Tuesday, November 18, 2025

पराजय के दिनों में सर्वहारा राजनीति का क़सीदा

 

तुम नहीं गाती हो

खोयी हुई चीज़ों का शोकगीत।

बस उन्हें स्मृतियों में सुरक्षित रखती हो। 

जो निर्माण किया जाना है भविष्य में

तुम उसकी कविता सुनाती हो

कभी एक सहज बयान

तो कभी एक फंतासी की शैली में। 

तुम पूर्वजों के आख्यानों में

जीवितों की साँसें पिरोती हो

और यूटोपिया को विज्ञान में

बदल देती हो। 

तुम जीने के लिए मरना सिखाती हो, 

धरती के अभागों को 

सपने देखना सिखाती हो, 

और दबे-कुचले लोगों को

बग़ावत में उठ खड़े होने में

मनुष्य होने का अहसास कराती हो। 

तुम्हारी संगत में हमने जाना कि 

बुराइयों से नफ़रत किये बिना

अच्छाइयों से प्यार नहीं किया जा सकता

और तुमसे ही हमने जाना कि

बार-बार के विपर्ययों 

और अंधकार युगों की वापसी के बावजूद इतिहास का अंत कभी नहीं होता

और रोटी, इंसाफ़ और बराबरी के लिए

जारी लड़ाई से जो कभी पीछे नहीं हटते

उनके जीवन में अकथ दुख आते हैं

लेकिन रंगों की कभी मृत्यु नहीं होती। 

आततायी बागों को उजाड़ते रहते हैं

लेकिन फूल अपने लिए खिलने की जगह

ढूँढ़ ही लेते हैं। 

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(18 Nov 2025)

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