लोकप्रिय होने का अतिरेकी लोभ कविता को जीवन के ज्वलंत प्रश्नों पर गहन विमर्श से दूर ले जाता है, गतानुगतिकता के कोल्हू का बैल बना देता है, या फिर लोकरंजकतावाद (पॉप्युलिज़्म) की गड़ही में धकेल कर गिरा देता है। त्वरित लोकस्वीकार्यता का लोभी कवि यथास्थिति की और सांस्कृतिक वर्चस्व की शक्तियों की निर्भीक आलोचना की धार खो देता है और कालान्तर में, प्रायः, संस्कृति प्रतिष्ठानों के फाटक पर बैठा पत्तल चाटता हुआ पाया जाता है।
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