Friday, July 19, 2024

कविता-रहस्य

 

कविता-रहस्य

जिन दिनों चीज़ों को

अविश्वसनीय हदों तक ज़ोर देते हुए, 

या फिर अलौकिक चमत्कार जैसी

कलात्मकता के साथ

लगातार दुहराया जा रहा था

तब किसी सफ़र में 

कुछ दिनों तक साथ चलने वाले

एक यायावर दार्शनिक-कवि ने 

मुझे बताया कि

कविता के सारे चमत्कार बेकार हैं

अगर वे चीज़ों को 

विश्वसनीय नहीं बनाते। 

सबसे कठिन है

सीधे-सादे शब्दों में

सच को बयान कर देना

और एक अच्छी कविता की 

सबसे बुनियादी शर्त भी यही है। 

बहुत सारे अलंकरण और चमत्कार

कविता को अति समृद्धि-प्रदर्शन करने वाले

धनाढ्यों जैसे कुरुचिपूर्ण और जुगुप्सा भरा

दिखाते हैं। 

तजुर्बेकार लोग बताते हैं कि सीधी लगने वाली

दुनिया की मशहूर कविताओं के गलियारों के

मोखों और आलों में, दीवारों में बनी आलमारियों में, 

टाँड़ पर और भुईंजबरा कमरों में, 

हाँड़ियों, पोटलियों, पेटियों और बटुओं में

जीने और मरने के,  प्यार के, सपने देखने के, 

फंतासियाँ रचने के, आज़ादी और इंसाफ़ के लिए

लड़ने के, आसमान की ऊँचाइयों में उड़ते हुए

अदृश्य हो जाने के इतने नुस्खे और

दुनिया और दिलों की दुर्गमतम रहस्यमयी

यात्राओं के इतने मानचित्र छुपाकर रखे गये हैं

जिन्हें खोजने की खब्त में 

पारदर्शी दिलों वाले कवि

और सिरफिरे पाठकों की दुर्लभ प्रजातियाँ

अपनी सारी ज़िन्दगी तबाह कर लेती हैं। 

आलोचक तो बिरले ही इन बीहड़ इलाकों में आते हैं। 

वे सयानों से पूछकर, शब्दों की दीवारों को

टटोलकर और आसपास रेवड़ चराते

कुछ गड़रियों और कुछ ओझाओं-गुनियों से

पूछकर महान या महत्वपूर्ण कविताओं का

मानचित्र तैयार करते हैं और

सत्तर फीसदी मामलों में जेनुइन, सजल-उर, 

विवेकक्षम पाठकों को

बरगलाने-भटकाने का काम किया करते हैं। 

यायावर दार्शनिक कवि मित्र ने बताया कि

जब कविताओं के दिन वापस लौटेंगे तो

भविष्यफल और मकानों का वास्तु बताने वालों को, 

अस्सी फीसदी प्रोफेसरों और नब्बे प्रतिशत

हिन्दी के आलोचकों को और ख़ुद अपनी ही

बात न समझने वाले सभी दार्शनिकों को

गोदामों में अनाज फटकने, नदी या समंदर किनारे

मछुआरों के जाल सुलझाने, 

हॉस्टलों के मेस के भंडार घर में 

सामानों का  हिसाब रखने या

गोदामों में स्टॉक चेकिंग करने

जैसे कुछ आरामदेह लेकिन समाजोपयोगी

काम सौंप देने होंगे जबतक कि ऐसे लोग

पुरानी सीखी हुई चीज़ों को भूलकर

नयी चीज़ें सीखने के लायक न बन जायें

और कम से कम पचास प्रतिशत कवि और आलोचक इस बात को समझने लगें कि

कविता लिखने और उसकी आलोचना का काम

ईमानदारी और वस्तुपरकता के साथ सिर्फ़

वही कर सकते हैं जो जीवन में सच और

इंसाफ़ के लिए आम लोगों के साथ

खड़े हो सकते हैं, 

उसकी हर क़ीमत चुका सकते हैं

और समान तल्लीनता और निष्ठा से

मूर्त   जीवन और अमूर्त सिद्धान्तों की

जटिलताओं और गहराइयों में

प्रवेश कर सकते हों। 

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(19 Jul 2024)

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