फ़ासिस्ट समय में प्रेम की बातें
एक शाम बरबस कोई याद आयी
और पूरब में क्षितिज के छोर पर
एक इन्द्रधनुष उग आया।
इसीतरह एक बार आधी रात
आयी थी एक याद
और पारिजात के फूल झरझर झरने लगे थे।
एक सुबह जब ऐसी ही एक याद ने
दस्तक दी थी
तो घाटी में घनघोर बारिश होने लगी थी।
यादों का क्या!
वक़्त-बेवक़्त यूँ ही आ धमकती हैं
और उनका कोई मौसम भी नहीं होता।
लेकिन मौसमों के बदलने का समय
लगभग तय हुआ करता है
और प्राकृतिक आपदाओं के भी
लगभग सटीक पूर्वानुमान
लगाये जाने लगे हैं।
पूँजीवादी संकट, मंदी और महामंदी
के पूर्व संकेतों को भी पहचान लेते हैं
अर्थशास्त्रीगण।
फ़ासिस्टी नफ़रत की आँधी
इन्तज़ार नहीं करती कि हम प्रेम और
इन्तज़ार और उदासी के दौरों से
फ़ारिग़ हों तो वह आये
और बर्बरता का घटाटोप रचे।
अब यह हमारे-आपके ऊपर है
कि हम सड़कों पर उसका मुक़ाबला करें
या अपने कमरे में बैठे यादों में डूबे रहें
और निष्कलुष प्रेम की सुन्दर
प्रेम कविताएँ लिखते रहें।
जीवन की आपदाओं से दूर बैठकर
लिखी गयी बेहद सुन्दर प्रेम कविताएँ भी
हृदय में छुपे स्वार्थ और निर्ममता को
उजागर करने का ही काम करती हैं
और हृदयहीनता और कुरूपता का
नया सौन्दर्यशास्त्र रचती हैं।
यूँ प्रेम तो धड़कता रहता है हृदय में
ज़रूरी लड़ाइयों के मोर्चों पर भी
और जेल की काल कोठरियों में भी।
सच्चा प्रेम हर सूरत में जोखिम का
काम होता है
और सच्चे प्रेमी कठिन दिनों में
अपने प्यार को ढूँढ़ते हैं
बर्बरता के विरुद्ध युद्ध की तैयारी की
सरगर्मियों के बीच।
वे उन बंद दरवाज़ों पर दस्तक नहीं देते
जहाँ बाहर छज्जे पर मधुमालती की
बेलें लटकती रहती हैं
और पारिजात के फूल झरते रहते हैं।
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