अधूरे-असफल प्रेमों,
मनगढ़ंत अभियोगों के आधार पर
चलाये गये मुकदमों,
क़ैद-ए-तनहाई और दण्डद्वीपों पर
निर्वासनों के अंतहीन सिलसिलों,
अविराम संघर्षों,
पराजयों,
विश्वासघातों
और बीहड़ यात्राओं ने हमें
मनुष्य बनाने की
और कविता का मोल बताने की
भरपूर कोशिश की I
वो तो हम थे
जो समय से जान-पहचान कर पाने में
लम्बे समय तक विफल होते रहे I
मिथ्या आत्मतुष्टि, आत्मधर्माभिमान,
हठ और मूर्खता में
उसकी पुकारों की
बार-बार अनसुनी करते रहे I
नतीजतन,
जो कर्ज़ कभी लिया ही नहीं,
उसका भी ब्याज भरते रहे I
बात द्वंद्ववाद की करते हुए
बार-बार अधिभूतवाद की डगर पर
फिसलते रहे I
ख़ैर, जब होश सँभाला
तो सबकुछ गँवाकर नहीं!
कुछ तो था बचा हुआ
जहाँ से फिर एक शुरुआत की जा सकती थी I
और तुम क्या करते हो बंधु
सफलता-असफलता के बारे में,
खोने और पाने के बारे में,
फालतू की किताबी बतकही!
ज़िन्दगी नहीं है
किसी बनिये की खाताबही!
***
(24 Aug 2024)
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