Wednesday, December 11, 2024

ऐसी ट्रैजेडी यह नीच...

 

 कालेज के दिनों में बढ़िया गाते थे, 

आन्दोलनों में आगे-आगे चलते हुए नारे लगाते थे, 

मुहब्बत और इंक़लाब की कविताएँ भी

लिखते-सुनाते थे मनोहर लाल शर्मा जी। 

गुज़रे दिनों को वह याद करते हैं

नास्टैल्जिक और उदास होकर

और फिर सब्ज़ीबाड़ी में निराई-गुड़ाई करने

चले जाते हैं। 

वर्तमान समय के बारे में चुप रहते हैं

या क्षुब्ध। 

भविष्य की बात आती है तो सिर्फ़

अपने बच्चों के बारे में सोचते हैं

आशंका और अनिश्चितता से भरे हुए। 

एक सपना था पुराना कि फिर से कविता लिखेंगे

जो हो नहीं सका। 

फिर ख़याल आया एक दिन कि कविता नहीं

कुछ गद्य-वद्य ही लिखें

और काग़ज़-कलम लेकर बैठ गये डाइनिंग टेबल पर। 

असम्भव सा लग रहा था फिर भी जमे रहे। 

इतने में पत्नी ने आकर कहा,"मिर्चे का अँचार

भरने के लिए मसाला चाहिए, आनलाइन

मंँगाने में शुद्धता की कोई गारंटी नहीं होती। 

शनिवारी बाज़ार लगा है, चलो चलकर लाते हैं।"

सहसा जैसे हलक़ में कुछ अँटक गया। 

फूटने को हुई बरसों से दबी हुई रुलाई। 

तेज़ी से उठकर भागे बाथरूम की ओर

मनोहर लाल शर्मा जी। 

**

(11 Dec 2024)


No comments:

Post a Comment