हमारे समय का एक राष्ट्रीय रूपक
किरपा बरस रही है धारासार।
वाम और दक्षिण की सभी अदालतों से
दोषमुक्त सिद्ध होने के बाद
विचारों और कविता की दुनिया का एक
सीरियल किलर अगली हत्या की तैयारी कर रहा है
और बैकग्राउंड में उसीकी आवाज़ में
प्रेमपत्र बचाने के बारे में
सुकोमल चिन्ताओं से भरी उस आर्त कविता का
पाठ चल रहा है जिसे वे सभी दुर्दान्त मानवतावादी कवि
बेहद पसन्द करते थे और आज भी करते हैं
जो हत्याओं के मौसम में हर क़ीमत पर
प्रेम को बचा लेना चाहते हैं
और नफ़रत के तमाम शॉपिंग मॉल्स के बाजू में
मोहब्बत की छोटी-छोटी दुकानें, गुमटियांँ और खोखे
खोलना चाहते हैं, वैसे ही जैसे गाँधीजी ने
चरखे और करघे से बड़ी कपड़ा मिलों का
मुक़ाबला किया था।
वैसे यह आज की कला की नयी ऊँचाई ही तो है
कि ओटीटी पर पेश किया जाने वाला एक क्राइम थ्रिलर सिरीज़ भी
हमारे समय का और साथ ही साहित्य की दुनिया का
राष्ट्रीय रूपक बन जाता है।
यही तो है हमारे समय की द्वन्द्वात्मक विडम्बना
कि सामाजिक न्याय पर विमर्श करते हुए
नरसंहारों को सोशल इंजीनियरिंग का
नया तरीक़ा बताया जा सकता है
और अम्बेडकर चेयर पर आसीन होकर
अस्मितावादियों और नवनात्सियों के साथ ही
श्रेष्ठ वामपंथी कवियों-आलोचकों का चुम्मा भी
दोनों गालों पर
विनीत भाव से स्वीकार किया जा सकता है।
और यही तो है 'विरुद्धों का सामंजस्य' कि
जो जंतर-मंतर पर फ़ासिज़्म के विरुद्ध धरने में जाते हैं
उन्हीं में से कई अगले दिन फ़ासिस्टों के दरवज्जे पर बैठे
दोने में मलाई खाते हैं।
**
किरपा बरस रही है धारासार।
वाम और दक्षिण की सभी अदालतों से
दोषमुक्त सिद्ध होने के बाद
विचारों और कविता की दुनिया का एक
सीरियल किलर अगली हत्या की तैयारी कर रहा है
और बैकग्राउंड में उसीकी आवाज़ में
प्रेमपत्र बचाने के बारे में
सुकोमल चिन्ताओं से भरी उस आर्त कविता का
पाठ चल रहा है जिसे वे सभी दुर्दान्त मानवतावादी कवि
बेहद पसन्द करते थे और आज भी करते हैं
जो हत्याओं के मौसम में हर क़ीमत पर
प्रेम को बचा लेना चाहते हैं
और नफ़रत के तमाम शॉपिंग मॉल्स के बाजू में
मोहब्बत की छोटी-छोटी दुकानें, गुमटियांँ और खोखे
खोलना चाहते हैं, वैसे ही जैसे गाँधीजी ने
चरखे और करघे से बड़ी कपड़ा मिलों का
मुक़ाबला किया था।
वैसे यह आज की कला की नयी ऊँचाई ही तो है
कि ओटीटी पर पेश किया जाने वाला एक क्राइम थ्रिलर सिरीज़ भी
हमारे समय का और साथ ही साहित्य की दुनिया का
राष्ट्रीय रूपक बन जाता है।
यही तो है हमारे समय की द्वन्द्वात्मक विडम्बना
कि सामाजिक न्याय पर विमर्श करते हुए
नरसंहारों को सोशल इंजीनियरिंग का
नया तरीक़ा बताया जा सकता है
और अम्बेडकर चेयर पर आसीन होकर
अस्मितावादियों और नवनात्सियों के साथ ही
श्रेष्ठ वामपंथी कवियों-आलोचकों का चुम्मा भी
दोनों गालों पर
विनीत भाव से स्वीकार किया जा सकता है।
और यही तो है 'विरुद्धों का सामंजस्य' कि
जो जंतर-मंतर पर फ़ासिज़्म के विरुद्ध धरने में जाते हैं
उन्हीं में से कई अगले दिन फ़ासिस्टों के दरवज्जे पर बैठे
दोने में मलाई खाते हैं।
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30 Aug 2023

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