, कमज़ोरियों, सच्चाई भरे दिलों, इन्तज़ारों, रोमानी बुखारों, यथार्थवादी मोहब्बतों और कठिनतम दिनों के कम्युनिस्ट संकल्पों  वगैरह के बारे में बतकही


जब पहली बार 

किसी तज़ुर्बेकार साथी ने मुझे बताया 

कि चीज़ों को, लोगों को, हालात को

देखा जाना चाहिए

गहराई, बारीकी और सरोकार के साथ, 

और तार्किकता के साथ, 

तो मैंने उसे देखा लम्बे समय तक

उसीतरह, 

गहराई, बारीकी, सरोकार और तार्किकता के साथ

और फिर मैंने उसे प्यार करने के बारे में सोचा

जो शायद एक तार्किक नतीजा नहीं था। 

फिर मैंने दुनिया को, 

अपने लोगों की ज़िन्दगी को भी देखना सीखा

उसी गहराई, सरोकार और तार्किकता के साथ,

और इतिहास के गहराते अँधेरे को भी। 

धीरे-धीरे जाना कि प्यार करना, यानी

अतार्किकता के किसी न किसी भूभाग पर

हर रोज़ तर्क के फौजी दस्तों का

क़ाबिज़ होते जाना और फिर भी अतार्किकता के

एक बड़े भूभाग का बचा रह जाना। 

यथार्थ को उद्घाटित करती और साथ ही

 उससे लगातार टकराती कला को

जितने झूठ की ज़रूरत होती है

ठीक उतनी ही ज़रूरत प्यार को भी होती है

वरना चीज़ें और हालात जैसे हुआ करते हैं

उन्हें हूबहू कह देने से

न तो कोई कविता बन पाती है

और न किसी हृदय में छुपे प्यार का कोई ऐसा बयान

जो किसी आदिवासी शिकारी के तीर की तरह

दूसरे हृदय में इसतरह धँस जाये कि

उसकी ज़हर बुझी नोंक उसमें से कभी

बाहर न निकल पाये

और ताउम्र इसतरह तकलीफ़ देती रहे

कि आदत बन जाये। 

इन तज़ुर्बात-ओ-हवादिस ने सिखाया

प्यार को तर्कपूर्ण बनाते जाने का सलीक़ा

और जब दरबदर होते लोगों के साथ 

भटकती रही मैं बस्ती-बस्ती, शहर-शहर

तो आवारा और संजीदा ख़यालों का कारवाँ भी न जाने कितने

मुसीबतों से दो-चार होता हुआ 

साथ-साथ चलता रहा। 

अब शायद मैं भी कह सकती हूँ कि

फ़ासिस्टी उभार के दशकों में, 

जब फुर्सत के रात-दिन ढूँढ़ने के बारे में

सोचा तक नहीं जा सकता था, 

तब ब्रेष्ट की तरह जूतों से भी अधिक 

शहर भले न बदले हों मैंने लेकिन

उम्र और भूगोल का एक लम्बा बीहड़ फ़ासला

ज़रूर तय किया। 

जाहिर सी बात है कि आज जैसे दिनों में, 

चंद दिनों के ठिकानों, छोटी दूरियों के

हमसफ़रों, खेतों के बीच से

होकर जाते रास्तों, पहाड़ी पगडंडियों, 

जंगल के बीचोबीच की प्रशांत रहस्यमयी झीलों, 

किसी अनजान पक्षी की आतुर पुकारों, 

रात के दुखों, भावनात्मक विभ्रमों और

आकस्मिक-अप्रत्याशित, निर्दोष बेवफ़ाइयों के बारे में तो

कुछ कहना ही निरर्थक है, 

एक ऐसे समय में जब कविताओं के लिए

लोगों ने दिलों के दरवाज़े बंद कर रखे हैं

और कविगण उज्ज्वल अथाह प्यार भरी कविताएँ

इसलिए लिखते हैं कि दुनिया बदलने के बारे में

सोचना भी उन्हें एक असम्भव स्वप्न देखने जैसा

महापागलपन लगता है। 

ऐसे ठहरे हुए दिनों में अगर किसी के लिए

प्यार एक इंतज़ार बना रहा

स्थायी भाव की तरह

जैसे सपने हो गये अश्मीभूत, 

तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है

किसी यायावर के लिए। 

पहाड़ पर वह लालटेन अब

जलती नहीं दिखाई देती

जिसे मंगलेश डबराल ने देखा था

एक तेज़ आँख की तरह

टिमटिमाती धीरे-धीरे आग बनती हुई, 

लेकिन जंगलों में आग

पहले से अधिक लगने लगी है

पहाड़ों से लेकर मैदानों और पठारों तक

और यह राज़ भी कितने लोग जानते हैं

कि ऐसे असंख्य दिल हैं जहाँ

प्यार की या बग़ावत की आग अहर्निश

चुपचाप जलती रहती है, 

कलावादी उत्सवधर्मी कवियों के लिए

सर्वथा अविश्वसनीय। 

सच्ची मानवीय कविताओं के लिए

इस नये शीतयुग में गरमी

वहीं से मिलती रहती है

और पुराने जीवाश्मों के जीन्स की पहचान में

अश्मीभूत पुरातन प्रेम के पुनर्जीवन की

उम्मीदें भी बनी रहती हैं

जो साकार न भी हों तो कविता को

स्मृतियों से ऊर्जा देती रहती हैं। 

और प्यार का क्या, वह तो कहीं भी, कभी भी

आ धमकता है कम्बख़्त

युद्ध के ऐन बीचोबीच भी

या फाँसी दिये जाने से तीन दिनों पहले भी

या उम्र के किसी भी मुकाम पर

या किसी भी बीहड़ चढ़ान या ढलान पर

और अगर ऐसा नहीं भी होता है तो कम से कम

एक सस्पेंस तो बना ही रहता है

और उम्मीदें फुरसत के लमहों में

थोड़ी धमाचौकड़ी तो मचाती ही रहती हैं। 

इन चीज़ों की कोई उम्र थोड़े ही हुआ करती है! 

और प्यार कोई हार-जीत का खेल

थोड़े न हुआ करता है! 

**

(4 Aug 2024)

Friday, August 02, 2024

 रहस्योद्घाटन


जब बुराइयों की बारिश हो रही थी लगातार

और रह-रहकर यहाँ-वहाँ

क्रूरता के बादल फट रहे थे

सबकुछ तहस-नहस करते हुए, 

वह मनुष्यता के भविष्य और

सुन्दरता की गरिमा और

प्यार की चाहत की अनश्वरता के बारे में

अद्भुत कविताएँ लिख रहा था। 

कुछ कवि भी मारे गये

जब आम लोगों की हत्याएँ

आम बात हो चुकी थीं। 

इन हालात को उसने बेहद दुखद बताया

और कवियों को अराजनीतिक होने

और मनुष्यता से प्रेम करने की सलाह दी। 

लम्बा सुरक्षित और यशस्वी जीवन जीने के बाद

मरते समय वह सोच रहा था कि

उसकी कविताएँ ही याद रखी जायेंगी

और उसके राज़ हमेशा राज़ ही रहेंगे। 

तभी डाकिया पार्सल का एक पैकेट लेकर आया

जिसमें ख़ून के सूखे धब्बों वाली कमीज़ें थीं, 

दस्तानों की एक जोड़ी, एक खंज़र

और क्लोरोफॉर्म की एक शीशी

और कुछ दूसरी चीज़ें थीं

कविता की किताबों के साथ-साथ। 

धरती से एक कवि की सुखद विदाई को

बेहद यंत्रणादायी बनाने के बाद

झुर्रियों से भरे, संत सरीखे

मृदुल चेहरे वाले उस डाकिये ने

पापों को स्वीकारने वाले किसी

मृत्युपूर्व बयान का मौक़ा तक नहीं दिया। 

देखते ही देखते वह एक विशाल 

पौराणिक पक्षी में बदल गया और

अपने पंखों को फड़फड़ाते हुए

खुली खिड़की से बाहर उड़ गया

कवि को उसके गुप्त अपराधों के 

पुख़्ता सबूतों के साथ

मरता हुआ, अकेला छोड़कर। 

**

(1 Aug 2024)


Tuesday, July 30, 2024

 बुरे दिनों के अच्छे वक़्तों का क़सीदा


घाटी बादलों से भर गयी है

जैसे दुनिया के तमाम दुखों को

नज़रों से ओझल करती हुई, 

कुछ देर के लिए ही सही। 

बारिश घनघोर रोर मचाती हुई

जैसे सारी मानवद्रोही गंद को 

बहा ले जाना चाहती है। 

बरामदे में बैठे हम पी रहे हैं

कश्मीरी कहवा एक कृपालु कवि मित्र के

सौजन्य से हासिल। 

अपूर्व बारिश में भीगते हुए लाये हैं

बड़े का कबाब जिसे हम सभी पापी गण

खा रहे हैं कहवा पीते हुए। 

अभी मुकेश कुल्फ़ी लाने वाले हैं

साथियों की ख़ातिर

बारिश की परवाह न करते हुए। 

इतने बुरे दिनों में भी हमने

सुख के कुछ लमहे हासिल कर लिए हैं। 

किशोरी अमोनकर गा रही हैं मेघ मल्हार। 

पानी की बूँदें मधुमालती के पुष्प गुच्छों से

छेड़खानी कर रही हैं।

हत्या और आतंक का मौसम अगर

बहुत दिनों तक जारी रहना हो

तो ऐसे अल्पविराम भी पर्याप्त

सुखदायी लगते हैं और याद दिलाते हैं

कि हमारी ज़िन्दादिली अभी ज़िन्दा है

और तमाम परेशानियों, तनावों, उदासियों के बीच, 

तमाम पाखण्डों, क्षुद्रताओं और क्रूरताओं के बीच, 

कभी-कभी, कुछ देर के लिए ही सही, 

ख़ुश हो लेना हम अभी भूले नहीं हैं। 

**

(29 july 2024)


Sunday, July 28, 2024

रोशनाबाद कविता-श्रृंखला

 

मक्खियाँ

कप्तान साहब के बंगले के सामने के

पार्क में घंटों क्यारियों की 

निराई-गुड़ाई करने के बाद

जामुन के बूढ़े पेड़ के नीचे

एक बेंच पर सो रहा है

तपेदिक की मार से

वक़्त से पहले ही बूढ़ा हो चुका

तपेसर माली

गमछे से लगातार मक्खियों को उड़ाते हुए। 

बचपन में ही घर से भागे बेटे की शक़्ल

अब धुँधली सी ही याद आती है, 

लेकिन अभी भी कई बार भूल जाता है

कि पिछले महीने घरवाली संतो

अचानक एक रात चल बसी

किसी अनजान बीमारी से। 

शाम को घर लौटकर कई बार बेख़याली में

जब संतो को आवाज़ देने लगता है

तो पास-पड़ोस वाले आपस में इशारे से

कहते हैं कि तपेसर का माथा 

फिरता जा रहा है। 

तपेसर पार्क की बेंच पर 

अभी सिर्फ़ चैन की एक नींद के बारे में

सोच रहा है और मक्खियांँ उसे फ़िलहाल

ज़िन्दगी की सबसे बड़ी समस्या लग रही हैं। 

नींद को मौत जैसी होनी चाहिए

कि मक्खियाँ तंग न कर सकें, 

तपेसर ने सोचा। 

फिर उसने सोचा कि कितने काम

अभी बाक़ी पड़े हैं

और ठेकेदार के पास कितने पैसे

अभी बकाया हैं

और मौत के बाद तो कुछ भी कर पाना

नहीं हो सकेगा। 

मौत न आये और नींद

मौत जैसी आये

ऐसा पत्नी की मौत के बाद

कई दिनों तक जागते हुए

उसने सोचा था। 

इस गर्म दुपहरी में

मक्खियों को झेलते हुए

झपकी तो ली ही जा सकती है

मौत जैसी नींद का ख़याल छोड़कर, 

सोचता है तपेसर और गमछे को

और तेजी के साथ घुमाने लगता है। 

**

(27july2024)

Saturday, July 27, 2024

बेगम ज़लज़ला आफ़तुद्दौला

 कल जब बेगम साहिबा (यानी बेगम ज़लज़ला आफ़तुद्दौला) के घर पहुँची तो वो हिन्दी के एक प्रोफे़सर से मिलकर लौटी थीं। जाना किसी और के काम से ही हुआ था और बहुत मजबूरन ही हुआ था वरना तो बेगम साहिबा दावतनामा पाने के बावजूद  वज़ीरे-आज़म की दहलीज़ तक पर  कदम न रखें। 

मैंने पूछा, "कैसी रही?"

बेगम ने फ़रमाया:

"उड़ने के पंख बेच कर दीमक लिए ख़रीद

प्रोफ़ेसरी के साथ बस कमीनगी रही।" 

(चलते-चलते बता दूँ कि बेगम ज़लज़ला इनदिनों हिन्दी के अज़ीमतरीन जदीद शायर मुक्तिबोध के अफ़साने पढ़ रही हैं) 

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Friday, July 26, 2024

 

सारी कथाएँ तो फिर भी नहीं कही जातीं


इतना अधिक आशावादी क्या होना

कि निराशाएँ कभी पास फटकें ही नहीं

और उदास हवाएँ  आसपास से होकर

गुज़रने से सहम जायें। 

आशा की ऐसी अलौकिक आभा लेकर भी

कोई क्या करेगा कि कोई दुखी उदास हृदय

ख़ुद को उसके सामने खोलकर रख देने में

सकुचा जाये। 

जैसे कि इतना उबाऊ उल्लास लेकर भी

भला क्या करेंगे कि

अल्कोहल सने समवेत ठहाकों के बिना

शामें सूनी-सूनी सी लगने लगें। 

*

आशावादी भाषण तब सबसे अधिक

खोखले और बनावटी लगते हैं

जब कुछ न कहने की ज़रूरत हो, 

या हिचकता हुआ पास सरक आया हाथ

महज़ एक स्पर्श की माँग कर रहा हो। 

गिरजाघर की वेदी पर जलती मोमबत्तियाँ

जितनी भी जगमग करती हों, 

हर अगले दिन बुझी हुई मोमबत्तियों के झुण्ड से

अधिक उदास करने वाले दृश्य 

बहुत कम होते हैं। 

*

जीवन और भविष्य का आशावादी सिनेमा

पुदोव्किन के 'लिंकेज मोंताज' की तरह नहीं, 

बल्कि आइजेंस्ताइन के 'कोलीज़न मोंताज' 

की तरह होता है। 

लेकिन सिर्फ़ इतना ही नहीं, उसमें

ज़रूरी होते हैं बहुत सारे मौन अन्तराल

और मद्धम गतियों के दृश्य

एक विशाल भूदृश्य के बीच, 

विरुद्धों की एकता और टकराव को साधते हुए, 

हो सके तो बीथोवेन का भी

अतिक्रमण करते हुए और 

उपमाओं और प्रतीकों की 

भोड़ी स्थूलताओं के साथ-साथ

'लिरिकल' होने के अतिरेक से भी बचते हुए। 

भले ही ऐसा युगों बाद होता हो लेकिन कईबार

प्रत्यक्ष कथनों से दुनिया की सबसे मार्मिक और

गहरी कविताएँ बन जाया करती हैं

हालाँकि यह भी सच है कि पारदर्शिता के 

विश्वसनीय आकर्षण के बावजूद

कविता में पारभासिता का रहस्य ही

हमें खींचता है और अज्ञात प्रदेशों की

यात्रा के लिए उकसाता है। 

*

जीवन में अगर थोड़ी कविता हो द्वंद्वात्मक,

तो मायूसियों और उम्मीदों का टकराव

उन्नत धरातल की नयी काव्यात्मक और

दार्शनिक उम्मीदों को जन्म देता है

सच्ची कला और सच्चे जीवन में। 

लेकिन कई बार ऐसा नहीं भी होता है

जैसे मानव इतिहास में भी प्रतिक्रियावादी

उत्क्रमण हुआ करते हैं

अल्पकालिक या दीर्घकालिक, 

भले ही हमेशा के लिए नहीं। 

*

अपने दुखों पर हमेशा बह निकलने को तैयार

और शोकसभाओं में सप्रयास बहाये जाने वाले

आँसुओं जितनी कुरूप और डरावनी चीज़ें

दुनिया में बहुत कम ही पायी जाती हैं। 

दुनिया के सबसे अच्छे, मज़बूत और सुन्दर 

लोगों की आँखों में सिर्फ़ जीवन और

कथाओं के मार्मिक प्रसंगों पर, 

या किसी बच्चे की किसी मामूली सी चिन्ता

या मामूली से दुख पर आँसू 

छलकते देखे गये है। 

ऐसे लोग ही या तो दिल की अतल गहराइयों से

प्यार करते हैं, 

या प्यार में सबसे अधिक दुख उठाते हैं, 

या वांछित प्यार की प्रतीक्षा और खोज में

पूरा जीवन बिता देते हैं। 

कुछ जीवन तो ऐसे होते ही हैं

जिनके नाट्य में ग्रीक त्रासदियाँ ख़ुद को

नये अवतार में ढालती हैं

कुण्डलाकार रास्ते से यात्रा करके

नये युग में पहुँचने के बाद। 

वरना  हेगेल बाबा की बात में से 

अगर बात निकालें तो

इतिहास में उदात्तता भी अगर दुहराई जाये

तो वह प्रहसन ही होगी। 

*

और जहाँ तक आँसुओं के छलकने के

कतिपय गम्भीर प्रसंगों की बात है, 

उन सबके पीछे कुछ गहन-गोपन कथाएँ होती हैं

जो कभी प्रकाश में नहीं आतीं। 

सारी कथाएँ तो कभी नहीं कही जाती हैं। 

**

-- शशि प्रकाश

Friday, July 19, 2024

कविता-रहस्य

 

कविता-रहस्य

जिन दिनों चीज़ों को

अविश्वसनीय हदों तक ज़ोर देते हुए, 

या फिर अलौकिक चमत्कार जैसी

कलात्मकता के साथ

लगातार दुहराया जा रहा था

तब किसी सफ़र में 

कुछ दिनों तक साथ चलने वाले

एक यायावर दार्शनिक-कवि ने 

मुझे बताया कि

कविता के सारे चमत्कार बेकार हैं

अगर वे चीज़ों को 

विश्वसनीय नहीं बनाते। 

सबसे कठिन है

सीधे-सादे शब्दों में

सच को बयान कर देना

और एक अच्छी कविता की 

सबसे बुनियादी शर्त भी यही है। 

बहुत सारे अलंकरण और चमत्कार

कविता को अति समृद्धि-प्रदर्शन करने वाले

धनाढ्यों जैसे कुरुचिपूर्ण और जुगुप्सा भरा

दिखाते हैं। 

तजुर्बेकार लोग बताते हैं कि सीधी लगने वाली

दुनिया की मशहूर कविताओं के गलियारों के

मोखों और आलों में, दीवारों में बनी आलमारियों में, 

टाँड़ पर और भुईंजबरा कमरों में, 

हाँड़ियों, पोटलियों, पेटियों और बटुओं में

जीने और मरने के,  प्यार के, सपने देखने के, 

फंतासियाँ रचने के, आज़ादी और इंसाफ़ के लिए

लड़ने के, आसमान की ऊँचाइयों में उड़ते हुए

अदृश्य हो जाने के इतने नुस्खे और

दुनिया और दिलों की दुर्गमतम रहस्यमयी

यात्राओं के इतने मानचित्र छुपाकर रखे गये हैं

जिन्हें खोजने की खब्त में 

पारदर्शी दिलों वाले कवि

और सिरफिरे पाठकों की दुर्लभ प्रजातियाँ

अपनी सारी ज़िन्दगी तबाह कर लेती हैं। 

आलोचक तो बिरले ही इन बीहड़ इलाकों में आते हैं। 

वे सयानों से पूछकर, शब्दों की दीवारों को

टटोलकर और आसपास रेवड़ चराते

कुछ गड़रियों और कुछ ओझाओं-गुनियों से

पूछकर महान या महत्वपूर्ण कविताओं का

मानचित्र तैयार करते हैं और

सत्तर फीसदी मामलों में जेनुइन, सजल-उर, 

विवेकक्षम पाठकों को

बरगलाने-भटकाने का काम किया करते हैं। 

यायावर दार्शनिक कवि मित्र ने बताया कि

जब कविताओं के दिन वापस लौटेंगे तो

भविष्यफल और मकानों का वास्तु बताने वालों को, 

अस्सी फीसदी प्रोफेसरों और नब्बे प्रतिशत

हिन्दी के आलोचकों को और ख़ुद अपनी ही

बात न समझने वाले सभी दार्शनिकों को

गोदामों में अनाज फटकने, नदी या समंदर किनारे

मछुआरों के जाल सुलझाने, 

हॉस्टलों के मेस के भंडार घर में 

सामानों का  हिसाब रखने या

गोदामों में स्टॉक चेकिंग करने

जैसे कुछ आरामदेह लेकिन समाजोपयोगी

काम सौंप देने होंगे जबतक कि ऐसे लोग

पुरानी सीखी हुई चीज़ों को भूलकर

नयी चीज़ें सीखने के लायक न बन जायें

और कम से कम पचास प्रतिशत कवि और आलोचक इस बात को समझने लगें कि

कविता लिखने और उसकी आलोचना का काम

ईमानदारी और वस्तुपरकता के साथ सिर्फ़

वही कर सकते हैं जो जीवन में सच और

इंसाफ़ के लिए आम लोगों के साथ

खड़े हो सकते हैं, 

उसकी हर क़ीमत चुका सकते हैं

और समान तल्लीनता और निष्ठा से

मूर्त   जीवन और अमूर्त सिद्धान्तों की

जटिलताओं और गहराइयों में

प्रवेश कर सकते हों। 

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(19 Jul 2024)

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Wednesday, July 17, 2024

ग़ज़्ज़ा में नींद

 

ग़ज़्ज़ा में नींद

फ़ादो, औरों की तरह नींद मुझे भी आ ही जाएगी 

इस गोलाबारी के दरमियान

आसमान जो कि अब ज़िन्दा गोश्त का लोथड़ा है

मैं ख़ाब देखूँगा जैसे और देखते हैं

बरसते गोलों के बीच — सपने में मुझे दिखेंगी दग़ाबाज़ियाँ

मैं दोपहर जाग के रेडियो से पूछूँगा 

वही सवाल जो सब पूछते हैं —

क्या गोलाबारी बंद हुई?

कितने मरे?

लेकिन मेरी परेशानी, फ़ादो, यह है कि

कि दो तरह के होते हैं लोग —

वे जो अपनी तकलीफ़ें और गुनाह

गली में फेंक आते हैं ताकि वे ख़ुद सो सकें

और वे लोग जो दूसरों की तकलीफ़ें और गुनाह इकट्ठा करके

सलीबों में ढालते हैं, और उन्हें लेकर चलते हैं जुलूस में

बाबीलोन, ग़ज़्ज़ा और बेरूत की सड़कों पर

रोते हुए

अब कितने और बाक़ी हैं?

अब कितने और बाक़ी हैं?

दो साल पहले मैं दक्षिणी बेरूत में

दाहिया की सड़कों से गुज़रा था

ध्वस्त इमारतों जितनी बड़ी 

सलीब को घसीटता

पर कौन यरूशलम में एक क्लांत मनुष्य की पीठ से

उतारेगा सलीब को?

यह धरती बस तीन कीलों में बदल गई है

और दया एक हथौड़े में

करो वार, प्रभु

करो हवाई हमला

अब कितने और बाक़ी हैं?

---- नजवान दरवीश

(अनुवाद - असद ज़ैदी; अरबी से करीम जेम्स अबू-ज़ैद के अंग्रेज़ी अनुवाद पर आधारित)


Friday, July 12, 2024

कुल जमा हासिल में से कुछ चीज़ें

 

कुल जमा हासिल में से कुछ चीज़ें

पहली चोट सबसे अधिक गहरी थी

जिसके बाद मैंने खो दी किसी हद तक

अपने हृदय की करुणा और दयालुता

और तरलता। 

और फिर चोट खाने के कई चक्रों में

मैं इन चीज़ों को खोती रही क़तरा-क़तरा। 

एक दिन मुझे एक यायावर दार्शनिक-कवि ने 

बताया कि अच्छे और गर्म ख़ूबसूरत दिलों को

गहरी से गहरी चोट खाकर 

कविता की गहराई हासिल करनी होती है

और दुनिया के सबसे मामूली और सबसे 

तकलीफ़ज़दा लोगों के सपनों को 

शब्द देना होता है। 

फिर मैंने अपने हृदय की खोई हुई करुणा 

और दयालुता और तरलता को

फिर से पाने के लिए

एक लम्बी जद्दोजहद की शुरुआत की

और इसके हर चक्र में

थोड़ी क़ामयाबी के साथ

मुझे हासिल हुई

पहले से अधिक गहरी चोट

और पहले से अधिक

सहने की ताक़त। 

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(12 Jul 2024)


Wednesday, July 10, 2024

गुमशुदगी

गुमशुदगी

पुलिस का वह नाज़ुक सा दुबला-पतला 

सबइंस्पेक्टर छात्र जीवन में

कविताएँ लिखता था

और अब पहाड़ के दूर-दराज़ के इस थाने में

जहाँ शायद ही कभी कोई 

शिक़ायत दर्ज कराने आता था, 

दिन भर कुर्सी पर बैठा ऊँघता रहता था

टेबल पर टाँग पसारे हुए। 

आज उसके सामने बैठा था

खिचड़ी दाढ़ी और मैली-कुचैली टोपी वाला

 एक बूढ़ा जो ज़िद ठाने हुआ था 

कि गुमशुदा लोगों के रजिस्टर में 

उसका नाम लिख लिया जाये

और थाने की दीवार पर उसकी तस्वीर

चस्पाँ कर दी जाये। 

न उसे अपना नाम याद था, न ही उसके पास

कोई पहचान पत्र या आधार कार्ड था। 

कुछ घण्टे चुप रहने के बाद

सबइंस्पेक्टर बोला थकी हुई आवाज़ में, 

"चचा, गुमशुदा लोगों में मैं भी तो शामिल हूँ। 

लोग मुझे जानते हैं मेरी वर्दी पर टँके नाम से

और मेरे पहचान पत्र से

लेकिन मैं ख़ुद को नहीं पहचान पाता, 

न ही कुछ याद कर पाता हूँ

और जब भी निकलता हूँ दौरे पर

तो बस ख़ुद को ही ढूँढ़ता रहता हूँ

भीड़ के एक-एक चेहरे को

ग़ौर से देखते हुए। 

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(10 Jul 2024)