Tuesday, November 19, 2024

उदासी के गीत और प्रेम की कविताएँ मेरे लिए

 

उदासी के गीत और प्रेम की कविताएँ मेरे लिए

वह कच्ची समझ का एक रूमानी ज़माना था

जब मेरे पास भी उदासी के गीतों

और प्रेम की कविताओं का एक पूरा खजाना था। 

दुनिया-ज़माने के तमाम दुख तब हाशिये पर

निवास करते थे

और अक्सर तो अपने ही दुख और राग-विराग

समूची दुनिया के लगा करते थे। 

उदासी के गीतों और प्रेम की कविताओं की

कभी गिनती नहीं की मैंने

न उनके बारे में किसी को राज़दार बनाया। 

फिर कवियों के हिसाब से जब प्यार में

डूब मरने के दिन थे

तब मैंने देखा अपने देश में राख-अँधेरे की बारिश

और नेरूदा से ही यह नज़र मिली कि जब

गलियों में लहू बह रहा हो

तो कविता में फूल-पत्ती और मौसम की बातें

भला कैसे कर सकता है कोई सच्चा कवि

और यह भी कि, 

दिल को सच्ची कविता का आवास बनाये बिना

भला कैसे हो सकता है कोई सच्चा प्रेमी! 

इसतरह जब कविताओं और सच्चे प्यार के

दिन आये तो पुरानी रूमानियत से लबरेज़ डायरियों

और पुरानी प्रेम कविताओं के साथ

पुराने प्रेमपत्रों को भी जलाने के दिन आ गये। 

और नये प्रेम की नयी तलाश भी यहीं से शुरू होनी थी। 

प्रेम आया भी बहुत सारा, और बहुत सारे रूपों में

लेकिन नयी दुविधाओं और समस्याओं के साथ। 

मेरी चाहतों और सपनों की राह 

उन घाटियों से होकर जाती थी

जहाँ ज़िन्दगी की ख़ूबसूरती पर

राख बरसती रहती थी

और इंसाफ़पसंदगी को दहशतगर्दी का

दरजा दे दिया गया था। 

इसी राह मैं चली लेकिन चाँद और इन्द्रधनुष

और चुम्बनों की चाहत से सराबोर मेरे किसी भी

प्रेमी को ज़िन्दगी जोखिम में डालना

मंजूर नहीं था। 

प्यार हो या इंसाफ़, इनकी क़ीमत

ज़िन्दगी से अधिक नहीं, उनका कहना था। 

जाहिर है कि मैंने नहीं बदला अपना फ़ैसला

क्योंकि मैं प्यार के लिए भी ज़िन्दगी दे सकती थी

और इंसाफ़ और आज़ादी के लिए  भी

और शेली से भी मुझे प्यार था

और वाल्ट ह्विटमन से भी

और नाज़िम हिकमत और नेरूदा से भी। 

एक लम्बा बीहड़ रास्ता तय करते हुए

बरसों का वक़्त गुज़ारने के बाद

एक दिन अचानक पाया कि

उदासी के कुछ गीत

और प्रेम की ढेर सारी कविताएँ

इस पूरे सफ़र के दौरान

मेरे पीछे-पीछे चलती रहीं थीं

चुपचाप, 

जैसे ख़ुद ही मोल ली गयीं

कुछ ख़ूबसूरत और प्यारी मुसीबतें

बग़ावत की ज़िन्दगी के तमाम

अपरिहार्य जोखिमों के साथ-साथ। 

**

(19 Nov 2024)

__________________________

(एक नोट: आम तौर पर कविताओं को किसी टिप्पणी के साथ देना अच्छी बात नहीं। लेकिन फिर भी मुझे ज़रूरी लगा। इस कविता की ज़मीन के बारे में मैं कुछ बातें करना चाहती हूँ।

इधर मैं हिन्दी के युवा कवियों में युवा नेरूदा की कविताओं के पहले संकलन 'बीस प्रेम कविताएँ और उदासी का एक गीत' के प्रति अद्भुत दीवानगी का मंज़र देख रही हूँ। बेशक़ इन कविताओं में नेरूदा की सर्जनात्मक प्रतिभा का एक स्फोट दीखता है, लेकिन  एक क्रांतिकारी रोमान के जादू और क्रूर यथार्थ के हठी प्रतिरोध के महाकवि नेरूदा का जन्म इसके बाद होता है, और वह भी काफ़ी चढ़ावों-उतारों से गुज़रने के बाद। ज्ञात हो कि एक युवा ने जब आत्महत्या की तो उसके बाजू में 'बीस प्रेम कविताएँ और उदासी का एक गीत' संकलन खुला पड़ा था और खुली किताब के पन्नों पर ख़ून के छींटे थे। इस घटना ने नेरूदा को हिलाकर रख दिया और उन्होंने तय किया कि यह उनकी कविता का रास्ता नहीं हो सकता। अब यह एक अलग कहानी है कि पश्चिमी अवांगार्द धाराओं के प्रभाव के बाद नेरूदा ने अपनी मिट्टी की गंध वाली नयी एपिकल किस्म की शैली कैसे ईजाद की और अपनी जनता की कठिन ग़ुलामी भरी ज़िन्दगी को देखते हुए उसके संघर्षों में भागीदारी करते हुए कैसे अपनी ज़िन्दगी दाँव पर लगा दी। मुझे तो नेरूदा की इसी दौर की प्रेम कविताएँ उद्दाम और उदात्त प्रेम की कविताएँ लगती हैं जैसे नाज़िम हिकमत की प्रेम कविताएँ! 

आज के कई प्रगतिशील जनवादी कवियों को भी दरअसल उदासी बहुत पसंद आती है, कारण कि वे स्वयं एलियनेशन और अवसाद के शिकार हैं। इससे मुक्ति के लिए संघर्ष की मनोगत शक्ति उनके पास नहीं है, 'जन-संग-ऊष्मा उनके पास नहीं है। काफ़्काई उदासी (हालांँकि काफ़्का में सिर्फ़ यही नहीं है, बहुत कुछ सकारात्मक भी है), दोस्तोवस्कियन नैराश्यपूर्ण द्वंद्व (उनके सघन मानवीय सरोकार और नैतिक द्वंद्व नहीं) और निर्मलवर्माई अवसादग्रस्तता उन्हें दिल से पसंद आती है और उनका ज़मीर उनसे आज़ादी और इंसाफ़ के पक्ष में खड़ा होने के लिए आवाज़ देता है। 

तीसरी ओर से एक और आवाज़ भी आती है और मुक्तिबोध के शब्दों में, 'कीर्ति के इठलाते नितम्बों' को देखकर लालच का परिंदा चोंच मारने के लिए उड़ान भरने को उतावला हो जाता है। आज के ज़माने में कीर्ति तो तभी मिलेगी जब कविता में उदासी और अकेलेपन के कुछ आख्यान रचे जायें, थोड़ी प्रगतिशीलता के रूपकों-बिम्बों की सजावट के साथ!  इसी खींचतान में बिचारे कई युवा कवि एकदम खिंच गये हैं। प्रेमिका कोई पट नहीं रही है, कविता में सिद्धि थोड़ी मिल भी जाये तो अपेक्षित प्रसिद्धि नहीं मिल रही। उधर व्यवस्था ऐसी कि कैरियर भी अधर में।  ऐसे में,  अगर विचारधारा की मनोगत शक्ति ज़बरदस्त न हो और जीवन-लक्ष्य स्पष्ट न हो, तो उदासी के गीत गाने, और अकेलेपन के बेकल विलापों-आलापों से भरी प्रेम कविताएँ लिखने के अतिरिक्त और रास्ता भी क्या बचता है इक्कीसवीं सदी की प्रेमदग्ध विकल युवा प्रेतात्माओं के पास! 

यही सबकुछ सोचते हुए एक कविता दिमाग़ में कौंधी और उसे मैंने एक सांँस में लिख डाला।)



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