पुरातन यातनाएंँ
पूरे इतवार खारे पानी का
एक ग्लेशियर तोड़ती रही।
सोमवार से शनिवार तक
बहता रहा घास के मैदानों में
नमक घुला गाढ़ा पानी।
अब ओर-छोर तक चमक रही है
हरियाली पर नमक की सफ़ेद पपड़ी।
अगले हफ़्ते जो राही यहाँ से गुजरेंगे
उन्हें लगेगा कि यहाँ शायद कोई
खारे पानी की झील रही होगी
जो अब सूख चुकी है।
जैसे ग़ैरमामूली कविताएँ लिखते हुए
सिद्ध कवि मामूली लोगों की
मामूली ज़िन्दगी को भूल चुके हैं,
वैसे ही, ठीक वैसे ही,
इतिहास के जमे हुए पुरातन दुखों को
ज्ञानी लोग भूल चुके हैं
और उन्हें तोड़कर पिघला देना
तो उनके लिए एकदम अकल्पनीय है।
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(25 Oct 2024)
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