मज़दूरों के बीच कवि की एक शाम
इतवार का दिन था।
कवि मित्र आये थे साथ
मज़दूरों की इस बस्ती में।
देखना चाहते थे फ़ैक्ट्री मज़दूरों का जीवन।
देखा, जितना देख सकते थे।
समझा, जितना मुमकिन था समझना।
हालाँकि एक दिन में इस ज़िन्दगी के रंगों को
भला कितना पहचाना जा सकता था
और बात यह भी है कि महज़ देखकर
चीज़ों को जाना नहीं जा सकता
और सतह की वास्तविकता कभी भी
अन्दर की पूरी वास्तविकता को नहीं दिखाती है।
बहरहाल, फ़ैक्ट्री गेटों, लेबर चौकों, चाय के खोखों
और बस्ती में इधर-उधर चक्कर मारने और
लोगों से बोलने-बतियाने के बाद रात को
एक मज़दूर साथी के कमरे पर
खाने-पीने का प्रोग्राम रहा।
मुर्गा पका कवि के स्वागत में।
कुछ बातें हुईं दुनिया-जहान की,
कुछ यहाँ की ज़िन्दगी और हालात की।
फिर लोगों ने कहा कवि से, "कुछ सुनाइए।"
कवि मित्र जैसे झुककर दोहरे हो गये
कृतज्ञता और विनम्रता के साथ
अपनी कुलीनता के असुविधाजनक अपराध-बोध से।
बोले, "यह मेरा दुर्भाग्य रहा
और स्वार्थ भरी आरामतलबी भी
कि मैं अपरिचित रहा हूंँ अबतक
आपकी ज़िन्दगी और उसकी परेशानियों से।
बचपन में गाँव का जीवन ज़रूर देखा
पर बड़े होने के बाद शहर के
मध्यवर्गीय लोगों के बीच ही रहना हुआ।
मेरी कविता में न आपका जीवन है,
न उसे प्रकट करने के कलात्मक औज़ार
न ही वह भाषा जो आपतक पहुँच सके।"
कुछ देर चुप्पी सी छायी रही,
फिर देश के कई औद्योगिक क्षेत्रों में
की कारखानों में हड्डियाँ घिस चुके
और कई संघर्षों में हिस्सा ले चुके,
मिडिल स्कूल तक पढ़े हुए,
कुछ कविता-कहानी भी पढ़ने वाले
अनुभवी बुज़ुर्ग मज़दूर शिवनाथ ने कहा,
"ज़रूरी नहीं कि कविता में हमारी ही ज़िन्दगी हो।
असल मुद्दा यह है कि कविता
हक़ और इंसाफ़ और इंसानियत की बात करे,
वह हमेशा ग़ैरबराबरी, ज़ोरो-ज़ुल्म
और नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ खड़ी हो
और इनसे लड़ने वालों की आवाज़ बने।
ज़रूरी यह है कि वह सभी सताये गये,
दबाये गये लोगों के साथ खड़ी हो
और उनके सपनों की बात करें
और लोगों को बताये कि ज़िन्दगी को
कितना सुन्दर बनाया जा सकता है और किसतरह!
कविता ज़िन्दगी का सारा सच और उसकी
सारी नौटंकी को पेश करे
और हुकूमत और ताक़तवर लोगों के सामने
कभी न झुके।
ज़रूरी है कि ज़िन्दगी जिन लोगों को
ग़ुलामी का आदी बनाकर इंसान नहीं रहने देती
कविता उन्हें उनके इंसान होने की याद
दिलाती रहे लगातार।
बात बस इतनी है।
और कविता अगर सच्ची होगी
तो थोड़ा-बहुत तो हम भी समझ ही लेंगे।
बाक़ी, समझना भी तो सीखना पड़ता है
धीरे-धीरे कवि साथी!
और लोग जब बदलते हैं
हालात को बदलने की कोशिश करते हुए
तो कविता उनकी ज़िन्दगी की ज़रूरत भी
बनने लगती है।"
कवि मित्र ने सिर हिलाया
लोग मुस्कुराये।
कवि ने फिर सुनाईं कुछ कविताएंँ सकुचाते हुए।
सबने सुनीं।
कुछ ने दिलचस्पी के साथ,
कुछ ने उत्सुकता के साथ
और कुछ ने आश्चर्य के साथ।
फिर सभी सोने की तैयारियों में लग गये।
अगली सुबह कुछ को लेबर चौक जाना था
और कुछ को कारखानों में अपनी ड्यूटी पर।
*
(20 Oct 2023)
इतवार का दिन था।
कवि मित्र आये थे साथ
मज़दूरों की इस बस्ती में।
देखना चाहते थे फ़ैक्ट्री मज़दूरों का जीवन।
देखा, जितना देख सकते थे।
समझा, जितना मुमकिन था समझना।
हालाँकि एक दिन में इस ज़िन्दगी के रंगों को
भला कितना पहचाना जा सकता था
और बात यह भी है कि महज़ देखकर
चीज़ों को जाना नहीं जा सकता
और सतह की वास्तविकता कभी भी
अन्दर की पूरी वास्तविकता को नहीं दिखाती है।
बहरहाल, फ़ैक्ट्री गेटों, लेबर चौकों, चाय के खोखों
और बस्ती में इधर-उधर चक्कर मारने और
लोगों से बोलने-बतियाने के बाद रात को
एक मज़दूर साथी के कमरे पर
खाने-पीने का प्रोग्राम रहा।
मुर्गा पका कवि के स्वागत में।
कुछ बातें हुईं दुनिया-जहान की,
कुछ यहाँ की ज़िन्दगी और हालात की।
फिर लोगों ने कहा कवि से, "कुछ सुनाइए।"
कवि मित्र जैसे झुककर दोहरे हो गये
कृतज्ञता और विनम्रता के साथ
अपनी कुलीनता के असुविधाजनक अपराध-बोध से।
बोले, "यह मेरा दुर्भाग्य रहा
और स्वार्थ भरी आरामतलबी भी
कि मैं अपरिचित रहा हूंँ अबतक
आपकी ज़िन्दगी और उसकी परेशानियों से।
बचपन में गाँव का जीवन ज़रूर देखा
पर बड़े होने के बाद शहर के
मध्यवर्गीय लोगों के बीच ही रहना हुआ।
मेरी कविता में न आपका जीवन है,
न उसे प्रकट करने के कलात्मक औज़ार
न ही वह भाषा जो आपतक पहुँच सके।"
कुछ देर चुप्पी सी छायी रही,
फिर देश के कई औद्योगिक क्षेत्रों में
की कारखानों में हड्डियाँ घिस चुके
और कई संघर्षों में हिस्सा ले चुके,
मिडिल स्कूल तक पढ़े हुए,
कुछ कविता-कहानी भी पढ़ने वाले
अनुभवी बुज़ुर्ग मज़दूर शिवनाथ ने कहा,
"ज़रूरी नहीं कि कविता में हमारी ही ज़िन्दगी हो।
असल मुद्दा यह है कि कविता
हक़ और इंसाफ़ और इंसानियत की बात करे,
वह हमेशा ग़ैरबराबरी, ज़ोरो-ज़ुल्म
और नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ खड़ी हो
और इनसे लड़ने वालों की आवाज़ बने।
ज़रूरी यह है कि वह सभी सताये गये,
दबाये गये लोगों के साथ खड़ी हो
और उनके सपनों की बात करें
और लोगों को बताये कि ज़िन्दगी को
कितना सुन्दर बनाया जा सकता है और किसतरह!
कविता ज़िन्दगी का सारा सच और उसकी
सारी नौटंकी को पेश करे
और हुकूमत और ताक़तवर लोगों के सामने
कभी न झुके।
ज़रूरी है कि ज़िन्दगी जिन लोगों को
ग़ुलामी का आदी बनाकर इंसान नहीं रहने देती
कविता उन्हें उनके इंसान होने की याद
दिलाती रहे लगातार।
बात बस इतनी है।
और कविता अगर सच्ची होगी
तो थोड़ा-बहुत तो हम भी समझ ही लेंगे।
बाक़ी, समझना भी तो सीखना पड़ता है
धीरे-धीरे कवि साथी!
और लोग जब बदलते हैं
हालात को बदलने की कोशिश करते हुए
तो कविता उनकी ज़िन्दगी की ज़रूरत भी
बनने लगती है।"
कवि मित्र ने सिर हिलाया
लोग मुस्कुराये।
कवि ने फिर सुनाईं कुछ कविताएंँ सकुचाते हुए।
सबने सुनीं।
कुछ ने दिलचस्पी के साथ,
कुछ ने उत्सुकता के साथ
और कुछ ने आश्चर्य के साथ।
फिर सभी सोने की तैयारियों में लग गये।
अगली सुबह कुछ को लेबर चौक जाना था
और कुछ को कारखानों में अपनी ड्यूटी पर।
*
(20 Oct 2023)

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