Sunday, March 16, 2025

पहाड़ों की सर्दियों की कठिन रात का क़सीदा

 

 इस चोटी से उस चोटी तक

घाटी के आरपार फैले

विशाल काले कम्बल के किस कोने में

सुनहरी नागिन 'हिस्स-हिस्स' कर रही है?

ओ सुनहरी नागिन! यहाँ नहीं मिलेंगे तुम्हें

बिल्लौरी आँखों वाले घमण्डी हरे मेढक

और मुझे डँसकर तुम विषरिक्त हो जाओगी। 

मैं तो बची रहूँगी फिर भी

लेकिन तुम कहाँ जाओगी अपने सन्देहों

और अपनी प्यास  के साथ? 

सो जाओ इस  विशाल अँधेरे

विस्तार के किसी कोने में। 

देखो, उधर इतिहास से डरी हुई

चितकबरी बिल्ली सो रही है

भविष्य की अनिश्चितता के बारे में आश्वस्त 

बूढ़े भूरे खरगोश के साथ। 

महत्वाकांक्षी घुग्घुओं का आकलन है कि यह

लम्बी रात उनकी प्रसिद्धि का युग है। 

नदी के इस पार से बेचैन चकवी पुकार रही है

पिछले पहर से

और मर्दवादी चकवा नहीं दे रहा कोई जवाब। 

इतनी रात को सफ़ेद चाँदनी की सिसकियों के बीच

किसके लिए चमक रही हैं हिममण्डित चोटियाँ

और आसमान से झरते दूध की फुहारों में

भीग पा रहे हैं कितने शोकसंतप्त हृदय?

नीचे घाटी की कटोरी में तैर रहे हैं जो जुगनू

कहीं डूबकर मर तो न जायेंगे? 

सारे आदमखोर गुलदार तराई के साल के

जंगलों की ओर चले गये हैं। 

क्या वे आगे मैदानों की ओर जायेंगे? 

वहाँ तो पहले से ही आदमखोरों का 

आतंक है  इनदिनों! 

उधर राजधानी की हवा में इतना प्रदूषण है

कि किसी भी तरह से देखी नहीं जा सकतीं

पहाड़ों पर टिमटिमाती बत्तियाँ। 

और हमें भी तो नहीं पता कि कितनी दूर तक

जाती है इन जलती बत्तियों की रोशनी

सघन कोहरे को भेदती हुई। 

हठी बत्तियाँ फिर भी जलती रहती हैं हर रात।

मैदानी महानगरों के कलाकेन्द्रों में 

रूपवादी कछुए

खुर्दबीनों पर झुके हुए नयी कला-सामग्रियों की

जाँच-पड़ताल में डूबे रहते हैं। 

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(16 Mar 2025)


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