Friday, March 07, 2025

 नेपाली कवि कामरेड  बलराम तिमल्सिना ने 'काठ का कुन्दा' कविता का नेपाली भाषा में अनुवाद किया है। 

काठको मुढो !

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पोखरीको किनारामा 

एक छेउ पानीलाई छोएको

अनि अर्को छेउ

एउटा भत्किएको झुपडीमा गाडिएको

एउटा काठको मुढो छ ।

पानीमा परेको भागलाई

हरियो लेऊले छोपेको छ 

झुपडीतिर धसिएको भागलाई 

स-साना नीला फूल फुल्ने 

जङ्गली लहराले छोपेको छ ।

बीचको भागमा 

एउटा सानो टोड्को छ 

जहाँ एउटा सानो चराको गुँड छ ।

काठको एउटा सडिरहेको मुढासँग पनि

यदि यति धेरै जिन्दगी, आशा ,प्रेम

जिजीविषा ,युयुत्सा

र हरियालीका लागि 

यति धेरै स्थान हुन सक्छ भने 

मान्छे भनेको त मान्छे नै हो नि !

अँ , यदि मान्छे नै काठको मुढो भैसकेकै हो भने 

कुरा निकै अप्ठेरो छ।

त्यस्तो खाले मानिस 

वास्तविक काठको मुढो भन्दा पनि

हजारौं गुणा बढी गएगुज्रेको हुन्छ ।

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©Kavita Krishnapallavi 

अनु :बलराम

  मूल कविता

काठ का कुन्दा 

पोखर के किनारे पड़ा हुआ है 

काठ का एक लम्बा कुन्दा 

अपने एक सिरे से पानी को छूता हुआ,

दूसरा सिरा एक टूटी हुई झोंपड़ी में धँसा हुआ।

पानी में पड़े हिस्से को ढँक रखा है हरित शैवाल ने।

झोंपड़ी में धँसे हिस्से को छाप रखा है 

छोटे-छोटे नीले फूलों वाली जंगली लतर ने।

बीच के हिस्से में एक छोटा सा खोखल है 

किसी छोटी सी चिड़िया का बसेरा।

काठ के एक सड़ते हुए कुन्दे के पास भी 

अगर इतनी ज़िन्दगी, इतनी उम्मीदें, इतना प्यार,

इतनी जिजीविषा, इतनी युयुत्सा 

और हरियाली की इतनी जगह  है 

तो आदमी तो फिर भी आदमी है।

हाँ, अगर आदमी ही काठ का कुन्दा बन चुका हो

तो मामला संगीन है।

ऐसा आदमी एक वास्तविक काठ के कुन्दे से भी 

गया-गुज़रा होता है हज़ार गुना।

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