Sunday, July 06, 2025

शीर्षकहीन एक कविता

 

इक सुनहली याद

जैसे खेत में छूटी पके दानों  की इक बाली। 

कि जैसे भोर के धुँधले क्षितिज पर

उभरती लाली। 

कि जैसे रात में बांदल नदी यह दून घाटी की

और इसके किनारे 

बिना पत्तों का खड़ा यह पेड़। 

उदासी रात सी निस्तब्ध। 

लेकिन इस अँधेरे में कहीं से आ रही है रोशनी

लम्बा सफ़र तय करके। 

रक्तवर्णी फूल हँसते हैं

 वहाँ निस्संग डालों पर। 

हिलते हैं, उमगते हैं

लपकते पास आने को। 

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(6 Jul 2025)


Monday, June 30, 2025

 लगातार मेहनत और संघर्ष की ज़िन्दगी जीने के बाद अगर आप किसी मीलपत्थर के पास थककर देर तक बैठ जाते हैं तो फलहीन बूढ़े पेड़ के पीले पत्ते आपके सिर पर गिरने लगते हैं, पस्तहिम्मती का अजगर अपनी कुण्डली में जकड़ लेने के लिए धीरे-धीरे आपकी ओर सरकने लगता है, क्षुद्रता की लाल चींटियाँ आपके बदन पर रेंगने लगती हैं और कुछ मील आगे खड़ी मौत की सराय में आपके लिए एक कमरे की साफ़-सफ़ाई शुरू हो जाती है। 

उस सराय से आगे का सफ़र कोई इंसान नहीं बल्कि एक प्रेत तय करता है।

(डायरी का एक इन्दराज़)

(30 Jun 2025)


Sunday, June 08, 2025

कविता मुहावरा मसाला श्रृंखला में चौथी कविता

 

बहुत हुआ जब इज़्ज़त का फालूदा। 

कहने लगे लोग कि न छाती छप्पन इंच की

न भेजे में गूदा। 

तब विश्वगुरू ने पूछा एक सनातन सवाल

फिर क्या था, पूरी दुनिया में मच गया बवाल। 

पूछा कि कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा? 

चक्कर खा गया पुतिन

भकुआया ताकता रह गया

गुड फ्रेंड दोलाण्ड ट्रम्प बेचारा। 

*

(8 Jun 2025)

Friday, June 06, 2025

कविता मुहावरा मसाला श्रृंखला में तीसरी कविता

 


मथुरा में रहती है। 

मध्यकाल और आधुनिक काल के बीच

आवाजाही करती है। 

राधा कालेज स्कूटी से आती है। 

लौटानी में डोमिनोज़ का पिज़्ज़ा खाती है। 

फिर वृंदावनबिहारी के आश्रम में जाती है।

भजन गाती है

भागवत कथा बाँचती है। 

नौ मन तेल पेरने पर भी मेरे लिए

राधा नहीं नाचती है। 

मइया कसम, अब तो

बजरंग दल में जायेंगे। 

जिनके लिए राधा नाचती है

उनके पिछवाड़े लट्ठ बजायेंगे। 

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(6 Jun 2025)

Thursday, June 05, 2025

कविता मुहावरा मसाला श्रृंखला में दूसरी कविता

 


हरदम उत्पात मचाते हैं। 

तर्क-विवेक से जानी दुश्मनी निभाते हैं। 

अदरक का स्वाद

उन्हें भाता नहीं । 

लेकिन उनका कहना है कि

बन्दरों से उनका कोई नाता नहीं। 

उनकी तो एक भारत माता 

और दूजी गोमाता है। 

इससे ज़्यादा उन्हें कुछ नहीं आता है। 

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(5 Jun 2025)

Tuesday, June 03, 2025

कविता मुहावरा-मसाला श्रृंखला


 

लगभग दूध का धुला

लोग कहते थे कि हालाँकि कोई

एकदम दूध का धुला नहीं होता

लेकिन वह काफ़ी हद तक

कहे जा सकते हैं। 

मैं मिली तो वाक़ई उनको लगभग

दूध का धुला पाया। 

वह काफ़ी चिपचिप कर रहे थे। 

उनकी बातें भी काफ़ी चिपचिपी थीं

और कविताएँ तो इतनी कि बस

पूछिए ही मत! 

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(3 Jun 2025)


Saturday, May 31, 2025

चमकती चीज़ों के युग में एक मृत्यु

 


अपनी मृत्यु के समय तक वह क़रीब-क़रीब

बीते हुए ज़माने के स्मृतिचिह्न बनकर

रह गये थे और शहर के संवेदनशील लोगों को

बीच-बीच में अचानक याद आता था कि अरे! 

अभी वह जीवित हैं! 

उनका इतिहास गौरवशाली कहा जा सकता था

लेकिन वर्तमान में उनकी उपयोगिता के बारे में

ज़्यादातर लोगों को संदेह था

जो ज़्यादातर प्रकट नहीं होता था

सार्वजनिक तौर पर

या छिपा होता था औपचारिक सम्मान-प्रदर्शन

के पुष्पगुच्छों की ढेरी के नीचे। 

उनकी विद्वत्ता पर संदेह करने वाले

या कम से कम उसकी सीमा बताने वाले

तो उनके कुछ समकालीन भी हुआ करते थे

लेकिन उनकी मनुष्यता के सभी क़ायल थे

यहाँ तक कि उनके दुश्मन भी। 

फिर यह समय आया धीरे-धीरे कि

मनुष्यता के साथ विद्वत्ता का संयोग

विरल होता चला गया और लोग यह मानकर

चलने लगे कि जहाँ विद्वत्ता होगी वहाँ दुष्टता

अनिवार्यतः उपस्थित होगी, ख़ास तौर पर 

हिंस्र, दुर्निवार महत्वाकांक्षा की शक़्ल में। 

आश्चर्य था कि कुटिलता, निराशा और

व्यवहारवाद के वर्चस्व के नये युग में भी

वह बरसों जीते रहे एक शापित सा जीवन

और महत्वाकांक्षाओं से चमकती

सोने के सिक्के जैसी आँखों वाले 

प्रभावशाली स्त्री-पुरुष निश्चिन्त थे

कि वह जीवित ही इतिहास बन चुके थे। 

फिर भी इतना तो था कि जिस दिन वह मरे

उस दिन पूरे शहर में उनकी चर्चा हुई 

और लोगों ने कुछ इसतरह की बातें कीं कि

बहुत बढ़िया इंसान थे और विद्वान भी थे

और उनका भी एक ज़माना था 

और वह भी क्या ज़माना था! 

*

हालाँकि उनकी शवयात्रा में श्मशान तक 

कुल तैंतीस लोग ही गये थे

लेकिन यह संख्या गर्मी और लू के मौसम को

देखते हुए सन्तोषजनक कही जा सकती थी। 

श्मशान तक तो गाड़ियों में ही जाना था सबको

और अन्तिम यात्रा में शववाहन में उनके

पार्थिव शरीर  के साथ बैठने के लिए

बस थोड़ी ही धक्कामुक्की हुई। 

जाहिर है कि सफलता उन्हें मिलनी  थी

जो पहले से तैयार थे, 

प्रत्युत्पन्नमति से सम्पन्न थे

और सही समय पर सही कदम उठाने की

योग्यता थी जिनके पास। 

फिर शववाहन से अर्थी उतारकर

कंधे पर उठाने में और आगे-आगे चलने में भी

वे ही आसानी से सफल हुए

जिनके पास योजना थी कि यथासमय

अपने को उनका सुयोग्य उत्तराधिकारी

सिद्ध कर सकें। 

अन्तिम क्रिया सम्पन्न हुई विद्युत शवदाह गृह में

आनन-फानन में। 

कई लोगों ने फेसबुक पर शोक संदेश

भेज दिया था वहीं से माला लदे

पार्थिव शरीर के साथ अपनी तस्वीर लगाते हुए।

अगले दिन शोकसभा में कुल इक्यासी लोग

उपस्थित थे और हर्षदायी होने की हद तक

सन्तोषजनक बात यह थी कि ढाई घण्टे के 

कार्यक्रम के दौरान कोई मजबूरी बताकर

बीच से उठकर जाने वाले सिर्फ़ तेरह थे। 

बाकी बचे अड़सठ लोगों में से

सत्ताइस वक्ता थे जिनके पास

एक से एक मार्मिक यादें थीं

जो दिवंगत से उनकी बेहद क़रीबी दिखलाती थीं। 

इसतरह नये ज़माने से पुराने ज़माने की

विदाई हुई और सभागार से बाहर निकलते हुए

किसी एक ने कहा दूसरे से, "चलिए, इसी बहाने

मिलना तो हो गया आपसे। 

कभी घर आइए न, 

थोड़ी बातें करेंगे तसल्ली से।"

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(31 May 2025)

Friday, May 30, 2025

स्मृति-शेष : न्गूगी वा थ्योंगो

 


28 मई 2025

महान अफ्रीकी लेखक को याद करते हुए कात्यायनी की टिप्पणी

एक अँधेरे समय में न्गूगी का जाना 

अफ्रीका के महान जनपक्षधर लेखक न्गूगी वा थ्योंगो नहीं रहे। विगत 28 मई को 87 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।

 केन्या में पैदा हुए न्गूगी वा थ्योंगो की रचनात्मक सक्रियता का सुदीर्घ कालखण्ड छः दशकों से भी अधिक लम्बा था। अपने उपन्यासों, नाटकों, कहानियों, निबन्धों और  व्याख्यानों के जरिए न्गूगी ने केन्या में उपनिवेशवाद, नवउपनिवेशवाद तथा खण्डित आज़ादी वाली विकलांग देशी बुर्जुआ जनवादी सत्ता के एक भ्रष्ट निरंकुश बुर्जुआ सत्ता में रूपांतरण और नवउदारवादी दौर की विनाशकारी परिणतियों की एक त्रासद महाकाव्यात्मक गाथा रची जो कमोबेश समूचे अफ्रीकी महाद्वीप की और विशेषकर पूर्वी अफ्रीकी देशों की त्रासदी बयान करती थी। न्गूगी सच्चे अर्थों में चिनुआ अचेबे जैसे महान अफ्रीकी लेखकों की परम्परा को आगे विस्तार देने वाले लेखक थे।

न्गूगी के लेखन की वैचारिकी पर पैट्रिस लुमुम्बा, अमिल्कर कबराल, नेग्रीट्यूड आन्दोलन के प्रवर्तक एमी सेज़ायर और लियोपोल्ड सेंघोर तथा फ्रांज फैनन का काफ़ी हद तक प्रभाव दिखता है। उन्हें आम तौर पर एक मार्क्सवादी ही माना जाता है लेकिन कुल मिलाकर वह एक 'पैनअफ्रीकनिस्ट' क्रान्तिकारी वामपंथी थे। साम्राज्यवाद के राजनीतिक -सांस्कृतिक वर्चस्व के बारे में उनके विचारों पर यहाँ-वहाँ उत्तर-उपनिवेशवाद की वैचारिकी की भी प्रभाव-छायाएँ दिखती हैं लेकिन जैसा कि महान लेखकों के साथ प्रायः होता है, उनके विचारधारात्मक अंतरविरोधों का अतिक्रमण करते हुए उनका लेखन मुख्यतः, अकुण्ठ रूप से न केवल साम्राज्यवाद-विरोधी है, बल्कि उस देशी बुर्जुआ वर्ग की भ्रष्ट और निरंकुश दमनकारी सत्ता का भी विरोध करता है जो स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अपने रैडिकल राष्ट्रवादी चरित्र को त्यागकर कालान्तर में साम्राज्यवादी शक्तियों का 'जूनियर पार्टनर' बन गया था।

न्गूगी ताज़िन्दगी साम्राज्यवाद और पूंँजीवाद के विचारधारात्मक, राजनीतिक और सांस्कृतिक वर्चस्व के विरुद्ध अपनी लेखनी को हथियार बनाकर लड़ते रहे। अफ्रीकी जनसमुदाय के सामाजिक जीवन, संस्कृति और आत्मिक जगत का सजीव परावर्तन हमें उनकी रचनाओं में देखने को मिलता है। और बेशक़, ताज़िन्दगी वह इसकी क़ीमत भी चुकाते रहे। उनकी पूरी ज़िन्दगी जेल, यंत्रणा, निर्वासन की और हत्या तक की कोशिशों से बच निकलने की एक लम्बी कहानी है।

न्गूगी के क्रान्तिकारी यथार्थवाद की कुछ वैसी ही अफ्रीकी देशज विशिष्टताएँ हैं जैसे मारखेज के क्रान्तिकारी यथार्थवाद हमें लातिन अमेरिकी रंग-गंध रचा-बसा नज़र आता है। इतना तय है कि बीसवीं शताब्दी की दुनिया के महान क्रान्तिकारी साहित्य की वैश्विक धरोहर में न्गूगी की उपस्थिति में शायद ही किसी को सन्देह हो।

न्गूगी का पहला बहुचर्चित और पुरस्कृत उपन्यास 'वीप नॉट, चाइल्ड' एक गिकुयू परिवार की कहानी कहता है जो आपातकाल और माउ माउ विद्रोह के दौरान केन्याई स्वाधीनता संग्राम के प्रवाह में शामिल हो जाता है। 1965 में  प्रकाशित उनका दूसरा  उपन्यास 'द रिवर बिटवीन', जो सबसे  पहले लिखा गया था लेकिन प्रकाशित बाद में हुआ, अलग हो जाने वाले एक प्रेमी जोड़े की कहानी बयान करते हुए ईसाइयत और औपनिवेशिक संस्कृति के साथ पारम्परिक जीवन पद्धति और विश्वासों के टकराव का प्रामाणिक  चित्रण प्रस्तुत करता है। 1967 में प्रकाशित 'अ ग्रेन ऑफ़ ह्वीट' कला  की दृष्टि से अपेक्षतया अधिक परिपक्व उपन्यास था जो स्वतंत्रता संघर्ष और उसके बाद के समय के दौरान के विभिन्न सामाजिक, नैतिक और नस्ली मुद्दों पर केन्द्रित था। 1971 में प्रकाशित जिस उपन्यास ने न्गूगी को पश्चिमी साहित्यिक जगत में चर्चा के केन्द्र में ला दिया था, वह था 'पेटल्स ऑफ़ ब्लड'! इस उपन्यास में स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद पूर्वी अफ्रीकी देशों में उभरी सामाजिक और आर्थिक समस्याओं का, विदेशी कम्पनियों द्वारा जारी किसानों और मज़दूरों के शोषण-उत्पीड़न का तथा भ्रष्ट, लोलुप और निरंकुश देशी बुर्जुआ वर्ग का विशद चित्रण प्रस्तुत किया गया है।

न्गूगी का मानना था कि उपनिवेशवादियों ने उपनिवेशों की जनता के मानसिक उपनिवेशन के लिए और अपने विचारधारात्मक -राजनीतिक-सांस्कृतिक वर्चस्व को मजबूत बनाने के लिए भाषा का एक हथियार केवल रूप में इस्तेमाल किया, देशी भाषाओं को पिछड़ा और हीन बताते हुए पराधीनों पर अपनी भाषा को थोपा और उनके बीच से अपने विश्वस्त सहयोगी के रूप में एक मध्यमवर्गीय अभिजन बौद्धिक समाज पैदा किया जो अपने औपनिवेशिक स्वामियों की भाषा पढ़ता-बोलता था और श्रेष्ठता बोध से ग्रस्त रहता था जबकि आम लोग उस भाषा को लेकर हीनता-ग्रंथि से ग्रस्त रहते थे। भाषा के जरिए मानसिक उपनिवेशन की यह प्रक्रिया उत्तर-औपनिवेशिक काल में भी जारी रही और नवउदारवादी भूमण्डलीकरण के वर्तमान दौर में भी जारी है। अधिकांश भूतपूर्व उपनिवेशों में शासन, उच्च शिक्षा, शोध, ज्ञान-विज्ञान की भाषा मुख्यतः पुराने उपनिवेशवादी शासकों की ही भाषा है और यह धारणा जनमानस में आज भी गहराई से पैठी हुई है कि उच्च संस्कृति और चिन्तन तो पश्चिमी देशों की भाषाओं में ही हो सकता है। ऐसे सभी देशों में अभिजन समाज के विशेषाधिकारों को और विशेष सामाजिक हैसियत को सुरक्षित बनाने में यूरोपीय भाषाओं में उनकी शिक्षा -दीक्षा की विशेष भूमिका होती है। न्गूगी ने मानसिक उपनिवेशन की इस सांस्कृतिक समस्या के हर पहलू पर और इसमें भाषा की भूमिका पर लगातार लिखा और विपुल मात्रा में लिखा। आगे चलकर, अपने विश्वास और प्रतिबद्धता को ख़ुद अपने व्यवहार में उतारते हुए अपने रचनात्मक लेखन के माध्यम के तौर पर उन्होंने अंग्रेजी का परित्याग कर दिया और अपनी मातृभाषा गिकुयू में लिखना शुरू कर दिया। अब उनकी रचनाएँ पहले गिकुयू में लिखी जातीं थीं और छपती थीं और फिर उसके बाद अंग्रेज़ी में अनूदित होकर छपतीं थीं।

गिकुयू भाषा में लिखे गये और फिर अंग्रेज़ी में अनूदित होकर छपे अपने उपन्यास 'डेविल ऑन द क्रॉस' (1980) में न्गूगी ने अपने देश-काल के सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ को एक तरह की रूपकीय शैली में, कुछ-कुछ पारम्परिक गाथागीत गायकों की याद दिलाने वाली शैली में, प्रस्तुत किया है । यथार्थ और फंतासी की बुनावट करते हुए इसमें शैतान के साथ उन विभिन्न प्रकार के खलनायकों की मीटिंग का ब्यौरा पेश किया गया है जो ग़रीबों का शोषण करते हैं। 1986 में प्रकाशित  न्गूगी का बहुचर्चित उपन्यास  'मातीगारी' उत्तर-औपनिवेशिक केन्याई  समाज  के पूँजीवाद पर और नये आर्थिक अभिजन समाज में व्याप्त धार्मिक पाखण्ड और भ्रष्टाचार को बेहद तीखे ढंग से निरावृत करता है। । न्गूगी का अंतिम उपन्यास 'विज़र्ड ऑफ़ द क्रो' (2004) उपनिवेशवाद की विरासत को व्यंग्य और फंतासी के दोहरे लेंसों से देखते हुए उसके सारतत्व को उद्घाटित करने की कोशिश करता है। वह इसकी परिणति को केवल देशी बुर्जुआ वर्ग की निरंकुश तानाशाह सत्ता के रूप में ही नहीं देखता बल्कि उस संस्कृति में भी देखता है जिसका आमूलगामी रूपांतरण विऔपनिवेशीकरण के रूप में नहीं हुआ है, बल्कि इस नयी देशी बुर्जुआ संस्कृति में साम्राज्यवादी संस्कृति के तत्वों के अतिरिक्त औपनिवेशिक अतीत के सांस्कृतिक तत्व भी संघटक अवयव के रूप में मौजूद हैं।

न्गूगी ने उपन्यासों के अतिरिक्त कई नाटक भी लिखे और पाठकों में लोकप्रिय होने के साथ ही वे अफ्रीकी देशों के अतिरिक्त यूरोप-अमेरिका में भी मंचित हुए। लेकिन इनके चलते न्गूगी को सत्ताधारियों का कोपभाजन भी होना पड़ा। केन्याई बुर्जुआ समाज के ताकतवर लोगों के जीवन में व्याप्त नैतिक अध:पतन, सांस्कृतिक खोखलेपन, पाखंड और संकीर्णता पर चोट करने वाले नाटक 'आइ विल मैरी ह्वेन आइ वांट' (1977) के मंचन के बाद न्गूगी को बिना किसी मुकदमे के एक साल तक जेल में दिन बिताने पड़े। जेल के इन अनुभवों पर केन्द्रित उनकी पुस्तक 'डिटेन्ड: अ राइटर्स प्रिज़न डायरी' 1981 में प्रकाशित हुई।

साहित्य, संस्कृति, भाषा और राजनीति के विविध प्रश्नों पर न्गूगी ने प्रचुर मात्रा में लिखा और भाषण दिये। इनमें से अधिकांश 'होमकमिंग' (1972), 'राइटर्स इन पॉलिटिक्स' (1981), 'डीकोलोनाइज़िंग द माइण्ड : पॉलिटिक्स ऑफ़ लैंग्वेज इन अफ़्रीकन लिटरेचर' (1986), बैरल ऑफ़ अ पेन'(1983), मूविंग द सेंटर'(1993) और 'पेनप्वाइंट्स, गनप्वाइंट्स एण्ड ड्रीम्स'(1998)

संकलनों में मौजूद हैं।

आज साम्राज्यवाद के नवउदारवादी दौर में हम विश्व  स्तर पर धुर-दक्षिणपंथी और फ़ासिस्ट उभारों के साक्षी हो रहे हैं। ऐसे अंधकारमय दौर में दमनकारी सत्ताओं के विरुद्ध वर्ग संघर्ष के सांस्कृतिक मोर्चे के सिपाही सिर्फ़ वही लेखक और संस्कृतिकर्मी हो सकते हैं जिनमें न्गूगी जैसी समझौताहीनता और साहस हो, जो न्गूगी की तरह ही अपने समाज की नब्ज़ महसूस करते हों और जो न्गूगी की ही तरह सच्चे अर्थों में जनता के आदमी हों। बेशर्म समझौतों, घिनौने दोहरेपन, गलीज कायरता के घटाटोप में कितने कवि-लेखक-संस्कृतिकर्मी हैं जो न्गूगी की तरह जीने और लिखने की कुव्वत रखते हैं?

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Tuesday, May 20, 2025


 क़ानून का अतिक्रमण करके विरोध करना जनवाद को छोड़ना नहीं है, बल्कि उसके लिए नितान्त ज़रूरी है। 

-- हावर्ड ज़िन


 

देश हमारे पैरों के नीचे की ज़मीन नहीं है, जनता ही देश है।

-- रवीन्‍द्र नाथ टैगोर('होम ऐण्‍ड द वर्ल्‍ड')

Monday, May 19, 2025

एक बेचैन नींद का क़सीदा

 


मेरी बाँयी ओर

पड़ी है धूल-धूसरित  नींद

ख़ून में लथपथ

बेचैन छटपटाती हुई

एक अधूरी छूट गयी कविता की तरह

अंजाम तक न पहुँचे किसी अफ़साने की तरह

बरसाती नदी में बह गये डाकिये के थैले में

क़ैद किसी बेचैन प्रेमपत्र की तरह

छत पर पड़ी एक घायल पतंग की तरह

बीच-बीच में हवा के झोंकों से सिहरती

आसमान में अपनी फड़फड़ाहट को याद करती। 

तानाशाह अत्याचार करते-करते 

थककर निढाल हो जाते हैं

लेकिन षड्यंत्र और विद्रोह के भय से

सोते नहीं। 

कुचल दिये गये लोग

जबतक जागने की आदत न डालें

तबतक एक सुकूनतलब नींद 

उन्हें नसीब नहीं होती। 

जागने और सोने के बीच झूलने को

अभिशप्त होते हैं वे लोग तबतक

जबतक कि फिर से उठ खड़े होने के बारे में

सोचना शुरू नहीं कर देते। 

एक सच्चे कवि की बेचैन नींद भी

जागती रहती है

अँधेरे जैसे उजालों में

जब लोग जगे रहते हैं

सोने रहने की तरह। 

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(19 May 2025)


Sunday, May 11, 2025

 सबसे अच्छे लोगों के पास सुन्दरता के लिए भावनाएँ होती हैं, जोखिम मोल लेने की हिम्मत होती है, सच कहने का अनुशासन होता है, क़ुर्बानी देने की कुव्वत होती है। विडम्बना यह होती है कि अपने इन्हीं गुणों के कारण वे सहज भेद्य होते हैं; उन्हें अक्सर जख़्म दिये जाते हैं, और कभी-कभी तो तबाह कर दिया जाता है। 

-- अर्नेस्ट हेमिंग्वे ('अ फ़ेयरवेल टु आर्म्स')

बौद्धिक बाज़ार में सेल लगी है।


एक किलो मूर्खता के साथ अति आत्मविश्वास का पाँच सौ ग्राम का पैकेट मुफ़्त! 

पाँच किलो कूपमण्डूकता के साथ दो किलो आत्ममुग्धता मुफ़्त! 

तीन दर्जन कविता के साथ महानता-बोध का तीन लीटर का छोटा गैस सिलेंडर मुफ़्त! 

दस किलो कठमुल्लेपन के साथ दस किलो थेंथरपन मुफ़्त! 

दस लीटर लिब्बूपन के साथ रीढ़ की हड्डी निकालने का आपरेशन मुफ़्त! 

एक कुन्तल धार्मिक कठमुल्लेपन के साथ आधा कुन्तल अंधराष्ट्रवाद, आधा कुन्तल युद्धोन्माद और एक ट्राली गाय का गोबर मुफ़्त! 

जल्दी आओ! ज़्यादा पाओ! फिर न कहना कि बताया नहीं!

Saturday, May 10, 2025

 

नूर का अर्थ है रौनक। इससे नूरा विशेषण बना है। नूरा कुश्ती यानी ऐसी कुश्ती जिसमें कुश्ती की रौनक या तड़क-भड़क तो हो लेकिन कुश्ती वास्तविक न हो। 

नूरा कुश्ती में पहलवान मिलीभगत करके लड़ते हैं, किसी की हार या जीत नहीं होती और दोनों प्रतिद्वंद्वियों के समर्थक अपने-अपने पहलवान की वाहवाही करते हुए उन्हें कंधों पर उठाये लौट जाते हैं। 

नूरा कुश्ती के बाद दोनों पहलवानों की घटती हुई साख उनके समर्थकों में फिर से जम जाती है। दोनों पहलवान दावा करते हैं कि वे ही भारी पड़ रहे थे और बस जीतने ही वाले थे। वो तो रेफरी का रोल निभा रहे उस्ताद जी ने ही कुश्ती बराबरी पर छुड़वा दी। 

इसतरह लोग उस्ताद जी के रुतबे के भी क़ायल हो जाते हैं। 

समझे कि नहीं समझे?

(10 May 2025)

Friday, May 09, 2025

प्रासंगिक सवाल...


 मौजूदा अविवेकपूर्ण युद्धोन्मादी माहौल में कात्यायनी की यह टिप्पणी। 

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युद्धोन्माद के माहौल में कुछ असुविधाजनक लेकिन सबसे अधिक प्रासंगिक सवाल जिन्हें सबसे अधिक अप्रासंगिक बना दिया गया है! 

जब भी अंधराष्ट्रवाद, युद्धोन्माद और प्रतिशोधी सैन्यवाद की लहर पूरे समाज पर हावी हो जाती है और रक्तपिपासु मीडिया का गला "ख़ून के बदले ख़ून" की चीख-पुकार मचाते हुए फट जाता है तो सच्चे क्रान्तिकारी और जनपक्षधर लोग धारा के विरुद्ध खड़े होकर इस अंधी लहर का विरोध करते हैं और युद्ध के असली चरित्र का पर्दाफ़ाश करते हैं। 

इस परीक्षा में तमाम बुर्जुआ लिबरल्स और सोशल डेमोक्रेट्स हमेशा फेल होते हैं। कार्ल काउत्स्की से लेकर आजतक के सभी सोशल डेमोक्रेट्स की एक प्रमुख अभिलाक्षणिकता होती है -- अंधराष्ट्रवाद! सभी प्रतिक्रियावादी  युद्धों में  लिबरल्स और सोशल डेमोक्रेट्स उसीतरह अपने-अपने देशों के शासक वर्गों के साथ जा खड़े होते हैं जैसे कि देश के भीतर उठ खड़े होने वाले क्रान्तिकारी युद्धों में। 

सोचने की बात यह है कि शासक वर्गों की जो सत्ता अपने देश की जनता के विरुद्ध विविध रूपों में दिन-रात युद्ध छेड़े रहती है, वही दूसरे देशों से युद्ध  या सीमा पर तनाव की स्थिति में अपने देश की जनता के हितों की रक्षक भला कैसे हो जाती है! सीमाओं पर लड़े जाने वाले युद्ध ज़्यादातर दो देशों के शासक वर्गों के बीच के युद्ध होते हैं। वे उन देशों की आम जनता के बीच के टकराव नहीं होते। अलग-अलग देशों की आम मेहनतकश जनता के बीच हितों का कोई टकराव नहीं होता। लेकिन युद्धों में जो सैनिक तोपों के चारा बनते हैं वे आम जनता के बेटे-बेटियाँ होते हैं। शहरों और गाँवों पर जब बम बरसते हैं तो ज़्यादातर नुकसान आम नागरिकों के जानमाल का ही होता है। देश काग़ज़ पर बना नक़्शा नहीं होता। देश आम लोगों से बनते हैं और शासक वर्गों के सामरिक टकरावों में वही आम लोग तबाहियों का शिकार होते हैं। 

यह भी याद रखना ज़रूरी है कि पूँजीवादी दुनिया में युद्ध अपने आप में एक उद्योग है-- सबसे बड़ा और सबसे लाभकारी उद्योग! सीमाओं पर जब तनाव बने रहते हैं और यहाँ-वहाँ लगातार जब युद्ध चलते रहते हैं तो युद्धक सामग्री निर्माण उद्योग फलता-फूलता रहता है। युद्धों में उत्पादक शक्तियों और सामाजिक सम्पदा का विनाश होता रहता है और युद्धोत्तर काल में शहरों तथा यातायात-संचार के साधनों आदि के पुनर्निर्माण में पूँजीपतियों को पूँजी निवेश करने और मुनाफ़ा कूटने का अवसर मिलता रहता है। इसतरह पूँजीपतियों को अपने उद्योगों की 'प्रॉफिटेबिलिटी' सुनिश्चित करने और 'प्रॉफ़िट मैक्सिमाइज़ेशन' का भरपूर अवसर मिलता रहता है। पूँजीवादी दुनिया में अगर सीमा पर तनावों, शीतयुद्धों और छोटे-बड़े युद्धों की निरंतरता न बनी रहे तो हथियारों का व्यापार रुक जायेगा  या मंदा  हो जायेगा और दुश्चक्रीय निराशा की ढलान पर लुढ़कती हुई विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था जल्दी ही महामंदी की खाई में जा गिरेगी। 

इस बात को भी समझना ज़रूरी है कि युद्ध राजनीति की ही निरंतरता होते हैं। आर्थिक जगत में पूँजीपतियों की मुनाफ़ा कूटने की गलाकाटू आपसी प्रतिस्पर्धा राजनीति की दुनिया में प्रतिबिंबित और विस्तारित होती है और अलग-अलग देशों के पूँजीपतियों के बीच यह राजनीतिक टकराव तीखा होकर, बीच-बीच में सामरिक टकरावों का रूप लेता रहता है। 

यह भी समझना ज़रूरी है कि राजकीय हिंसा ही सबसे बड़ा आतंकवाद होती है। शासक वर्ग का आतंकवाद ही आतंकवाद के सभी रूपों को जन्म देता है। सत्ता के निरंतर और क्रूर दमन-उत्पीड़न से त्रस्त लोगों के सामने जब जनक्रान्ति को नेतृत्व देने वाली कोई वैकल्पिक क्रान्तिकारी शक्ति संगठित रूप में उपस्थित नहीं होती तो उसी जनता के बीच से थोड़े से लोग, हथियार उठाकर (जनता को तैयार किये बिना) सशस्त्र संघर्ष छेड़ देते हैं। यह मध्यवर्गीय अतिवादी क्रान्तिवाद, दुस्साहसवाद या आतंकवाद का रास्ता है। इस रास्ते पर चलने वाले लोग अगर एक समतामूलक, न्यायशील लोकसत्ता की स्थापना के प्रगतिशील यूटोपिया को लेकर चलते हैं तो हम उन्हें क्रान्तिकारी आतंकवादी कहते हैं, हालाँकि वे अपने लक्ष्य को कभी हासिल नहीं कर सकते और उल्टे जनक्रान्ति की धारा को नुकसान ही पहुँचाते हैं। दूसरे किस्म के आतंकवादी किसी न किसी किस्म के प्रतिगामी यूटोपिया के शिकार होते हैं। वे अतीतजीवी, पुनरुत्थानवादी, धार्मिक मूलतत्ववादी, राष्ट्रीय श्रेष्ठतावादी, राष्ट्रीय संकीर्णतावादी या नस्लवादी होते हैं। ऐसे प्रतिगामी आतंकवादी अगर शुरू से ही पूँजीवादी शासकों और साम्राज्यवादियों की कठपुतली नहीं भी होते, तो बाद में बन जाते हैं। इतिहास के अनुभव बताते हैं कि कई बार साम्राज्यवादी और पूँजीवादी शासक अपनी गोट लाल करने के लिए ऐसे आतंकवादी ग्रुपों को खड़ा भी करते हैं और उनकी आर्थिक-सामरिक मदद करते हैं। और जब उनका उल्लू सीधा हो जाता है, या कोई आतंकवादी संगठन अपना स्वतंत्र सामाजिक आधार विकसित करने के बाद उनके लिए भस्मासुर बन जाता है, तो फिर "आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध" के नाम पर उनको ठिकाने लगा दिया जाता है। कोई भी धार्मिक कट्टरपंथी आतंकवादी संगठन या आन्दोलन अपना सामाजिक आधार तभी विकसित कर पाता है जब जनता साम्राज्यवाद या किसी किस्म के देशी निरंकुश बुर्जुआ सत्ता के बर्बर दमन का शिकार होती है और उसके सामने कोई वैकल्पिक क्रान्तिकारी नेतृत्व नहीं होता, या कोई साम्राज्यवादी शक्ति अथवा देशी बुर्जुआ सत्ता विशिष्ट कारणों से ऐसे नेतृत्व को कुचल देने में क़ामयाब हो चुकी होती है। यूँ कहा जा सकता है कि किसी भी देश में आतंकवादियों के गुट या तो साम्राज्यवाद या किसी "दुश्मन" देश के शासक वर्ग की कठपुतली होते हैं, या जनता में व्याप्त घोर निराशा, निरुपायता, पराजय-बोध और विकल्पहीनता की अभिव्यक्ति होते हैं। कई बार वे दोनों एक साथ भी होते हैं। यानी हर हाल में आतंकवाद पूँजीवादी व्यवस्था का उत्पाद होता है और उसके विरुद्ध छेड़े गये हर युद्ध का निशाना आम जनता ही बनती है, चाहे वह इस देश की हो या उस देश की। दुनिया भर में चल रहे "आतंकवाद के विरुद्ध युद्धों" में या तो साम्राज्यवादी गुट या फिर प्रतिस्पर्धी देशों के पूँजीवादी शासकों की गोट लाल होती रहती है और सारा कहर जनता पर टूटता रहता है। इसतरह "आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध" हमेशा और सबसे पहले, जनता के विरुद्ध युद्ध के रूप में ही अमली शक़्ल अख़्तियार करता है। 

इस समय पूरे देश में पहलगाम के आतंकी जनसंहार के बाद बदला लेने के लिए देशभक्ति के नाम पर अंधराष्ट्रवादी युद्धोन्माद की लहर सी चल रही है जो पाकिस्तान स्थित आतंकवादी ठिकानों पर भारत के चयनित हवाई हमलों के बाद गगनभेदी कोलाहल में बदल चुकी है। ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जो पाकिस्तान को सबक सिखाने के नाम पर पूरा खुला युद्ध छेड़ देने की माँग कर रहे हैं। और पाकिस्तान द्वारा भी सीमा पर गोलाबारी तथा भारतीय बमबारी द्वारा लाहौर के एयर डिफेंस सिस्टम को तबाह किये जाने के बाद दोनों देशों के बीच घोषित युद्ध की सम्भावना प्रबल होती जा रही है। 

पहली बात तो यह कि ऐसी कोई भी कार्रवाई कश्मीर की ज़मीन से धार्मिक कट्टरपंथी आतंकवाद को समाप्त नहीं कर सकती। कुछ आतंकी गिरोह अगर खत्म होंगे तो उनकी जगह कुछ दूसरे गिरोह ले लेंगे। कश्मीर में आतंकवाद को जन्म भारतीय सत्ता के शासकीय आतंकवाद ने दिया है। शासकवर्गीय प्रचार से अंधे-बहरे हो चुके लोग यह जानते भी नहीं कि हाल ही में धारा 370 हटाकर और जम्मू कश्मीर का राज्य का दर्जा छीनकर कश्मीरी अवाम के साथ जो विश्वासघात भारत के बुर्जुआ शासक वर्ग ने किया उसका सिलसिला तो 1953 में ही शुरू हो चुका था जब कश्मीरी जनता को आत्मनिर्णय का अधिकार देने के वायदे को ताक पर रखकर बहुमत से चुनी गयी शेख अब्दुल्ला की सरकार को बरखास्त करके उन्हें बीस सालों के लिए जेल में ठूँस दिया गया। अफजल बेग के जनमत संग्रह मोर्चा को प्रतिबंधित कर दिया गया। तीन दशकों से भी अधिक समय से लोकतांत्रिक तरीकों से आन्दोलन चला रही कश्मीरी जनता को जब बर्बर दमन का शिकार बनाया गया तो 1980 के दशक में घोर निराशा और निरुपायता के माहौल में छिटफुट नौजवानों के आतंकवादी गुट उभरने लगे और इनमें से कइयों को मदद देने और कई नये आतंकवादी गुट खड़ा करने का काम फिर पाकिस्तानी शासक वर्ग ने भी किया। कश्मीर में भारत के बढ़ते सैन्य दमन का नतीजा यह हुआ कि जो कश्मीरी हमेशा से सेक्युलर मिज़ाज के हुआ करते थे और जिन्ना की साम्प्रदायिक राजनीति के घोर विरोधी थे, उनके बीच भी पाकिस्तान-परस्त धार्मिक कट्टरपंथी आतंकवादी गुट अपना सीमित लेकिन विचारणीय सामाजिक आधार विकसित करते चले गये। कश्मीरी जनता और उसके आत्मनिर्णय के अधिकार का आन्दोलन  भारत और पाकिस्तान के शासक बुर्जुआ वर्गों के टकराव के बीच पिसकर रह गया और कश्मीर दक्षिण एशिया की राजनीतिक बिसात पर बस एक मोहरा बनकर रह गया। 

कश्मीर आज दुनिया का सबसे अधिक 'मिलिटराइज़्ड जोन' है। क्या आप जानते हैं कि 'एसोसिएशन ऑफ़ पेरेंट्स ऑफ़ डिसअपीयर्ड पर्सन्स' मुख्यतः कश्मीर के दस हज़ार ग़ायब हो चुके नौजवानों की माँओं का संगठन है? कश्मीर में कई हज़ार उन स्त्रियों को 'हाफ़ विडो' कहा जाता है जिनके पतियों को सेना उठा ले गयी और वे नहीं जानतीं कि वे अब ज़िन्दा भी हैं या नहीं। क्या आपने कुनान पोशपुरा गाँव के बारे में सुना है जहाँ सौ कश्मीरी स्त्रियों के साथ वर्दीधारियों ने सामूहिक बलात्कार किया था? क्या आप शोपियां पहलगाम और हन्दवारा में भारतीय सेना द्वारा किये गये सामूहिक बलात्कारों के बारे में जानते हैं? क्या आपने  दर्दपुरा गाँव का नाम सुना है जिसे विधवाओं के गाँव के रूप में जाना जाता है। वहाँ आज भी चालीस साल से अधिक उम्र का एक भी मर्द नहीं है। क्या आपको पता है कि कश्मीर की सच्चाई सामने लाने वाले कितने कश्मीरी पत्रकार, कितने बुद्धिजीवी और कितने मानवाधिकार कार्यकर्ता आज जेल के सींखचों के पीछे हैं? और आपको यह भी नहीं पता होगा कि 2019 में कश्मीर में धारा 370 हटाये जाने से लेकर अबतक साढ़े तीन हज़ार कश्मीरी राजनीतिक बंदी भारत की अलग-अलग जेलों में बंद हैं! ये सच्चाइयाँ भारतीय सत्ताधारी और बुर्जुआ मीडिया कभी भी भारतीय नागरिकों के सामने नहीं आने देंगे  और कश्मीर हमेशा ही अंधराष्ट्रवादी युद्धोन्माद पैदा करने के लिए ईंधन के रूप में इस्तेमाल होता रहेगा। जाहिर सी बात है कि जबतक बंदूक के ज़ोर पर बर्बरतापूर्वक कश्मीरी जनता के आत्मनिर्णय के बुनियादी जनवादी अधिकार को दबाकर रखा जायेगा और जनान्दोलन की कोई भी गुंजाइश नहीं बची रहेगी, तबतक निराशा के दमघोंटू माहौल में जब-तब, यहाँ-वहाँ आतंकवादी गुट सरगर्म होते रहेंगे और पाकिस्तानी बुर्जुआ शासक भी उस आँच पर अपनी रोटी सेंकते रहेंगे। 

इसबार भी ऐसा ही हुआ है और अंधराष्ट्रवादी जुनून में बह रहे बहुतेरे जागरूक माने जाने वाले बुद्धिजीवी भी उन फ़ौरी बुनियादी सवालों को  नहीं उठा रहे हैं जो सबसे पहले उठाये जाने चाहिए। सबसे पहला सवाल तो यह बनता है कि पहलगाम के आतंकी जनसंहार के लिए सुरक्षा की भारी चूक की क्या अहम भूमिका नहीं थी? आखिर हत्याकाण्ड के घण्टों बाद तक सुरक्षा बल क्यों घटना स्थल पर नहीं पहुँचे? संवेदनशील इलाका होते हुए भी वहाँ पहले से सुरक्षा बलों की मौजूदगी क्यों नहीं थी? सवाल तो यह भी है कि जिसतरह पुलवामा की घटना 2019 के आम चुनावों के ऐन पहले हुई थी, उसीतरह पहलगाम की घटना बिहार विधानसभा चुनावों के ऐन पहले क्यों घटित हुई है? सवाल यह भी है कि पुलवामा की घटना और उसके पीछे की सुरक्षा चूकों की जाँच के क्या नतीजे निकले थे? जम्मू कश्मीर के पूर्व राज्यपाल सतपाल मलिक ने पुलवामा को लेकर जो सवाल उठाये थे उनपर सरकार की चुप्पी क्या बताती है? ये सभी सवाल युद्धोन्माद की लहर में बह गये हैं और ख़ुद को जनपक्षधर और तर्कशील मानने वाले लोग भी उसी लकीर पर सोच रहे हैं जिनपर यह सरकार उनसे सोचवाना चाहती है। 

सच यह है कि मँहगाई, बेरोज़गारी, मुद्रास्फीति , जनता के बुनियादी अधिकारों में लगातार कटौती, लगातार बढ़ते दमन, एक के बाद एक काले क़ानूनों के निर्माण तथा ईडी, सीबीआई, चुनाव आयोग, न्यायपालिका आदि की भूमिका और चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर उठ रहे सवालों के चलते गहराते जनाक्रोश को भटकाने और 'डिफ्यूज़' करने के लिए मोदी सरकार को सीमा पर झड़प या खुले युद्ध की जितनी ज़रूरत है, उतनी ही चतुर्दिक गहन संकट और जनाक्रोश के सैलाब से घिरी पाकिस्तान की शहबाज़ शरीफ़ सरकार को भी है। दोनों देश के सत्ताधारी चाहते हैं कि युद्धोन्मादी अंधराष्ट्रवाद की लहर में बहकर उनके देशों की जनता ज़िन्दगी के बुनियादी सवालों को कुछ समय के लिए भूल जाये। इसतरह,युद्ध या युद्ध का माहौल दोनों देशों के सत्ताधारियों की एक फ़ौरी ज़रूरत भी है। और बुर्जुआ शासक वर्गों को युद्ध से होने वाले सामान्य लाभों की हमने ऊपर चर्चा की ही है। 

साथ ही, यह नुक़्ता भी ग़ौरतलब है कि पाकिस्तान से युद्ध या युद्ध जैसी तनावपूर्ण स्थिति की मोदी की फ़ासिस्ट सरकार की एक महत्वपूर्ण उद्देश्यपूर्ति में अहम भूमिका हो सकती है। पाकिस्तान एक मुस्लिम देश है और जिस कश्मीर में आतंकी घटना को मुद्दा बनाया गया है, वह भी मुस्लिम बहुल क्षेत्र है। ऐसे में "मुस्लिम आतंकियों" को प्रश्रय देने वाले एक मुस्लिम देश के साथ युद्ध की स्थिति पूरे भारत की मुस्लिम अल्पसंख्यक आबादी को दुष्प्रचार का निशाना बनाकर अलग-थलग करने और फ़ासिस्ट आतंक का शिकार बनाने में विशेष सहायक सिद्ध होगी और यह काम लगातार हो भी रहा है। पहलगाम की घटना के बाद से ही गोदी मीडिया, भाजपा का आईटी सेल और तृणमूल स्तर पर संघ के अनुषंगी संगठन इस काम को ज़ोर शोर से और लगातार कर रहे हैं। पूरे देश में कश्मीरी छात्रों और व्यापारियों को हमले और धमकियों का निशाना बनाया गया। साथ ही मीडिया, संघी दस्ते और भाजपा का आईटी सेल ने 'हिन्दू-मुस्लिम'का खेल  और जोर-शोर से, और आक्रामकता के साथ खेलना शुरू कर दिया। युद्ध के बनते हुए माहौल में मोदी सरकार एक मुँह से "राष्ट्रीय एकता" की बात कर रही है और दूसरी ओर हिन्दुत्ववादी बहुसंख्यावादी फ़ासिज़्म के सैकड़ों मुँह तृणमूल स्तर पर मुस्लिम-विरोधी प्रचार में जी-जान से जुटे हुए हैं। 

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-- कात्यायनी