रात की बारिश के पोशीदा दुखों का क़सीदा
रात भर की लगातार टिपटिप बारिश के बाद
बादल वापस लौट चुके हैं
धूप के लिए जगह ख़ाली करते हुए।
*
सारी रात बादल जैसे आँसू बहाते रहे,
या शायद रात रोती रही,
या शायद समंदर के आँसू थे
जो लम्बा सफ़र तय करके आये थे
किसी पुराने दुख की याद दिलाने,
या शायद बर्फ़ीले पहाड़ों की सदियों से जमी
कोई अकथ पीड़ा थी,
या शायद जंगल की ओझल उदासी थी,
या शायद हमारे समय की क्रूरताओं पर
इतिहास का लम्बा विलाप था,
या शायद बस इतना कि
रात भर आती रही कोई याद थी
या सपने में कोई रुलाई थी
मद्धम बारिश की तरह लगातार
जो नींद से बाहर आकर बरस रही थी।
*
यह बूढ़ा जामुन का पेड़
पानी और पुरानी यादों से भीगा हुआ
अभी भी चुपचाप रो रहा है।
पत्तों से टपकती बूँदें
बालों को तर करती पीठ को गीला कर रही हैं।
यह गीलापन रोम-रोम से होकर
भीतर पहुँच रहा है।
आत्मा में रिस रहा है कुछ
जैसे चट्टान की दरारों से पानी।
*
मद्धम रफ़्तार से
लेकिन लगातार
रात भर जो बरसते रहे
वे बादल मेरे हृदय की झील से उठकर
थोड़े न गये थे आसमान तक!
यूँ ही किसी पर इसतरह कोई तोहमत नहीं
मढ़ देना चाहिए बिना किसी सबूत के
बिना किसी गवाह के।
जिन प्रसंगों पर कोई चुप रहना चाहे,
उनपर उसकी कविता को भी चुप रहना चाहिए
जैसे कहीं से रिस रहा हो ख़ून लगातार
और बात समाज की न हो,
तो कविता को न जासूसी-अय्यारी करनी चाहिए,
न ही मुक़दमा चलाने का काम करना चाहिए।
उसे अपने ज़रूरी कामों पर ध्यान देना चाहिए।
*
पर कविताएँ कभी भी कवि के बस में
नहीं रहतीं।
निर्देशों को न मानना उनका सहज स्वभाव होता है।
ख़ून और आँसुओं की सुराग़रासानी और
निशानदेही करते हुए
अक्सर वे वर्जित इलाकों और गुप्त ठिकानों तक
जा पहुँचती हैं।
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(16 Aug 2024)
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