आज से लगभग 50 साल पहले 'भंगिमा' में छपी शशि प्रकाश की एक लम्बी कविता –
‘यात्रा में : सुदर्शन भाई से कविता सम्वाद’ का एक अंश
आत्मपीड़ा का दाह, दृष्टि का सुकून और कविता का उपसंहार
फिर भी सुदर्शन भाई,
यह कैसे कहूँ कि दुःख नहीं है।
न जाने दर्द की कितनी तहे हैं–
लेकिन आग भी तो है। खुली आँखें भी तो हैं/ बहती ज़िन्दगी भी तो है।
न जाने वर्जना और भय की कितनी ग्रन्थियाँ हैं–
लेकिन आग भी तो है/खुली आँखें भी तो हैं/बहती ज़िन्दगी भी तो है।
मैं रोज़ चाहता हूँ बेदर्दी से
इस गन्दी दिमागी पूँजी की
एक–एक तह को उधेड़कर जला देना।
रोज चाहता हूँ जल्दी से होना
वह आख़िरी लड़ाई, जल प्रलय
उसका उत्तरवर्ती वह मनु
भविश्ववत हिम गिरि के किसी
उत्तुंग शिखर पर बैठा हुआ।
मैं अच्छी ज़िन्दगी की भूमिका
सही ज़िन्दगी के रूप में चाहता हूँ।
यानी आग चाहता हूँ
आवाज़ चाहता हूँ
प्यार चाहता हूँ
हथियार चाहता हूँ
यानी वह सब,
जो चाहता है रणतत्पर कामगार।
..... आइये, हम अपनी रफ़्तार तेज़ करें,
कहीं हम बिचौलिये होकर ही न रह जायें।
उधर देखिये,
जिनको नज़र देने की हमारी
जिम्मेदारी है
वे मज़बूत बाजुओं वाले लोग
काफ़ी क़रीब आ गये हैं
झुग्गियों खेतों से चलकर
साफ़ सुथरी आग के साथ
(सही दिशा में ले जाने वाली
हवा के झोंके की प्रतीक्षारत आग)
क्या आप
उनकी आवाज़ सुन रहे हैं?
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