Tuesday, April 09, 2024

साहित्यिक चिकोटियाँ : डायरी के कुछ इन्दराज


हिन्दी की पिच्चानबे प्रतिशत आत्मकथाएँ पौराणिक कथाओं से अधिक कुछ नहीं होतीं। एक रहस्यमय, लगभग अवतारी किस्म का नायकवादी प्रपंच जिसे प्रामाणिक बनाने के लिए नायक के अतिरंजित आत्मसंघर्ष और जीवन-संघर्ष के साथ उसके कुछ विचलनों और भटकावों का  चटख़ शोरबा भी परोस दिया जाता है और लगे हाथों कुछ समकालीनों के साथ हिसाब-किताब भी चुकता कर लिया जाता है। संस्मरणों में भी अधिकतर यही सबकुछ किया जाता है। 

और रही बात इतिहास-बोध की, तो आत्मकथाओं से लेखक का देशकाल तो लगभग अनुपस्थित होता है और अगर किसी हद तक होता भी है तो एकदम घाँउज-माँउज होता है क्योंकि हिन्दी के अधिकांश लेखकों की वैचारिक अवस्थिति बस घटनाओं के आनुभविक प्रेक्षण से मोटामोटी बनी हुई राय होती है। राजनीति, इतिहास और दर्शन से उनकी दूर की रिश्तेदारी भी नहीं होती और उच्च से लेकर मँझोले मध्यवर्ग तक का अलगावग्रस्त जीवन जीते हुए, 85 प्रतिशत मेहनतकश और निम्न मध्यवर्गीय आबादी के जीवन की विपत्तियों और उनके कारणों से उनका कोई परिचय ही नहीं होता। 

जो उपन्यास और कहानियाँ आजकल चर्चित और प्रशंसित होती हैं, वे अधिकांशतः कहन-शैली के चौंक-चमत्कार के कारण होती हैं। कथ्य के नाम पर समकालीन भारतीय जीवन के यथार्थ का कोई प्रातिनिधिक और ज्वलंत पहलू शायद ही आ पाता है। बढ़िया से बढ़िया अचार वाले मिर्च में अगर घोड़े की लीद भर दी जाये और खाँटी कोल्हू के पेरे सरसों के तेल में डुबोकर ठीक से धूप दिखा दिया जाये तो भी मिर्च का बढ़िया अचार थोड़े न तैयार हो जायेगा! 

कुछ चर्चित लेखक हैं जो गाँव के जीवन और परिवेश में आये बदलावों का व्यापक और सूक्ष्म ब्यौरा पेश करते हैं और दिग-दिगंत तक उनकी प्रशंसा का तुमुल कोलाहल व्याप जाता है। लेकिन वे जीवन में होने वाले बदलावों की मूल कारक शक्ति और उसकी गतिकी की कोई समझदारी नहीं रखते। इस कारण से वे सतह के यथार्थ तक ही सीमित रह जाते हैं और पाठक की सामाजिक चेतना को उन्नत करने के बजाय केवल "परिष्कृत कोटि का साहित्यिक आनंद" देने मात्र का काम करते हैं। उनका लेखन प्रकृतवाद या फोटोजेनिक यथार्थवाद की चौहद्दियों में क़ैद होता है और नवप्रत्यक्षवाद उनकी वैचारिक ज़मीन होता है। 

निश्चय ही सभी ऐसे नहीं हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो समकालीन संश्लिष्ट यथार्थ से अपनी रचनाओं में टकरा रहे हैं और कुछ विचारणीय और महत्वपूर्ण लिख रहे हैं। 

कुछ लोग कहेंगे कि ये तो बहुत सामान्य-सामान्य सी उपदेशात्मक बातें हैं, ठोस उदाहरण सहित बात कीजिए तो बात बने! तो जी, वह भी करूँगी और ठोक कर करूँगी, लेकिन इसमें थोड़ा समय लगेगा। जब बर्रे के छत्ते में हाथ डालना है तो डालना है। 

(साहित्यिक चिकोटियाँ : डायरी के कुछ इन्दराज)

(9 Apr 2024)

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