रात के अँधेरे में लकड़बग्घों की हँसी
सच्चाई और न्याय के लिए
जीवनपर्यन्त लड़ने का संकल्प
प्रवहमान रहता है सघन अँधेरे में भी
स्वच्छ, पारदर्शी जल की
पहाड़ी से उतरती
एक पतली धारा की तरह।
मैदानों में उतरते ही
इतिहास में अमरत्व की दुर्दम्य आकांक्षा
की मानवीय गाद उसे ज़्यादा से ज़्यादा
प्रदूषित करती चली जाती है।
इस प्रदूषित धारा में आचमन करते हैं
वे दम्भी, यशलोलुप, विकट विद्वान
जो सोचते हैं कि दुनिया उनका इन्तज़ार
कर रही है कि वे आयें और दुनिया की
तरह-तरह से व्याख्या करें, विमर्श करें
और दुनिया बदलने की राह दिखायें।
यूँ कहते तो वे भी यही हैं
कि जनता इतिहास बनाती है
लेकिन हमेशा आम लोगों से
और अपने साथियों से अधिक,
यूँ कहें कि पूरी तरह,
अपने आप पर भरोसा करते हैं,
सिर्फ़ अपने आप पर।
कालांतर में ऐसे लोग ख्याति अर्जित करते हैं
देश से विदेश तक ताक़तवर
और सुरक्षित लोगों के बीच
और इसतरह ज्ञान की ताक़त को
एक बार फिर सिद्ध करते हैं।
अपने लोगों को और लक्ष्य को
भूलने के दशकों बाद
जनता के जाहिल और प्रतिक्रियावादी होने में
उनका विश्वास एकदम पुख़्ता हो जाता है
और बदलाव की हर बात से नफ़रत करते हुए,
समाज और प्रकृति की हर परिघटना पर
अहर्निश विमर्श करते हुए और पुराने दिनों की
मूर्खताओं पर संस्मरणात्मक चुटकुले सुनाते हुए
वे आधी रात को महफ़िलों में
जब ठहाके लगाते हैं
तो लकड़बग्घों के झुंड की ख़ौफ़नाक
हँसी का भ्रम होने लगता है।
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(23 Sept 2024)
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