लो, मैंने रख दिया है
पूरब से लाया हुआ यह घायल, मूर्छित
लाल गुलाब
इस निर्जन पर्वत शिखर पर
एकाकी उदास सरू वृक्ष की
संरक्षणशील छाया में
ध्यानमग्न पुरातन चट्टान के पास
पवित्रता के मिथकों और
प्यार के काले-भूरे ध्वंसावशेषों से दूर।
यहाँ छलना ऋतुओं के मोहक वायदों पर
भरोसा करने की कोई बाध्यता नहीं है।
हवा हाँफती हुई ढोकर ला रही है नीचे से
किसी ऐतिहासिक पियानो का प्रदीर्घ शोकगीत।
बहते जल में वैराग्य जगा रही हैं
प्राचीन मन्दिर की हिलती घण्टियाँ।
स्मृतियों में सोयी हैं कितनी अपरिहार्य
और नैसर्गिक ग़लतियाँ
आसमानी रंग की चादर ओढ़े हुए।
कहाँ हैं महान पवित्र अपराधों के
पुरातात्विक प्रमाण?
बसन्त की कविताएँ चुरा लेने वाला इन्द्रधनुष
कब आने वाला है इकतारा बजाते
बस्ती-बस्ती भटकते जोगी के
अधूरे प्यार की कथा सुनाने?
ओ सुदूर घाटियों से आये बूढ़े चरवाहे!
तुम्हारी बाँसुरी कहाँ है और तुम्हारा कम्बल?
घायल सूरज लुढ़कने ही वाला है
शिखर से उस पार की ढलान पर
चारों ओर अपना गाढ़ा लाल ख़ून फैलाते हुए।
तुम्हारी बकरियाँ सोयेंगी कहाँ
ऐसी डरावनी रातों में
जब मक्कार हिमालयी तेंदुए की परछाइयाँ
सपनों तक में डोलती रहती हैं
और बुरे वक़्तों की फ़तहयाबी का सिलसिला
जारी रहता है।
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(24 Feb 2025)
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