एक मध्यवर्गीय विद्रूप काव्यात्मक विडम्बना
कायरता तो जैसे हमारे ख़ून में थी
और इन्तज़ार करना हमारा जीवन था।
प्रार्थना पत्रों और निवेदनों की भाषा
हमें घुट्टी में पिलायी गयी थी
और मामूली लोगों के प्रति थोड़ी दया और कृपालुता ही
हमारी प्रगतिशीलता थी।
हमारी दुनियादारी को लोग
भलमनसाहत समझते थे।
संगदिली हमारी उतनी ही थी
जितनी कि तंगदिली।
अत्याचार और मूर्खता से उतने भी दूर नहीं थे हम
जितना कि दिखाई देते थे और दिखलाते थे।
जब ज़ुल्म की बारिश हो रही हो
और कुछ भी बोलना जान जोखिम में डालना हो
तो हम चालाकी से अराजनीतिक हो जाते थे
या कला और सौन्दर्य के अतिशय आग्रही,
या प्रेम, करुणा, अहिंसा, मानवीय पीड़ा,
ख़ुद को बदलने आदि की बातें करने लगते थे।
और लोग इसे हमारी सादगी और भोलापन
समझते थे या अतिसंवेदनशीलता।
न जाने हम दुर्दान्त तपस्वी थे वनवासी
या कला की असाध्य वीणा के अप्रतिम साधक
या अपना हृदय किसी ऊँचे शमी वृक्ष के कोटर में
रखकर भेस बदलकर बस्तियों में घूमने वाला
कोई मायावी अमानुष
या महज एक दीर्घजीवी कछुआ,
लेकिन इतना तय था कि कुछ भी
मनुष्योचित नहीं रह गया था
हमारे भीतर।
हमारी आत्मा की आँखें नहीं थीं
और न ही कान।
हाँ लेकिन कविताएँ हम
बहुत सुन्दर लिख लेते थे।
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