Tuesday, March 04, 2025

पहाड़ों में बर्फ़बारी का क़सीदा

 

ओ सफ़ेद झबरे पिल्ले! 

आओ लुकाछिपी खेलें। 

तुम्हारी ऊब की उधड़ी हुई गेंद लेकर

मैं हरे पत्तों में छुपा दूँगी। 

तुम उसे ढूँढ़ते-ढूँढ़ते पानी बन जाओगे। 

ऐसे ही मैंने छुपा कर रख दी थीं

सालों पहले की एक नीरस बर्फ़बारी में

पाला मारे पत्तों की ढेरी में

अपनी कुछ गुप्त चीज़ें

कुछ ख़ुद की कमाई और कुछ विरासत में हासिल, 

और वे मुझे फिर कभी नहीं मिलीं। 

लेकिन मुझे मिलती रहीं कुछ दूसरी 

नयी-नयी चीज़ें, मसलन, 

एक हरी गेंद, 

एक गुलूबंद, 

बारहसिंगे के सींग, 

स्की की एक जोड़ी, 

बर्फ़ काटने की कुल्हाड़ी, 

चिट्ठियों और मानचित्रों से भरा एक थैला, 

उपजाऊ मिट्टी में बदलने को तत्पर

राख की एक ढेरी जो पिछली गर्मियों की

जंगल की आग की निशानी थी, 

और ऐसी ही कुछ दूसरी चीज़ें। 

इनका बेशक़ एक संग्रहालय भी

बनाया जा सकता था

लेकिन ऐसी चीज़ों को, जैसे कि किताबों को, 

या कविताओं को, या सपनों को 

इकट्ठा करने पर

आतंकवादी क़रार दिया जा सकता था

और जलावतनी की सज़ा सुनाई जा सकती थी। 

तेजाब की तरह मैदानों में बरसती हैं 

आदमखोर बुराइयाँ बारहों मास। 

जानलेवा बाढ़ का पानी कभी उतरता ही नहीं। 

भोर के तारे ख़ून से लाल उगते हैं। 

हवा रुदालियों की तरह रोती है। 

पहाड़ों की बर्फ़बारी की 

नीरवता में होना भी

माना जाता है राज्यसत्ता के ख़िलाफ़।

चलो हम और ऊँचाइयों की ओर चलें

यूँ ही लुकाछिपी का नाट्य रचते हुए

एक-दूसरे को दौड़ाते हुए

और अपनी तमाम बटोरी हुई चीज़ें

बर्फ़ में गहरे गाड़ दें 

कहीं ऐसी जगह

जहाँ सिर्फ़ साहसी खोजी यात्री ही

पहुँच सकते हों 

आने वाले समय में। 

चाँदनी में रुई के फाहे की तरह 

उड़ रहा है

नटखट सफ़ेद झबरा पिल्ला। 

चाँद हँस रहा है 

टेढ़ा उगते इकलौते दाँत वाले 

शिशु की तरह। 

पीछे छूट गयी कविताओं की डायरी

एक हिम तेंदुआ 

चबा-चबाकर खा रहा है। 

तीन हरी-कत्थई कलगियों वाले 

भोजपत्र के ठूँठ पर बैठी

मैं एक नयी कविता लिख रही हूँ। 

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(4 Mar 2025)

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