Saturday, March 08, 2025

एक नीले सपने का क़सीदा

 

काले-भूरे राजकीय हिंसा के घटाटोप में

लाल रक्त घुल रहा था अँधेरे में। 

सड़कों पर फ़ासिस्ट शोर का साम्राज्य था

मन्दिरों के घण्टे पूरी ताक़त के साथ 

बज रहे थे

और क़ब्रिस्तान में रात की वीरानगी में

पीले जुगनू चमक रहे थे।

पीछा करते हत्यारों से बचने के लिए मैं

तंग घुमावदार अँधेरी गलियों से होकर

भाग रही थी कि सहसा

नींद में या कि जागे में

खुला एक दरवाज़ा

और मैं वास्तविक या कि अवास्तविक

किसी और दुनिया में प्रवेश कर गयी। 

वहाँ एक सपने के नीलेपन में

सबकुछ नहाया हुआ था। 

एक काव्यात्मक नीले आवेग में। 

उम्मीदों से लबरेज़

निर्भीक तरुणाई के निष्कलुष नीलेपन में। 

चाँदनी भी बरस रही थी नीली। 

वनस्पतियों ने इजाज़त माँगी थी वहाँ उस रात

कि नीली हो जायें। 

नीलेपन के उस स्वप्निल विस्तार में

मैंने एक लाल रंग का सपना देखा। 

शायद सपने में एक सपना

और ख़ुशी से मर गयी। 

नीला पड़ गया मेरा शरीर

और नीले सपने में घुल गया।

फ़र्श पर पड़ा था पराजित,  किंकर्तव्यविमूढ़

इस्पात का वही चमकता हुआ चाकू

जो मेरी पीठ में धँसा हुआ था। 

**

(8 Mar 2025)


No comments:

Post a Comment