ग़ज़्ज़ा में नींद
—
फ़ादो, औरों की तरह नींद मुझे भी आ ही जाएगी
इस गोलाबारी के दरमियान
आसमान जो कि अब ज़िन्दा गोश्त का लोथड़ा है
मैं ख़ाब देखूँगा जैसे और देखते हैं
बरसते गोलों के बीच — सपने में मुझे दिखेंगी दग़ाबाज़ियाँ
मैं दोपहर जाग के रेडियो से पूछूँगा
वही सवाल जो सब पूछते हैं —
क्या गोलाबारी बंद हुई?
कितने मरे?
लेकिन मेरी परेशानी, फ़ादो, यह है कि
कि दो तरह के होते हैं लोग —
वे जो अपनी तकलीफ़ें और गुनाह
गली में फेंक आते हैं ताकि वे ख़ुद सो सकें
और वे लोग जो दूसरों की तकलीफ़ें और गुनाह इकट्ठा करके
सलीबों में ढालते हैं, और उन्हें लेकर चलते हैं जुलूस में
बाबीलोन, ग़ज़्ज़ा और बेरूत की सड़कों पर
रोते हुए
अब कितने और बाक़ी हैं?
अब कितने और बाक़ी हैं?
दो साल पहले मैं दक्षिणी बेरूत में
दाहिया की सड़कों से गुज़रा था
ध्वस्त इमारतों जितनी बड़ी
सलीब को घसीटता
पर कौन यरूशलम में एक क्लांत मनुष्य की पीठ से
उतारेगा सलीब को?
यह धरती बस तीन कीलों में बदल गई है
और दया एक हथौड़े में
करो वार, प्रभु
करो हवाई हमला
अब कितने और बाक़ी हैं?
---- नजवान दरवीश
(अनुवाद - असद ज़ैदी; अरबी से करीम जेम्स अबू-ज़ैद के अंग्रेज़ी अनुवाद पर आधारित)
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