Friday, November 03, 2023

रोशनाबाद कविता श्रृंखला

टिफ़िन का डब्बा
उजाड़ से पार्क की बेंच पर
खोलती हूँ टिफ़िन का डब्बा। 
तीन सूखी रोटियों के साथ
सूखा आलू-जीरा और दो हरी मिर्चें। 
कलावती ने ज़िद करके दिया था डब्बा। 
कल उसका काम छूट गया
और सिर पर लदा कर्ज़ का बोझ
अभी आधा भी न उतरा था। 
पीपल से गिरे पीले पत्ते
बिछे हुए हैं आसपास। 
पीछे बियाबान से दिन थे
और आगे भी नज़र की हदों तक
बियाबान ही दीख रहा था। 
फिर मैंने उम्मीदों के बारे में सोचा
और हलक़ से नीचे उतरते निवाले के साथ
न जाने किस अज्ञात दु:ख से
गला रुँध सा गया थोड़ी देर के लिए। 
जब दु:ख या उदासी या अकेलेपन का
कोई एक प्रसंग चल रहा हो
ऐन उसी समय ऐसा ही कोई और प्रसंग
सहसा आता है आकाश के किसी कोने से
बादल के एक टुकड़े की तरह और
भिगोता हुआ आगे चला जाता है। 
*
(3 Nov 2023)


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