नीमतारीक वक़्तों की एक दास्तान
ये अफ़्सुर्दगी का आलम
ये दहशत की बारिश
ये वहशत की आँधी
ये ख़ूनी सैलाब
और इसमें जीना जियाले अंदाज़ में।
कोई वक़्फ़ा नहीं दम लेने को
न मरहला ठहरने को
ना इतना वक़्त कि मरासिम बढ़ाते
गुलाबी ख्व़ाबों के साथ।
ख़ुशियों का रंग भूरा
और उदासी का रंग हरा हुआ किया
हमारे ज़माने में
और शिकस्ता सूरतें ऐसी आईनों में आसपास कि
मुँह क्या खुलता शिक़ायत दर्ज कराने को
अपने हिस्से की लड़ाई हार चुके
उन पुरखों की अदालत में
जिनकी टूटी-फूटी क़ब्रों पर
झाड़ियाँ उग आयीं थीं
हालाँकि रात के वीराने में
जब क़बरबिज्जू घूमते थे
और चमगादड़ उड़ते थे पूरे क़ब्रिस्तान में
तो झाड़-झंखाड़ के बीच जुगनू भी चमकते थे।
बताते चलें कि उधर ही हमने कभी
प्यार के कुछ सरसब्ज़ दिन बिताये थे
जब शहर में सरगोशियाँ थीं किसम-किसम की,
अफ़वाहें उड़ रहीं थीं हमारी दहशतगर्दी की
और बताया जा रहा था कि संविधान की
कसम खाकर हुकूमत सम्हालने के बाद
क़ातिलों की जमात अब अमन-ओ-चैन और
अदम-ए-तशद्दुद की हामी हो चुकी है।
अभी हम सोयी हुई उम्मीदों के
एक जंगल में बसेरा किये हुए हैं
और खनकती हुई, भुला दी गयी,
नाक़ाबिल-यक़ीन क़रार दे दी गयी,
जोश और उमंग भरी आवाज़ों को
ज़िन्दा दिलों तक पहुँचाने के लिए
ज़मींदोज़ रास्ते तैयार कर रहे हैं।
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अफ़्सुर्दगी -- बेरौनक़ी, उदासी
वहशत -- उन्माद, पागलपन
जियाले -- दिलेर, साहसी
वक़्फ़ा -- सुकून, फुर्सत, दम लेने की मोहलत
मरहला -- पड़ाव, ठिकाना
मरासिम -- ताल्लुक़ात, मेलजोल
शिकस्ता -- टूटा हुआ, थका-हारा
सरसब्ज़ -- ख़ुशहाल, हरा-भरा
सरगोशियाँ -- कानाफूसी
अदम-ए-तशद्दुद -- अहिंसा
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