बुरे दिनों के अच्छे वक़्तों का क़सीदा
घाटी बादलों से भर गयी है
जैसे दुनिया के तमाम दुखों को
नज़रों से ओझल करती हुई,
कुछ देर के लिए ही सही।
बारिश घनघोर रोर मचाती हुई
जैसे सारी मानवद्रोही गंद को
बहा ले जाना चाहती है।
बरामदे में बैठे हम पी रहे हैं
कश्मीरी कहवा एक कृपालु कवि मित्र के
सौजन्य से हासिल।
अपूर्व बारिश में भीगते हुए लाये हैं
बड़े का कबाब जिसे हम सभी पापी गण
खा रहे हैं कहवा पीते हुए।
अभी मुकेश कुल्फ़ी लाने वाले हैं
साथियों की ख़ातिर
बारिश की परवाह न करते हुए।
इतने बुरे दिनों में भी हमने
सुख के कुछ लमहे हासिल कर लिए हैं।
किशोरी अमोनकर गा रही हैं मेघ मल्हार।
पानी की बूँदें मधुमालती के पुष्प गुच्छों से
छेड़खानी कर रही हैं।
हत्या और आतंक का मौसम अगर
बहुत दिनों तक जारी रहना हो
तो ऐसे अल्पविराम भी पर्याप्त
सुखदायी लगते हैं और याद दिलाते हैं
कि हमारी ज़िन्दादिली अभी ज़िन्दा है
और तमाम परेशानियों, तनावों, उदासियों के बीच,
तमाम पाखण्डों, क्षुद्रताओं और क्रूरताओं के बीच,
कभी-कभी, कुछ देर के लिए ही सही,
ख़ुश हो लेना हम अभी भूले नहीं हैं।
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(29 july 2024)
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