किशन की बातें
किशन तीन साल पहले देवरिया से
आया था हरिद्वार।
कुछ दिन होटलों में बेयरे का काम किया
फिर फ़ैक्ट्री मज़दूर का जीवन चुन लिया।
बारहवीं पास था और आईटीआई भी किया था
और अख़बार ही नहीं, कहानी-उपन्यास भी
पढ़ता था।
किराये की कोठरी में तीन और मज़दूर रहते थे
उसके साथ जो उसे
दिलचस्प जीव मानते थे और दोस्त भी।
किशन कभी सीधे ढंग से
नहीं करता था कोई बात।
उसके अपने मुहावरे होते थे,
रूपक और बिम्ब होते थे।
जब फैक्ट्री से ब्रेक दे देते थे मालिक
तो लेबर चौक जाता था।
लेबर चौक को 'सोनपुर का पशु मेला' कहता था।
वहाँ जाने से पहले कहता था, "देखें आज
कोई कसाई बकरे को किस भाव ले जाता है!"
बस्ती में घूमते सूदखोरों के आदमियों को
देखकर आवाज़ लगाता था "हुँड़ार
घूम रहे हैं बे! इधर-उधर हो जाना!"
लेबर कांट्रैक्टरों को 'ग़ुलामों का सौदागर'
कहता था और लेबर ऑफिस को 'बाईजी का कोठा!'
फ़ैक्ट्री में जाते मज़दूरों की टोलियों को पुकार कर
कहता था, "भेड़ा भाई लोग ऊन उतरवाने
जा रहे हैं!"
एक फ़ैक्ट्री से तो इस बात पर निकाल भी दिया गया था
कि सुपरवाइज़र को पता चल गया था कि
वह उसे 'गड़रिए का कुक्कुर' कहता है पीठ पीछे।
देसी दारू को उसने 'प्राणजीवकसुधा'
का नाम दे रखा था
और दोस्तों की दारू पार्टी होनी हो तो कहता था कि आज
सभी अघोरी समसान में तंत्र साधना करेंगे।'
दारू पीने के बाद अक्सर कहता था कि हम
ऐसी नस्ल की भेड़ें हैं जिनका ऊन
रोज़ उतारा जाता है।
किशन कहता था, "भेड़ों के ऊन से बनी रस्सी से भी
फाँसी का बहुत मज़बूत फंदा बन सकता है
लेकिन इस बात को समझने के लिए
भेड़ों को आदमी बनना पड़ेगा!"
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हुँड़ार - लकड़बग्घा
(11 Oct 2024)
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