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अतिशय कला की ट्रैजी-कामेडी
"राजनीतिक पक्षधरता की माँग
और सामूहिकता का हर आग्रह
हर हाल में रचनात्मकता-विरोधी होता है
और वहाँ काव्यात्मक सौन्दर्य के लिए
स्थान नगण्य होता है।
और उसमें व्यक्तिगत मौलिकता के लिए भी
कोई जगह नहीं बचती
जबकि जो कुछ भी मौलिक है,
सुन्दर और कमनीय,
वह सिर्फ़ व्यक्तिगत होता है" --
कहा उन महान कवियों ने
और झुककर धूल में बिखरे
चमकते शब्दों को बटोरने लगे
और उन्हें झाड़पोछ कर काँधे पर टँगे
उस झोले में रखने लगे
जो उन्हें उपहारस्वरूप मिला था
साहित्य के किसी महोत्सव में
और जिनपर लोककला का एक सुन्दर
चित्र छपा हुआ था।
उन्हें लम्बी चढ़ाई पारकर ताकतवर लोगों के पास
पहुँचना था और वे पहुँचे भी।
सिंहासन के पास पहुँच कर
सोने की जूतियों को चूमने के लिए
वे झुके अपने पिछवाड़े ऊपर आसमान में उठाते हुए
छोटे-छोटे टीलों की तरह।
फिर आगे आये कुछ उत्साही कर्तव्यनिष्ठ सेवक
और उन्होंने उन टीलों पर
'जय श्रीराम' का
झण्डा गाड़ दिया।
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