Sunday, December 01, 2024

एक मध्यवर्गीय विद्रूप काव्यात्मक विडम्बना

 

एक मध्यवर्गीय विद्रूप काव्यात्मक  विडम्बना  

कायरता तो जैसे हमारे ख़ून में थी

और इन्तज़ार करना हमारा जीवन था।

प्रार्थना पत्रों और निवेदनों की भाषा 

हमें घुट्टी में पिलायी गयी थी 

और मामूली लोगों के प्रति थोड़ी दया और कृपालुता ही

हमारी प्रगतिशीलता थी।

हमारी  दुनियादारी को लोग

भलमनसाहत समझते थे।

संगदिली हमारी उतनी ही थी 

जितनी कि तंगदिली।

अत्याचार और मूर्खता से उतने भी दूर नहीं थे हम

जितना कि दिखाई देते थे और दिखलाते थे।

जब ज़ुल्म की बारिश हो रही हो

और कुछ भी बोलना जान जोखिम में डालना हो

तो हम चालाकी से अराजनीतिक हो जाते थे

या कला और सौन्दर्य के अतिशय आग्रही,

या प्रेम, करुणा, अहिंसा, मानवीय पीड़ा,

ख़ुद को बदलने आदि की बातें करने लगते थे।

और लोग इसे हमारी सादगी और भोलापन 

समझते थे या अतिसंवेदनशीलता।

न जाने हम दुर्दान्त तपस्वी थे वनवासी 

या कला की असाध्य वीणा के अप्रतिम साधक

या अपना हृदय किसी ऊँचे शमी वृक्ष के कोटर में 

रखकर भेस बदलकर बस्तियों में घूमने वाला

कोई मायावी अमानुष

या महज एक दीर्घजीवी कछुआ, 

लेकिन इतना तय था कि कुछ भी 

मनुष्योचित नहीं रह गया था 

हमारे भीतर।

हमारी आत्मा की आँखें नहीं थीं

और न ही कान।

हाँ लेकिन कविताएँ हम

बहुत सुन्दर लिख लेते थे।

**

(1 Dec 2024)

Wednesday, November 27, 2024

Love letter to the might

 

मेरी कविता 'ताक़त के नाम प्रेमपत्र' का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया है लेखक-कवि-पत्रकार-अनुवादक साथी विनोद चन्दोला ने। पाठकों की सुविधा के लिए नीचे मूल कविता भी दे दी गयी है। 

An English rendition of a poem by Kavita Krishnapallavi

Love letter to the might 

- Kavita Krishnapallavi

You are upset in vain oh, poet

I will shield your love letters," 

said the powerful man seated 

on the tall throne

bowing toward the poet.

Then he rose and opened a giant almirah

with the keys.

Took the bundle of love letters from the poet and placed it in the almirah 

between some skulls, books of occult and law,

maps filled with dried stains of blood

and daggers and swords.

Then he said to the poet, “There, sit there on that chair

and choose from multi-colored pens 

any pen that is dear to your heart

and write an ornate love letter

to the murderous greatness,

write another praising the terroristic power, 

and then one more,

to the desire for immortality.”

Translation : Vinod K. Chandola


मूल कविता:

ताक़त के नाम प्रेमपत्र

"नाहक तुम इतने परेशान ह़ो कवि! 

मैं बचाऊँगा तुम्हारे प्रेमपत्रों को,"

कहा ऊँचे सिंहासन पर बैठे

उस ताक़तवर आदमी ने

कवि की ओर झुकते हुए।

फिर वह उठा और एक विशाल अलमारी को खोला

चाभी लगा कर। 

कवि से प्रेमपत्रों का गट्ठर लेकर उसने रखा

उस अलमारी में

कुछ खोपड़ियों, तंत्र विद्या और क़ानून की किताबों, 

ख़ून के सूखे धब्बों से भरे मानचित्रों

और चाकुओं-तलवारों के बीच। 

फिर उसने कवि से कहा, "वहाँ

उस कुर्सी पर बैठो

और  रंग-बिरंगी कलमों में से चुन लो

कोई मनचाही कलम

और एक सुन्दर प्रेमपत्र लिखो

हत्यारी महानता के नाम, 

एक और लिखो आतंककारी ताक़त के नाम

और फिर एक और, 

अमरता की चाहत के नाम। 

**


Saturday, November 23, 2024

कविता की एक रात

 

कविता की एक रात

सुदूर उत्तर-पूर्व से बहती हुई

रक्त-रेखा चुपचाप एक नदी बनती 

आगे बढ़ रही थी। 

मानचित्र के शीर्ष पर केसर के खेतों में

राइफलें खड़ी थीं। 

मध्य क्षेत्र में जंगल कटे पड़े थे

और लाशें गिर रही थीं

कटे पेड़ों की तरह। 

हवा में जो प्रदूषण था उसमें

ज़हरीली गैसों से अधिक दमघोटू

आतंक की गंध थी। 

उन्मादी शोर का ध्वनि प्रदूषण चरम पर था। 

समंदर की छाती पर टिमटिमाती बत्तियांँ

अनुपस्थित थीं उस रात

और सिर्फ़ कुछ आवाज़ें थीं रहस्यमय

अँधेरे में। 

चाँद गहरी नींद सो रहा था

और तारे शोकाकुल थे। 

बस कुछ कवि जग रहे थे

रात्रि के इस बेचैन प्रहर में

उद्विग्नचित्त, 

दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत, 

सर्वप्रिय कविता लिखने की कोशिशों में

डूबे हुए। 

दरबार से बुलावा आया था। 

अगले दिन ही रवानगी थी। 

**

(23 Nov 2024)


Tuesday, November 19, 2024

उदासी के गीत और प्रेम की कविताएँ मेरे लिए

 

उदासी के गीत और प्रेम की कविताएँ मेरे लिए

वह कच्ची समझ का एक रूमानी ज़माना था

जब मेरे पास भी उदासी के गीतों

और प्रेम की कविताओं का एक पूरा खजाना था। 

दुनिया-ज़माने के तमाम दुख तब हाशिये पर

निवास करते थे

और अक्सर तो अपने ही दुख और राग-विराग

समूची दुनिया के लगा करते थे। 

उदासी के गीतों और प्रेम की कविताओं की

कभी गिनती नहीं की मैंने

न उनके बारे में किसी को राज़दार बनाया। 

फिर कवियों के हिसाब से जब प्यार में

डूब मरने के दिन थे

तब मैंने देखा अपने देश में राख-अँधेरे की बारिश

और नेरूदा से ही यह नज़र मिली कि जब

गलियों में लहू बह रहा हो

तो कविता में फूल-पत्ती और मौसम की बातें

भला कैसे कर सकता है कोई सच्चा कवि

और यह भी कि, 

दिल को सच्ची कविता का आवास बनाये बिना

भला कैसे हो सकता है कोई सच्चा प्रेमी! 

इसतरह जब कविताओं और सच्चे प्यार के

दिन आये तो पुरानी रूमानियत से लबरेज़ डायरियों

और पुरानी प्रेम कविताओं के साथ

पुराने प्रेमपत्रों को भी जलाने के दिन आ गये। 

और नये प्रेम की नयी तलाश भी यहीं से शुरू होनी थी। 

प्रेम आया भी बहुत सारा, और बहुत सारे रूपों में

लेकिन नयी दुविधाओं और समस्याओं के साथ। 

मेरी चाहतों और सपनों की राह 

उन घाटियों से होकर जाती थी

जहाँ ज़िन्दगी की ख़ूबसूरती पर

राख बरसती रहती थी

और इंसाफ़पसंदगी को दहशतगर्दी का

दरजा दे दिया गया था। 

इसी राह मैं चली लेकिन चाँद और इन्द्रधनुष

और चुम्बनों की चाहत से सराबोर मेरे किसी भी

प्रेमी को ज़िन्दगी जोखिम में डालना

मंजूर नहीं था। 

प्यार हो या इंसाफ़, इनकी क़ीमत

ज़िन्दगी से अधिक नहीं, उनका कहना था। 

जाहिर है कि मैंने नहीं बदला अपना फ़ैसला

क्योंकि मैं प्यार के लिए भी ज़िन्दगी दे सकती थी

और इंसाफ़ और आज़ादी के लिए  भी

और शेली से भी मुझे प्यार था

और वाल्ट ह्विटमन से भी

और नाज़िम हिकमत और नेरूदा से भी। 

एक लम्बा बीहड़ रास्ता तय करते हुए

बरसों का वक़्त गुज़ारने के बाद

एक दिन अचानक पाया कि

उदासी के कुछ गीत

और प्रेम की ढेर सारी कविताएँ

इस पूरे सफ़र के दौरान

मेरे पीछे-पीछे चलती रहीं थीं

चुपचाप, 

जैसे ख़ुद ही मोल ली गयीं

कुछ ख़ूबसूरत और प्यारी मुसीबतें

बग़ावत की ज़िन्दगी के तमाम

अपरिहार्य जोखिमों के साथ-साथ। 

**

(19 Nov 2024)

__________________________

(एक नोट: आम तौर पर कविताओं को किसी टिप्पणी के साथ देना अच्छी बात नहीं। लेकिन फिर भी मुझे ज़रूरी लगा। इस कविता की ज़मीन के बारे में मैं कुछ बातें करना चाहती हूँ।

इधर मैं हिन्दी के युवा कवियों में युवा नेरूदा की कविताओं के पहले संकलन 'बीस प्रेम कविताएँ और उदासी का एक गीत' के प्रति अद्भुत दीवानगी का मंज़र देख रही हूँ। बेशक़ इन कविताओं में नेरूदा की सर्जनात्मक प्रतिभा का एक स्फोट दीखता है, लेकिन  एक क्रांतिकारी रोमान के जादू और क्रूर यथार्थ के हठी प्रतिरोध के महाकवि नेरूदा का जन्म इसके बाद होता है, और वह भी काफ़ी चढ़ावों-उतारों से गुज़रने के बाद। ज्ञात हो कि एक युवा ने जब आत्महत्या की तो उसके बाजू में 'बीस प्रेम कविताएँ और उदासी का एक गीत' संकलन खुला पड़ा था और खुली किताब के पन्नों पर ख़ून के छींटे थे। इस घटना ने नेरूदा को हिलाकर रख दिया और उन्होंने तय किया कि यह उनकी कविता का रास्ता नहीं हो सकता। अब यह एक अलग कहानी है कि पश्चिमी अवांगार्द धाराओं के प्रभाव के बाद नेरूदा ने अपनी मिट्टी की गंध वाली नयी एपिकल किस्म की शैली कैसे ईजाद की और अपनी जनता की कठिन ग़ुलामी भरी ज़िन्दगी को देखते हुए उसके संघर्षों में भागीदारी करते हुए कैसे अपनी ज़िन्दगी दाँव पर लगा दी। मुझे तो नेरूदा की इसी दौर की प्रेम कविताएँ उद्दाम और उदात्त प्रेम की कविताएँ लगती हैं जैसे नाज़िम हिकमत की प्रेम कविताएँ! 

आज के कई प्रगतिशील जनवादी कवियों को भी दरअसल उदासी बहुत पसंद आती है, कारण कि वे स्वयं एलियनेशन और अवसाद के शिकार हैं। इससे मुक्ति के लिए संघर्ष की मनोगत शक्ति उनके पास नहीं है, 'जन-संग-ऊष्मा उनके पास नहीं है। काफ़्काई उदासी (हालांँकि काफ़्का में सिर्फ़ यही नहीं है, बहुत कुछ सकारात्मक भी है), दोस्तोवस्कियन नैराश्यपूर्ण द्वंद्व (उनके सघन मानवीय सरोकार और नैतिक द्वंद्व नहीं) और निर्मलवर्माई अवसादग्रस्तता उन्हें दिल से पसंद आती है और उनका ज़मीर उनसे आज़ादी और इंसाफ़ के पक्ष में खड़ा होने के लिए आवाज़ देता है। 

तीसरी ओर से एक और आवाज़ भी आती है और मुक्तिबोध के शब्दों में, 'कीर्ति के इठलाते नितम्बों' को देखकर लालच का परिंदा चोंच मारने के लिए उड़ान भरने को उतावला हो जाता है। आज के ज़माने में कीर्ति तो तभी मिलेगी जब कविता में उदासी और अकेलेपन के कुछ आख्यान रचे जायें, थोड़ी प्रगतिशीलता के रूपकों-बिम्बों की सजावट के साथ!  इसी खींचतान में बिचारे कई युवा कवि एकदम खिंच गये हैं। प्रेमिका कोई पट नहीं रही है, कविता में सिद्धि थोड़ी मिल भी जाये तो अपेक्षित प्रसिद्धि नहीं मिल रही। उधर व्यवस्था ऐसी कि कैरियर भी अधर में।  ऐसे में,  अगर विचारधारा की मनोगत शक्ति ज़बरदस्त न हो और जीवन-लक्ष्य स्पष्ट न हो, तो उदासी के गीत गाने, और अकेलेपन के बेकल विलापों-आलापों से भरी प्रेम कविताएँ लिखने के अतिरिक्त और रास्ता भी क्या बचता है इक्कीसवीं सदी की प्रेमदग्ध विकल युवा प्रेतात्माओं के पास! 

यही सबकुछ सोचते हुए एक कविता दिमाग़ में कौंधी और उसे मैंने एक सांँस में लिख डाला।)



Monday, November 18, 2024

 

'मैं इतनी तरह के अपमान सहता रहा, जिनकी गिनती करना कठिन है : सिर्फ़ इसलिए कि मेरी कविता सस्ती होकर एक रिरियाहट बनने से बची रहे।' 

~ पाब्लो नेरुदा

__________________

हिन्दी कविता के परिदृश्य के सन्दर्भ में,

'यश की कामना और अमरत्व के लिए

मैंने इतनी तिकड़में कीं, इतनी जुगत भिड़ाई,

इतनी तरह के अपमान सहे

जिनकी गिनती करना कठिन है।

मिली तो प्रसिद्धि, पुरस्कार भी मिले

लेकिन मेरी कविता 

बस रिरियाहट बनकर रह गयी।'

Sunday, November 17, 2024

हत्यारों और सौदागरों का लोकतंत्र और कला-साहित्य के मेले


 हत्यारों और सौदागरों का लोकतंत्र और कला-साहित्य के मेले

फिर सत्तासीन हत्यारों और सौदागरों ने

बार-बार एक-दूसरे को हृदय से धन्यवाद कहा। 

इसके बाद हत्यारों ने सौदागरों से कहा,

"अब कला-साहित्य-संस्कृति का एक रंगारंग मेला लगाओ

और एक भव्य मंच सजाओ

और वहाँ अपने लोगों के साथ कुछ

जनवादियों और प्रगतिशीलों को भी बुलाओ।" 

फिर ऐसा ही हुआ और कुछ जनवादी और प्रगतिशील भी

पहुँचे उस साहित्यिक महाकुम्भ में। 

उन्होंने वीरतापूर्वक निहायत नफ़ीस और कलात्मक भाषा में

सत्ता की आलोचना भी की और कुछ सुझाव भी दिये। 

फिर लौटकर उन जनवादियों और प्रगतिशीलों ने

छाती ठोंककर कहा कि हम तो उनके मंच पर जाकर भी

अपनी बात कह आते हैं। 

उधर हत्यारों ने असहमत लोगों से कहा,

"अब तो मान लो कम्बख्तो

कि हम कितने लोकतांत्रिक हैं

और अपनी आलोचनाओं के प्रति कितने सहिष्णु

और कितने उदार! 

अरे हम तो हत्या करने के पहले भी

बहुसंख्या की सहमति लेते हैं

और लोकतंत्र और संविधान का पूरा सम्मान करते हैं। 

लोगों की सहमति लेकर ही हम शासन करते हैं।" 

फिर हर्षोन्मत्त उन्मादी भीड़ ने जैकारे लगाये

और शासन करने वालों से पूछा कि असहमत लोगों का क्या करना है? 

इसपर ठठाकर हँसे हत्यारे

और शरारत से आँखें नचाते हुए बोले, 

"क्या यह भी बताना पड़ेगा!"

**

(17 Nov 2024)

Saturday, November 16, 2024

ताक़त के नाम प्रेमपत्र

 

ताक़त के नाम प्रेमपत्र

"नाहक तुम इतने परेशान ह़ो कवि! 

मैं बचाऊँगा तुम्हारे प्रेमपत्रों को,"

कहा ऊँचे सिंहासन पर बैठे

उस ताक़तवर आदमी ने

कवि की ओर झुकते हुए।

फिर वह उठा और एक विशाल अलमारी को खोला

चाभी लगा कर। 

कवि से प्रेमपत्रों का गट्ठर लेकर उसने रखा

उस अलमारी में

कुछ खोपड़ियों, तंत्र विद्या और क़ानून की किताबों, 

ख़ून के सूखे धब्बों से भरे मानचित्रों

और चाकुओं-तलवारों के बीच। 

फिर उसने कवि से कहा, "वहाँ

उस कुर्सी पर बैठो

और  रंग-बिरंगी कलमों में से चुन लो

कोई मनचाही कलम

और एक सुन्दर प्रेमपत्र लिखो

हत्यारी महानता के नाम, 

एक और लिखो आतंककारी ताक़त के नाम

और फिर एक और, 

अमरता की चाहत के नाम। 

**

(16 Nov 2024)


Sunday, November 10, 2024

कुत्त कविता...

 

कुत्त कविता... 

कुत्ती बोली हम तो बस अपना ही पेट भरे हैं

जनवादी कवियों को  देखो  कैसे त्याग करे हैं

ताकतवर लोगों की ड्योढ़ी पर ना शीश झुकावें

चाह नहीं पद-पीठ-प्रतिष्ठा रजधानी में पावें

कुत्ता बोला कुत्ती से, डार्लिंग वह गया ज़माना

सीखा है कुछ कवियों ने कविता से भी कुछ पाना

जनवादी कविता पढ़ वे बेचेंगे रजनीगंधा

बज्रबुद्धि क्या जानें कितनो चोखो है यह धंधा। 

ऐसा धंधा कभी नहीं होता है जल्दी मंदा

धंधा तो धंधा है इसमें क्या सुथरा क्या गंदा

बने रहेंगे प्रगतिशील और उर्फ़ी संग नाचेंगे

हत्यारों का हृदय बदलकर शान्तिमंत्र बाँचेंगे

उनका जियरा लगा हुआ है जनगण के मंगल में

कौन भला देखेगा नाचे मोर अगर जंगल में

बहुत शुद्धतावादी होने से ना काम चलेगा

नहीं चढ़ा जो बड़े मंच पर कैसे बड़ा बनेगा

जनता का कवि बड़ा बना तो जनता बड़ी बनेगी

वरना अपने दुख के सागर में ही पड़ी रहेगी

रैम्पवाक कर कविगण अपना जलवा दिखला देंगे

लुच्चों और लफंगों को भी संस्कृति सिखला देंगे

कुत्ता फिर बोला दिल्ली जलसे में हम जायेंगे

नये ढंग का प्रगतिशील बनकर वापस आयेंगे

सनक गये हो बहक गये हो, भड़क के बोली कुत्ती

संग तुम्हारे दिल्ली जायेगी मेरी यह जुत्ती। 

**

लॉंग लिव द स्कूल ऑफ़ कुत्त पोयट्री!

(10 Nov 2024)

***

कुत्त कविता:
कुत्ता बोला कुत्ती से, दिल्ली में मंच सजा है
जन तक जन संस्कृति पहुँचाने का फिर बिगुल बजा है
चल कुत्ती इस बार न मौका हम कतई चूकेंगे
भजन करेंगे हवन करेंगे सुर-लय में भूँकेंगे
नाचेंगी फिल्मी बालाएँ, संग हम भी नाचेंगे
मादक धुन पर ठुमक-ठुमक जनवादी कविता बाँचेंगे
कुत्ती बोली, कुत्ता हो कुत्ते जैसा ही रहना
इन कवियों जैसा मत सीखो तुम भी रंग बदलना
**
लाँग लिव द स्कूल ऑफ़ कुत्त पोयट्री!

(9 Nov 2024)

 

प्रश्न यहाँ किसी से तुलना करके किसी को अच्छा ठहराने का नहीं है, न ही किसी का मज़ाक उड़ाने का है। उर्फ़ी की कोई अपनी स्वतंत्र अस्मिता नहीं है। वह पहनावे और फ़ैशन का जो ढब प्रस्तुत करती हैं, वह स्त्री शरीर के वस्तुकरण के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। वह बुर्जुआ कल्चर इण्डस्ट्री और उसी से सम्बद्ध फ़ैशन इण्डस्ट्री के एक टूल से अधिक कुछ भी नहीं हैं। यह कल्चर इण्डस्ट्री जिस उपभोक्ता समाज के लिए अपने उत्पाद तैयार करती है उसकी बीमार सांस्कृतिक अभिरुचियों में से मर्दवादी यौन पिपासा एक अहम घटक है। 

उर्फ़ी जैसों की कोई स्वतंत्र अस्मिता नहीं होती। वह उस बाज़ार तंत्र की एक ग़ुलाम हैं जिसकी सूत्रधार प्रोमोटर व प्रायोजक कम्पनियांँ, मुनाफ़े में हिस्सा बँटाने वाली विज्ञापन एजेंसियाँ, मीडिया मुगल्स और फ़ैशन डिज़ाइनर्स आदि होते हैं। उर्फ़ी जैसी तो सिर्फ़ कठपुतलियांँ होती हैं। उर्फ़ी की अल्पवस्त्रता उनकी वैयक्तिक नागरिक स्वतंत्रता से नहीं, कल्चर इण्डस्ट्री और फ़ैशन इण्डस्ट्री की माँग से निर्धारित होती है। बीच पर कम कपड़े या नग्नता किसी नागरिक का अपना स्वतंत्र चयन होता है, चाहे मर्दवादी कामपिपासु मनोरोगी और रूढ़िवादी स्त्रियाँ उसे जिस निगाह से देखें। उर्फ़ी जैसों की दुनिया एक अलग दुनिया है। कोई संजीदा आदमी या स्त्री उर्फ़ी का मजाक भला क्यों उड़ायेगा, या आलोचना भला क्यों करेगा! हाँ, यौन मनोरोगी मर्दों या विचारहीन "नैतिकतावादी" स्त्रियों की बात और है। मज़ाक, आलोचना और भर्त्सना के पात्र तो वे तथाकथित प्रगतिशील कवि-लेखक-संस्कृतिकर्मी हैं जो एक फ़ासिस्टी गोदी मीडिया का मंच सजाने में उर्फ़ी जावेद के साथ भागीदारी करके अपनी "प्रगतिशीलता" को बुर्जुआ कल्चर इण्डस्ट्री का भी एक हिस्सा बना रहे हैं।

***

(दोस्त रेखा चमोली की पोस्ट पर मेरा कमेंट जिसे स्वतंत्र पोस्ट के रूप में देना उपयोगी लगा) 

( रेखा चमोली की पोस्ट : "बाहर गजब की कविता , कहानी लिखने वाले और भीतर से सड़े गले , स्त्रिद्वेषी , पुरुषद्वेषी , रूढ़िवादी , धर्मान्ध , डरे हुए , सुविधानुसार व्यवहार करने वाले , असमानता से भरे कुछेक उन साहित्यकारों ( महिला पुरुष दोनों ) से लाख बेहतर हैं वे स्त्रियाँ जो जैसी भीतर हैं , वैसी ही बाहर भी दिखती हैं। 

"क्योंकि उनका वैसा दिखना उनकी रोजी रोटी निभाता है।  उनके काम की मांग है। दुनिया उनके आगे पीछे डोलती है। उनको भला बुरा कहती है। उनको छुप छुप के देखती है। उनको लाख गलियाती है पर उनको इग्नोर नहीं कर सकती। डरती है ये दुनिया उनसे।")

(10 Nov 2024)

Wednesday, October 30, 2024

गुरुत्वाकर्षण-विहीनता में थोड़ी देर

 

गुरुत्वाकर्षण-विहीनता में थोड़ी देर

सड़क, घर -- सब बादलों से भरे हुए थे। 

जहाँ कुछ ख़ाली जगहें थीं

वहाँ तारे बैठे-अधलेटे बातें कर रहे थे। 

दुखों की पुरानी बस्तियों में संगीत 

डेरा डाले हुए था। 

आसमान में एक नीली झील थी

जिसमें मछलियाँ और कछुए तैर रहे थे

उड़ने की तरह। 

कई किलोमीटर लम्बी कूँचियों से

हम क्षितिज के कैनवास पर 

रंगों का मेला रच रहे थे। 

फिर गुरुत्वाकर्षण ने कहा, 

"अब बस भी करो

मैं आ रहा हूँ।"

सयानों ने पहले ही बताया था हमें

कि सपने, प्यार और कविता की

गुरुत्वाकर्षण-विहीन दुनिया में 

बहुत लम्बे समय तक रुके रहने के बाद

आदमी वहीं का होकर रह जाता है, 

चाहे भी तो वास्तविकता में

वापस नहीं लौट पाता। 

हमने वास्तविकता की दुनिया में रहते हुए

सपने देखे, प्यार किया, कविताएँ लिखीं, 

इंसाफ़ के लिए ज़रूरी लड़ाइयाँ लड़ीं

और मनुष्य की तरह बचे रहे। 

**

(30 Oct 2024)

Monday, October 28, 2024

 

मेरे पास एक विश्वविद्यालय की डिग्री है, मैंने चार किताबें और सैकड़ों निबन्ध लिखे हैं, लेकिन अभी भी मैं पढ़ने में ग़लतियांँ किया करता हूंँ। तुम मुझे 'गुड मॉर्निंग' लिखती हो और मैं उसे 'आई लव यू' पढ़ लेता हूँ।

-- महमूद दरवेश

Friday, October 25, 2024

पुरातन यातनाएंँ

 

पुरातन यातनाएंँ

पूरे इतवार खारे पानी का

एक ग्लेशियर तोड़ती रही। 

सोमवार से शनिवार तक

बहता रहा घास के मैदानों में

नमक घुला गाढ़ा पानी। 

अब ओर-छोर तक चमक रही है

हरियाली पर नमक की सफ़ेद पपड़ी। 

अगले हफ़्ते जो राही यहाँ से गुजरेंगे

उन्हें लगेगा कि यहाँ शायद कोई 

खारे पानी की झील रही होगी

जो अब सूख चुकी है। 

जैसे ग़ैरमामूली कविताएँ लिखते हुए

सिद्ध कवि मामूली लोगों की 

मामूली ज़िन्दगी को भूल चुके हैं, 

वैसे ही, ठीक वैसे ही, 

इतिहास के जमे हुए पुरातन दुखों को 

ज्ञानी लोग भूल चुके हैं

और उन्हें तोड़कर पिघला देना

तो उनके लिए एकदम अकल्पनीय है। 

**

(25 Oct 2024)

Saturday, October 19, 2024

फ़ासिस्ट समय में प्रेम की बातें


 फ़ासिस्ट समय में प्रेम की बातें

एक शाम बरबस कोई याद आयी

और पूरब में क्षितिज के छोर पर

एक इन्द्रधनुष उग आया। 

इसीतरह एक बार आधी रात 

आयी थी एक याद

और पारिजात के फूल झरझर झरने लगे थे। 

एक सुबह  जब ऐसी ही एक याद ने

दस्तक दी थी

तो घाटी में घनघोर बारिश होने लगी थी। 

यादों का क्या! 

वक़्त-बेवक़्त यूँ ही आ धमकती हैं

और उनका कोई मौसम भी नहीं होता। 

लेकिन मौसमों के बदलने का समय

लगभग तय हुआ करता है

और प्राकृतिक आपदाओं के भी

लगभग सटीक पूर्वानुमान 

लगाये जाने लगे हैं। 

पूँजीवादी संकट, मंदी और महामंदी

के पूर्व संकेतों को भी पहचान लेते हैं 

अर्थशास्त्रीगण। 

फ़ासिस्टी नफ़रत की आँधी

इन्तज़ार नहीं करती कि हम प्रेम और

इन्तज़ार और उदासी के दौरों से

फ़ारिग़ हों तो वह आये

और बर्बरता का घटाटोप रचे। 

अब यह हमारे-आपके ऊपर है

कि हम सड़कों पर उसका मुक़ाबला करें

या अपने कमरे में बैठे यादों में डूबे रहें

और निष्कलुष प्रेम की सुन्दर

प्रेम कविताएँ लिखते रहें। 

जीवन की आपदाओं से दूर बैठकर

लिखी गयी बेहद सुन्दर प्रेम कविताएँ भी

हृदय में छुपे स्वार्थ और निर्ममता को

उजागर करने का ही काम करती हैं

और हृदयहीनता और कुरूपता का

नया सौन्दर्यशास्त्र रचती हैं। 

यूँ प्रेम तो धड़कता रहता है हृदय में

ज़रूरी लड़ाइयों के मोर्चों पर भी

और जेल की काल कोठरियों में भी। 

सच्चा प्रेम हर सूरत में जोखिम का

काम होता है

और सच्चे प्रेमी कठिन दिनों में

अपने प्यार को ढूँढ़ते हैं

बर्बरता के विरुद्ध युद्ध की तैयारी की

सरगर्मियों के बीच। 

वे उन बंद दरवाज़ों पर दस्तक नहीं देते

जहाँ बाहर छज्जे पर मधुमालती की 

बेलें लटकती रहती हैं

और पारिजात के फूल झरते रहते हैं। 

**

(19 Oct 2024)

Wednesday, October 16, 2024

नीमतारीक वक़्तों की एक दास्तान

 

नीमतारीक वक़्तों की एक दास्तान

ये अफ़्सुर्दगी का आलम

ये दहशत की बारिश

ये वहशत की आँधी

ये ख़ूनी सैलाब

और इसमें जीना  जियाले अंदाज़ में। 

कोई वक़्फ़ा नहीं दम लेने को

न मरहला ठहरने को

ना इतना वक़्त कि मरासिम बढ़ाते

गुलाबी ख्व़ाबों के साथ। 

ख़ुशियों का रंग भूरा

और उदासी का रंग हरा हुआ किया

हमारे ज़माने में

और शिकस्ता सूरतें ऐसी आईनों में आसपास कि

मुँह क्या खुलता शिक़ायत दर्ज कराने को

अपने हिस्से की लड़ाई हार चुके

उन पुरखों की अदालत में

जिनकी टूटी-फूटी क़ब्रों पर

झाड़ियाँ उग आयीं थीं

हालाँकि रात के वीराने में

जब क़बरबिज्जू घूमते थे

और चमगादड़ उड़ते थे पूरे क़ब्रिस्तान में

तो झाड़-झंखाड़ के बीच जुगनू भी चमकते थे। 

बताते चलें कि उधर ही हमने कभी

प्यार के कुछ सरसब्ज़ दिन बिताये थे

जब शहर में सरगोशियाँ थीं किसम-किसम की, 

अफ़वाहें उड़ रहीं थीं हमारी दहशतगर्दी की

और बताया जा रहा था कि संविधान की

कसम खाकर हुकूमत सम्हालने के बाद

क़ातिलों की जमात अब अमन-ओ-चैन और

अदम-ए-तशद्दुद की हामी हो चुकी है। 

अभी हम सोयी हुई उम्मीदों के

एक जंगल में बसेरा किये हुए हैं

और खनकती हुई, भुला दी गयी, 

नाक़ाबिल-यक़ीन क़रार दे दी गयी, 

जोश और उमंग भरी आवाज़ों को

ज़िन्दा दिलों तक पहुँचाने के लिए

ज़मींदोज़ रास्ते तैयार कर रहे हैं। 

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अफ़्सुर्दगी -- बेरौनक़ी, उदासी

वहशत -- उन्माद, पागलपन

जियाले -- दिलेर, साहसी

वक़्फ़ा -- सुकून, फुर्सत, दम लेने की मोहलत

मरहला -- पड़ाव, ठिकाना

मरासिम -- ताल्लुक़ात, मेलजोल

शिकस्ता -- टूटा हुआ, थका-हारा

सरसब्ज़ -- ख़ुशहाल, हरा-भरा

सरगोशियाँ -- कानाफूसी

अदम-ए-तशद्दुद -- अहिंसा

(16 Oct 2024)

Friday, October 11, 2024

रोशनाबाद कविता-श्रृंखला

 

किशन की बातें

किशन  तीन साल पहले देवरिया से 

आया था हरिद्वार। 

कुछ दिन होटलों में बेयरे का काम किया

फिर फ़ैक्ट्री मज़दूर का जीवन चुन लिया। 

बारहवीं पास था और आईटीआई भी किया था

और अख़बार ही नहीं, कहानी-उपन्यास भी

पढ़ता था। 

किराये की कोठरी में तीन और मज़दूर रहते थे

उसके साथ जो उसे 

दिलचस्प जीव मानते थे और दोस्त भी। 

किशन कभी सीधे ढंग से

नहीं करता था कोई बात। 

उसके अपने मुहावरे होते थे, 

रूपक और बिम्ब होते थे। 

जब फैक्ट्री से ब्रेक दे देते थे मालिक

तो लेबर चौक जाता था। 

लेबर चौक को 'सोनपुर का पशु मेला' कहता था। 

वहाँ जाने से पहले कहता था, "देखें आज

कोई कसाई बकरे को किस भाव ले जाता है!"

बस्ती में घूमते सूदखोरों के आदमियों को

देखकर आवाज़ लगाता था "हुँड़ार

घूम रहे हैं बे! इधर-उधर हो जाना!"

लेबर कांट्रैक्टरों को 'ग़ुलामों का सौदागर'

कहता था और लेबर ऑफिस को 'बाईजी का कोठा!'

फ़ैक्ट्री में जाते मज़दूरों की टोलियों को पुकार कर

कहता था, "भेड़ा भाई लोग ऊन उतरवाने

जा रहे हैं!"

एक फ़ैक्ट्री से तो इस बात पर निकाल भी दिया गया था

कि सुपरवाइज़र को पता चल गया था कि

वह उसे 'गड़रिए का कुक्कुर' कहता है पीठ पीछे। 

देसी दारू को उसने 'प्राणजीवकसुधा'

का नाम दे रखा था

और दोस्तों की दारू पार्टी होनी हो तो कहता था कि आज

सभी अघोरी समसान में तंत्र साधना करेंगे।'

दारू पीने के बाद अक्सर कहता था कि हम

ऐसी नस्ल की भेड़ें हैं जिनका ऊन 

रोज़ उतारा जाता है। 

किशन कहता था, "भेड़ों के ऊन से बनी रस्सी से भी

फाँसी का बहुत मज़बूत फंदा बन सकता है

लेकिन इस बात को समझने के लिए

भेड़ों को आदमी बनना पड़ेगा!"

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हुँड़ार - लकड़बग्घा

(11 Oct 2024)