Wednesday, April 10, 2024

समंदर किनारे की एक रात

 


समंदर किनारे की एक रात

समंदर की  लहरें जो सिर पटकती हैं

किनारे की अकेली चट्टान पर

उनका पानी बदलता रहता है 

लेकिन नमक की मात्रा सबमें बराबर होती है। 

चट्टान अलग अलग वज़न और रफ़्तार की चोटें झेलती है। 

कुछ न कहती है। 

आसमान में तनहा है चाँद। 

बादल के आवारा टुकड़ों और यहाँ-वहाँ

छिटके सितारों से नहीं है उसका कोई संवाद। 

चाँद के पास उदासी की पीली रोशनी है

लेकिन आँसू का एक क़तरा भी नहीं। 

लहरों का नमक और पानी है ही नहीं

उस अभागे के पास तो आँसू भला कैसे होंगे! 

प्रेमविह्वल लहरें  पीछे लौटती हैं पछतावे के साथ 

और फिर दौड़ती आती हैं प्रचण्ड रोष के साथ। 

विक्षुब्ध प्यार के आवेग की चोट सहती है 

और लहरों के लौटने के पश्चाताप को 

दार्शनिक वस्तुनिष्ठता के साथ

महसूस करती है किनारे चिन्तनरत

खुरदरी काली चट्टान जो कितनी धँसी है रेत में

और कितनी बाहर है, 

और कितने समय से है उसका 

खारे नीले गँदले पानी से साथ

और क्या उसके पास भी है पसीने और 

आँसुओं का गुप्त खारापन, 

यात्राओं का कोई कठिन अनुभव, 

कोई अदेखी मेहनत, कोई छिपा लिया गया 

रहस्यमय दु:ख? -- यह कोई नहीं जानता। 

*

यह समंदर की बेचैनी की रात है। 

सिर्फ़ कुछ तज़ुर्बेकार बूढ़े और हिम्मती 

नौजवान मछुआरे ही समंदर के भीतर हैं, 

या वे लोग जो चाँद की तरह तनहा हैं

जिनका कहीं कोई इन्तज़ार नहीं कर रहा है। 

मछुआरों की कश्तियों की बत्तियाँ

टिमटिमा रही हैं कोसों दूर। 

कोई एक समुद्री पक्षी लहरों के शोर के बीच

ऊँची आवाज़ में चीखता हुआ

काले पानी की सतह की ओर गोते लगाता है

और फिर अँधेरे में विलीन हो जाता है। 

इससमय सुदूर उत्तर के पहाड़ों में जंगल

जल रहे हैं दिनरात लगातार। 

इधर सागर किनारे मानसून आ चुका है

लेकिन आज की रात बिन बारिश की रात है

उमस से भरी हुई। 

हवा में नमक और मछलियों की गंध थोड़ी ज़्यादा है। 

मुझे गहरे समंदर में जाना है

मछुआरों की उन नावों के पास

जिनकी बत्तियांँ बेहद कठिन दिनों की

उम्मीदों की तरह टिमटिमा रही हैं। 

यूँ तो एक सुनहरी मछली ने वायदा किया था

अपनी पीठ पर बैठाकर उनतक पहुँचा देने का

लेकिन वह नौजवानी का एक बचकाना सपना था! 

अब नहीं है मेरे पास कोई यूटोपिया, 

थोड़ी काव्यात्मक उदासी और 

उम्मीदें है और युयुत्सा है उतनी ही 

जितनी प्यार की चाहत और कुव्वत

और तमाम तुच्छ चालाकियों और दुनियादारियों से

जानते-बूझते भोला और अनजान बने रहने का

जतन से विकसित किया गया कौशल। 

फ़िलवक़्त प्यार या प्रतीक्षा या शोक में

मरने का कोई प्रोग्राम नहीं है मेरे पास

और मैं सुबह का इन्तज़ार कर रहा हूँ

इस चट्टान और चाँद के साथ

बिना किसी पछतावे के बीते दिनों की

मौलिक मूर्खताओं और मानवीय बेवफ़ाइयों के बारे में सोचते हुए

और उन दुखों के बारे में भी

जिन्हें कविता में प्रवेश न करने 

शाप मिला हुआ है। 

सुबह जब रात के मछुआरे लौटेंगे

तो उन्हें राज़ी करूँगा

अगली रात समंदर में साथ लेकर चलने के लिए, 

धरती के बेपनाह दुखों और क्षुद्रताओं से दूर

पानी में पनाह लेने के लिए, 

ज़्यादा नहीं, कम से कम

एक रात के लिए। 

**

-- शशि प्रकाश (5 अप्रैल, 2024)


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