मक्खियाँ
कप्तान साहब के बंगले के सामने के
पार्क में घंटों क्यारियों की
निराई-गुड़ाई करने के बाद
जामुन के बूढ़े पेड़ के नीचे
एक बेंच पर सो रहा है
तपेदिक की मार से
वक़्त से पहले ही बूढ़ा हो चुका
तपेसर माली
गमछे से लगातार मक्खियों को उड़ाते हुए।
बचपन में ही घर से भागे बेटे की शक़्ल
अब धुँधली सी ही याद आती है,
लेकिन अभी भी कई बार भूल जाता है
कि पिछले महीने घरवाली संतो
अचानक एक रात चल बसी
किसी अनजान बीमारी से।
शाम को घर लौटकर कई बार बेख़याली में
जब संतो को आवाज़ देने लगता है
तो पास-पड़ोस वाले आपस में इशारे से
कहते हैं कि तपेसर का माथा
फिरता जा रहा है।
तपेसर पार्क की बेंच पर
अभी सिर्फ़ चैन की एक नींद के बारे में
सोच रहा है और मक्खियांँ उसे फ़िलहाल
ज़िन्दगी की सबसे बड़ी समस्या लग रही हैं।
नींद को मौत जैसी होनी चाहिए
कि मक्खियाँ तंग न कर सकें,
तपेसर ने सोचा।
फिर उसने सोचा कि कितने काम
अभी बाक़ी पड़े हैं
और ठेकेदार के पास कितने पैसे
अभी बकाया हैं
और मौत के बाद तो कुछ भी कर पाना
नहीं हो सकेगा।
मौत न आये और नींद
मौत जैसी आये
ऐसा पत्नी की मौत के बाद
कई दिनों तक जागते हुए
उसने सोचा था।
इस गर्म दुपहरी में
मक्खियों को झेलते हुए
झपकी तो ली ही जा सकती है
मौत जैसी नींद का ख़याल छोड़कर,
सोचता है तपेसर और गमछे को
और तेजी के साथ घुमाने लगता है।
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(27july2024)
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