जहाँँ कविता के खनिज हैं...
वे जो मधुमक्खियों की तरह
ज़िन्दगी के लिए
परागों से शहद इकट्ठा करते हैं
और अपना दु:ख रोते नहीं रहते,
वे जो चींटियों की तरह
पसीने के नमक के ढेले ढोकर
तुम तक लाते हैं,
वे जिनकी बदौलत ही
तुम्हारी ज़िन्दगी में
थोड़ी मिठास, थोड़े नमक,
थोड़े रंगों और थोड़ी राहतों की
मौजूदगी मुमकिन हो पाती है,
उनतक जाओ
ओ निकम्मे, निखट्टू, अलगावग्रस्त,
आत्मनिर्वासित, आत्मग्रस्त, अभागे,
पीले-बीमार चेहरों और
क्षयग्रस्त आत्माओं वाले कलमघसीटो!
अपने तमाम दु:खों, तमाम उदासियों
और मायूसियों को
उनके साथ बाँटो!
अपने तमाम दु स्वप्नों, बीमार फंतासियों,
लंपट इच्छाओं, तुच्छ-निकृष्ट स्वार्थों,
हिंस्र महत्वाकांक्षाओं, मक्कारी भरी नौटंकियों
घृणित समझौतों और खोखली विद्वत्ता को
अपने दड़बे में ही छोड़ कर
धुले-पुँछे, सजल मन के साथ
उनके पास जाओ
जो अँधेरे में जीते हुए
ज़िन्दगी का उजाला रचते हैं I
नहीं छोड़ेंगे वे तुम्हें
विपत्ति में अकेला I
जैसा कहा जाता है
दिन-रात शहद बनाने वाली
मधुमक्खियों के बारे में
कि किसी का दु:ख या राज़
जानने के बाद वे
कभी उसका साथ नहीं छोड़तीं I
और वहीं तुम्हें
तुम्हारे एकाकी दुखों की
क्षुद्रता का भी अहसास होगा
और लोगों के साथ,
अपने लोगों के साथ
जीते हुए अपनी ताक़त का भी,
और यह भी पता चलेगा कि
किस कदर ज़हर घोल दिया गया है
बेइंतहा ख़ूबसूरत ज़िन्दगी के
जाम के गिलास में I
और वहाँ तुम अगर ज़िन्दगी को
प्यार करना सीख गये
तो हो सकता है,
एक दिन उसके लिए
लड़ना भी सीख जाओ,
और मरना भी सीख जाओ!
**
(17 सितम्बर 2022)
(सन्दर्भ-टिप्पणी: सुख्यात वैज्ञानिक, कवि-लेखक और साहित्य एवं मानविकी के सजग अध्येता फ़ेसबुक मित्र Dr. Dinesh Srivastava ने तक़रीबन दो वर्ष पहले अपनी एक पोस्ट में बताया था कि यूरोप के कई देशों में किसानों के बीच यह एक प्रचलित परम्परा है कि वे अपने घरों के बागीचों में मधुमक्खियों के छत्ते के पास जाकर उनसे अपने परिवार के सभी दुखों और राज़ के बारे में बात करते हैं! उनके बीच यह आम मान्यता है कि ऐसा करने पर मधुमक्खियाँ कभी भी अपने उस छत्ते को छोड़कर अन्यत्र नहीं जाती हैं, हमेशा उनके साथ बनी रहती हैं!).
No comments:
Post a Comment