Monday, March 24, 2025

एक अकेले दुख का क़सीदा

 

मृत निजी क्षणों की अवांछित संतान था वह। 

एक अकेला दुख। अनाथ। 

उगा था दिल के नीमअँधेरे, सीलनभरे कोने में। 

एक मटमैले मशरूम की तरह। 

किसी लापरवाही का नतीजा। 

कुपोषित। क्षयग्रस्त। पीतमुख।

घाटी के छोटे से वीरान रेलवे स्टेशन पर अक्सर

घूमता मिलता था निरुद्देश्य। 

मध्यकालीन पत्थर की सीढ़ियों के

हर मोड़ पर ठहरकर

आसपास उदास नज़रें डालता हुआ

वापस लौटता था

घरों के पीछे की गलियों से होकर

लोगों से बचता-बचाता

अपने खण्डहर हो रहे निवास तक जाता था

जब घुग्घू रातों की रहस्यमयी यात्राओं पर

निकल चुके होते थे। 

सामूहिक दुखों के संग-साथ से

अपरिचित वह एकान्तिक निजी दुख

एक रात अपने असह्य अकेलेपन से त्रस्त

किसी विरल आपवादिक क्षण में

बस्ती की मुख्य सड़क पर आ गया हठात्

या शायद अनायास। 

एक घर का दरवाज़ा थोड़ा सा धकेल

झाँका उसने अन्दर। 

वहाँ शोर था एक-दूसरे से अपरिचित लेकिन

नितान्त आत्मीय सामूहिक दुखों का

और जीवन के अनन्त उल्लास का

और उम्मीदों का समूह नृत्य चल रहा था।

ये भाप की तरह उड़कर आये थे

रोज़मर्रा की ज़िन्दगी के समन्दर से

और उस कमरे में उमड़-घुमड़ कर बरस रहे थे। 

घबराकर झट दरवाज़ा भेड़ दिया उसने। 

बेइख्तियार उमड़ आये आँसुओं की तरह

वह फिर अपने कोटर में वापिस 

लौट जाना चाहता था लेकिन

अपनी उत्सुकता दबा नहीं पाया और

पीछे की ओर जाकर एक बन्द खिड़की की

झिरियों से भीतर झाँकने लगा। 

उसे ख़ुद भी पता नहीं चला कि कब 

एक साँप की तरह रेंगता हुआ वह खिड़की से

अन्दर घुसा और कोने में रखे धूल-गर्द से ढँके

पुराने पियानो में समा गया। 

जब भी मामूली लोगों की ज़िन्दगी के

सामूहिक दुखों या उल्लास का शोर 

शिखर पर होता था

पियानो रोता था चुपचाप।

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(24 Mar 2025)

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