इक सुनहली याद
जैसे खेत में छूटी पके दानों की इक बाली।
कि जैसे भोर के धुँधले क्षितिज पर
उभरती लाली।
कि जैसे रात में बांदल नदी यह दून घाटी की
और इसके किनारे
बिना पत्तों का खड़ा यह पेड़।
उदासी रात सी निस्तब्ध।
लेकिन इस अँधेरे में कहीं से आ रही है रोशनी
लम्बा सफ़र तय करके।
रक्तवर्णी फूल हँसते हैं
वहाँ निस्संग डालों पर।
हिलते हैं, उमगते हैं
लपकते पास आने को।
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(6 Jul 2025)
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