हिन्दी में उस रात पूरी हुई थी
इस वर्ष की 3745वीं प्रेम कविता
हमारे समय की तमाम बेरहमी
और बेशर्मी के चमकते-दमकते उजाले में ।
निष्पाप और निष्कलंक थीं ये कविताएँ,
अलौकिक आभा से आलोकित,
जिनमें राजनीति की कोई असुंदर, कर्कश
मिलावट नहीं थी।
उसी रात, साल के 111वें कविता महोत्सव का
समापन हुआ था और वर्षान्त तक सत्तासी और
ऐसे महोत्सव अभी होने थे।
ठीक उसी रात एक टेंट लग रहा था
रोशनाबाद कचहरी के सामने
जहाँ अगले दिन कोई एनजीओ
ग़रीबों को खाना बाँटने वाला था।
ठीक उसीसमय पहाड़ों में बादल फटने से
कुछ बस्तियों के तबाह होने की
ख़बर आ रही थी
और सिडकुल में बिजली के सामान बनाने वाली
एक फ़ैक्ट्री के बाहर एक पखवाड़े से
धरना दे रहे मज़दूरों पर लाठियाँ बरसाते हुए
पुलिस उनका टेंट उखाड़ रही थी।
दूर किसी मंदिर के लाउडस्पीकर से
'मंगल भवन अमंगलहारी' की आवाज़ें
आ रही थी
और सड़क किनारे अँधेरे में खड़े
नीम के भीगे हुए पेड़ से
पानी से अधिक उदासी टपक रही थी।
वहाँ से डेढ़ किलोमीटर दूर एक
बैटरी कारखाने के अहाते में
पीछे जहाँ लाइन से
एसिड के कंटेनर रखे हुए थे
वहाँ आसपास की कुछ घास जली हुई थी
और कुछ पीली पड़ गयी थी।
वहीं पीली बीमार रोशनी में रात ग्यारह बजे
साथ बैठकर रोटी खा रहे थे असगर और मंजू।
दोनों के काम का आज यहाँ आखिरी दिन था।
ठेकेदार ने हिसाब करने के लिए बुलाया था
हफ़्ते भर बाद।
इस बीच उन्हें अगला काम ढूँढ़ना था
और रोज़ाना लेबर चौक पर खड़ा होना था फिर से।
मंजू रहती थी रोशनाबाद की मज़दूर बस्ती में
और असगर पठानपुरा में जिसे अब सभी
'छोटा पाकिस्तान' कहते हैं।
साल भर से प्रेम करते थे मंजू और असगर।
प्रेम में कविता लिखना तो नहीं सोच सकते थे दोनों,
बस अपनी चिन्ताओं और परेशानियों को
आपस में साझा कर लिया करते थे।
सुख के नाम पर इतना ही सोच पा रहे थे फ़िलहाल
कि दोनों को एक ही फ़ैक्ट्री में फिर से मिल जाता कोई काम
तो कितना अच्छा होता!
थाने का खबरी था मंजू का भूतपूर्व पति
जो दारू के नशे में टुन्न मज़दूर बस्ती में ही
डोलता रहता था।
जब भी टकराता था मंजू से
गाली-गलौज करता था और फिर
ढाई पसली के उस पियक्कड़ की हृष्ट-पुष्ट मंजू
ठीक से कुटाई करती थी।
मंजू और असगर ने अबतक होशियारी से
छुपा रखा था अपना प्रेम
क्योंकि वैसे भी चारों ओर लव जेहाद का
शोर था और मंजू का पूर्व पति आजकल
बड़ा सा टीका लगाये, सिर पर भगवा गमछा लपेटे
बजरंगियों के साथ घूमने लगा था।
इसी ऊहापोह में डूबे बतिया रहे थे दोनों प्रेमी
एसिड के कंटेनरों के पीछे बैठे जली हुई घास पर
आधी रात को।
बर्बरता के सैलाब में डूबने से वे अपना
प्रेम बचाना चाहते थे हर क़ीमत पर
जो उत्कट था लेकिन कविता की भाषा में
उसे कहना न तो उन्हें आता था
न ही उन्हें यह पता था कि काल्पनिक, मिथकीय खलपात्रों से प्रेमपत्र बचाने की
नाटकीय चिन्ता के बयान को,
वास्तविक संकट के मिथकीकरण को,
प्रेम पारखी विद्वत्समाज
एक उच्च कोटि की प्रेम कविता का ताज़
पहना सकता है और
ऐसी प्रेम कविता एक ऊँट या एक मेंढक को भी
दिल्ली दरबार तक पहुँचा सकती है और
हत्यारे उन्हें न सिर्फ़
अभयदान बल्कि यश और सुविधाओं से
भरा जीवन भी दे सकते हैं।
मंजू और असगर न तो यह जानते थे
न ही उनके पास कविता की ऐसी अद्भुत कला थी।
सवाल यह था कि हत्याओं और आतंक के
इस माहौल में प्यार करते हुए
साथ-साथ जी पाने के लिए
भागकर आख़िरकार जाते भी कहाँ मंजू और असगर!
आख़िरकार कैसे ढूँढ़ पाते
प्रेम का एक सुरक्षित कोना
देश के ओर-छोर तक फैले
बर्बरता के इस शक्तिशाली साम्राज्य में
वे दो मज़दूर स्त्री-पुरुष सिर्फ़ अपने बूते!
सो उन्होंने टिके रहने और हालात का
सामना करने की सोची उस रात
जिस रात हिन्दी की साल की 3745वीं
प्रेम कविता लिखी गयी थी।
उन्होंने टिके रहने और मुक़ाबला करने की सोची,
कोर्ट मैरिज कर लेने के बारे में सोचा,
और सोचा अपने जैसे नौजवानों को साथ लेने के बारे में
और वहशी नफ़रती गैंग का सामना करने के बारे में।
ऐसे नौजवानों का पता उन्हें हाल ही में चला था
जो भगतसिंह, अशफ़ाक़उल्ला, ज्योतिबा वगैरा की
बातें करते थे, लाइब्रेरी चलाते थे,
मज़दूरों में पर्चे बाँटते थे
और बहुत कुछ करते रहते थे।
कठिन था यह फ़ैसला लेकिन सच्चे प्यार में
कठिन फ़ैसला तो क्या मरने का जोखिम भी
मामूली लगता है,
वह प्यार चाहे प्रेमिका से हो, या अपने लोगों से,
या फिर अपने उसूलों से।
गनीमत यह थी कि मंजू और असगर को
नहीं जानते थे हिन्दी के नामचीन कवि,
वरना आप ही सोचिए, वे इन लोगों को
कितना धिक्कारते और फटकारते
नफ़रत का जवाब प्यार से नहीं देने के लिए
और अहिंसा को अपना पहला सरोकार
नहीं बनाने के लिए
और एक असंभव सा दुस्साहसवादी
फ़ैसला लेकर अपनी जान
और बस्ती के अमन-चैन को
जोखिम में डालने के लिए!
इस वर्ष की 3745वीं प्रेम कविता
हमारे समय की तमाम बेरहमी
और बेशर्मी के चमकते-दमकते उजाले में ।
निष्पाप और निष्कलंक थीं ये कविताएँ,
अलौकिक आभा से आलोकित,
जिनमें राजनीति की कोई असुंदर, कर्कश
मिलावट नहीं थी।
उसी रात, साल के 111वें कविता महोत्सव का
समापन हुआ था और वर्षान्त तक सत्तासी और
ऐसे महोत्सव अभी होने थे।
ठीक उसी रात एक टेंट लग रहा था
रोशनाबाद कचहरी के सामने
जहाँ अगले दिन कोई एनजीओ
ग़रीबों को खाना बाँटने वाला था।
ठीक उसीसमय पहाड़ों में बादल फटने से
कुछ बस्तियों के तबाह होने की
ख़बर आ रही थी
और सिडकुल में बिजली के सामान बनाने वाली
एक फ़ैक्ट्री के बाहर एक पखवाड़े से
धरना दे रहे मज़दूरों पर लाठियाँ बरसाते हुए
पुलिस उनका टेंट उखाड़ रही थी।
दूर किसी मंदिर के लाउडस्पीकर से
'मंगल भवन अमंगलहारी' की आवाज़ें
आ रही थी
और सड़क किनारे अँधेरे में खड़े
नीम के भीगे हुए पेड़ से
पानी से अधिक उदासी टपक रही थी।
वहाँ से डेढ़ किलोमीटर दूर एक
बैटरी कारखाने के अहाते में
पीछे जहाँ लाइन से
एसिड के कंटेनर रखे हुए थे
वहाँ आसपास की कुछ घास जली हुई थी
और कुछ पीली पड़ गयी थी।
वहीं पीली बीमार रोशनी में रात ग्यारह बजे
साथ बैठकर रोटी खा रहे थे असगर और मंजू।
दोनों के काम का आज यहाँ आखिरी दिन था।
ठेकेदार ने हिसाब करने के लिए बुलाया था
हफ़्ते भर बाद।
इस बीच उन्हें अगला काम ढूँढ़ना था
और रोज़ाना लेबर चौक पर खड़ा होना था फिर से।
मंजू रहती थी रोशनाबाद की मज़दूर बस्ती में
और असगर पठानपुरा में जिसे अब सभी
'छोटा पाकिस्तान' कहते हैं।
साल भर से प्रेम करते थे मंजू और असगर।
प्रेम में कविता लिखना तो नहीं सोच सकते थे दोनों,
बस अपनी चिन्ताओं और परेशानियों को
आपस में साझा कर लिया करते थे।
सुख के नाम पर इतना ही सोच पा रहे थे फ़िलहाल
कि दोनों को एक ही फ़ैक्ट्री में फिर से मिल जाता कोई काम
तो कितना अच्छा होता!
थाने का खबरी था मंजू का भूतपूर्व पति
जो दारू के नशे में टुन्न मज़दूर बस्ती में ही
डोलता रहता था।
जब भी टकराता था मंजू से
गाली-गलौज करता था और फिर
ढाई पसली के उस पियक्कड़ की हृष्ट-पुष्ट मंजू
ठीक से कुटाई करती थी।
मंजू और असगर ने अबतक होशियारी से
छुपा रखा था अपना प्रेम
क्योंकि वैसे भी चारों ओर लव जेहाद का
शोर था और मंजू का पूर्व पति आजकल
बड़ा सा टीका लगाये, सिर पर भगवा गमछा लपेटे
बजरंगियों के साथ घूमने लगा था।
इसी ऊहापोह में डूबे बतिया रहे थे दोनों प्रेमी
एसिड के कंटेनरों के पीछे बैठे जली हुई घास पर
आधी रात को।
बर्बरता के सैलाब में डूबने से वे अपना
प्रेम बचाना चाहते थे हर क़ीमत पर
जो उत्कट था लेकिन कविता की भाषा में
उसे कहना न तो उन्हें आता था
न ही उन्हें यह पता था कि काल्पनिक, मिथकीय खलपात्रों से प्रेमपत्र बचाने की
नाटकीय चिन्ता के बयान को,
वास्तविक संकट के मिथकीकरण को,
प्रेम पारखी विद्वत्समाज
एक उच्च कोटि की प्रेम कविता का ताज़
पहना सकता है और
ऐसी प्रेम कविता एक ऊँट या एक मेंढक को भी
दिल्ली दरबार तक पहुँचा सकती है और
हत्यारे उन्हें न सिर्फ़
अभयदान बल्कि यश और सुविधाओं से
भरा जीवन भी दे सकते हैं।
मंजू और असगर न तो यह जानते थे
न ही उनके पास कविता की ऐसी अद्भुत कला थी।
सवाल यह था कि हत्याओं और आतंक के
इस माहौल में प्यार करते हुए
साथ-साथ जी पाने के लिए
भागकर आख़िरकार जाते भी कहाँ मंजू और असगर!
आख़िरकार कैसे ढूँढ़ पाते
प्रेम का एक सुरक्षित कोना
देश के ओर-छोर तक फैले
बर्बरता के इस शक्तिशाली साम्राज्य में
वे दो मज़दूर स्त्री-पुरुष सिर्फ़ अपने बूते!
सो उन्होंने टिके रहने और हालात का
सामना करने की सोची उस रात
जिस रात हिन्दी की साल की 3745वीं
प्रेम कविता लिखी गयी थी।
उन्होंने टिके रहने और मुक़ाबला करने की सोची,
कोर्ट मैरिज कर लेने के बारे में सोचा,
और सोचा अपने जैसे नौजवानों को साथ लेने के बारे में
और वहशी नफ़रती गैंग का सामना करने के बारे में।
ऐसे नौजवानों का पता उन्हें हाल ही में चला था
जो भगतसिंह, अशफ़ाक़उल्ला, ज्योतिबा वगैरा की
बातें करते थे, लाइब्रेरी चलाते थे,
मज़दूरों में पर्चे बाँटते थे
और बहुत कुछ करते रहते थे।
कठिन था यह फ़ैसला लेकिन सच्चे प्यार में
कठिन फ़ैसला तो क्या मरने का जोखिम भी
मामूली लगता है,
वह प्यार चाहे प्रेमिका से हो, या अपने लोगों से,
या फिर अपने उसूलों से।
गनीमत यह थी कि मंजू और असगर को
नहीं जानते थे हिन्दी के नामचीन कवि,
वरना आप ही सोचिए, वे इन लोगों को
कितना धिक्कारते और फटकारते
नफ़रत का जवाब प्यार से नहीं देने के लिए
और अहिंसा को अपना पहला सरोकार
नहीं बनाने के लिए
और एक असंभव सा दुस्साहसवादी
फ़ैसला लेकर अपनी जान
और बस्ती के अमन-चैन को
जोखिम में डालने के लिए!
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(9 Sept 2023)

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