कविता में भाषा की तमीज़
जब कविता में भाषा की तमीज़ आयी
तो जाना कि आदमी
न कबूतर होता है न केंचुआ
और यह कि अन्याय के विरुद्ध विद्रोह ही
हमें ज़िन्दगी और प्यार और कविता
का मोल बताता है।
लेकिन हम क्रूरता और बेशर्मी के
ऐसे समय में जी रहे हैं जब
कविगण सबसे संदिग्ध प्राणी
माने जाने लगे हैं,
सम्पादकगण मुर्गामण्डी में
कविता के पंख नोच रहे हैं
और आलोचक उसे तराजू पर तोल रहे हैं।
उधर हत्यारे सड़कों पर शिकार ढूँढ़ रहे हैं
और जनसंहार के इलाकों से थोड़ी ही दूरी पर
साहित्य महोत्सव हो रहे हैं।
ठीक यही वक़्त है जब
कहीं सपनों के गुप्त ठिकानों पर विद्रोह की
नयी भाषा जन्म ले रही है
और कविता नये सिरे से अपने
कार्यभार तय कर रही है।
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(19 Nov 2023)

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