Saturday, August 27, 2022

सामाजिक जनवादियों का समूह-गान


सामाजिक जनवादियों का समूह-गान

हमारे मार्क्स का चेहरा

कीन्स से मिलता-जुलता है I

ग़रीबी हटाने के 

अमर्त्य सेन के फार्मूलों से आगे

हम सोच नहीं पातेI

रोज़ाना हम रोते हैं

बीसवीं सदी की क्रान्तियों की

विफलता पर 

और सोचते हैं कि अगर

वे सफल होतीं तो

हमें कितना रोना पड़ता! 

हम समाजवाद के साथ ही

भारतीय संविधान को भी

बहुत प्यार करते हैं

और हमेशा  क़ानून-व्यवस्था के

दायरे में रहते हैं! 

गाँधी को श्रद्धांजलि देने

राजघाट नियमित जाते हैं, 

फ़ासिस्टों के ख़िलाफ़

रामधुन गाते हैं

और मोमबत्तियाँ जलाकर 

मौन जुलूस निकालते हैंI

परम संतोषी और व्यावहारिक

जंतु हैं हम 

एकदम अहिंसावादी, 

संसदीय लोकतंत्र में

अटूट है विश्वास हमारा! 

असंभव की नहीं करते कामना

और सोचते हैं कि किसी तरह से

नेहरू के समाजवाद वाले दिन ही

वापस आ जाते भारत में

तो लोगों का कितना भला हो जाता! 

रोज़ाना हम प्रार्थना करते हैं, 

याचना करते हैं 

ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, राहुल गाँधी, 

शरद पवार, अखिलेश यादव, उद्धव ठाकरे

केसीआर और सभी लेफ्ट पार्टियों से

कि वे मेलमिलाप कर मोर्चा बनाकर

फ़ासिज़्म को चुनावी जंग में

शिकस्त क्यों नहीं दे देते

जल्दी से जल्दी! 

आखिर वे सोचते क्यों नहीं

भारतीय जनता के कल्याण और

अपने ऐतिहासिक दायित्व के बारे में

और हमारे सुझावों को

गंभीरता से क्यों नहीं लेते! 

हम तो टाटा, बिड़ला और बजाज आदि का भी

आह्वान करने वाले हैं कि

अम्बानी-अदानी के ख़िलाफ़ वे

पूरी ताक़त लगा दें और

उनके बूते चल रही जालिम और भ्रष्ट

सरकार को गिराने में मदद करें! 

परम संतोषी हैं हम, 

माँगते हुए कभी ज़्यादा मुँह नहीं खोलतेI

मोदी-शाह-योगी के अत्याचारों से

व्यथित हम तो थोड़े नरमदिल 

फ़ासिस्टों से भी

अनुरोध करते हैं कि

अगर फ़ासिज़्म को ही बनाये रखना है

तो कविहृदय अटल जैसे किसी को

वे अपना मुखिया बना लें, 

गठबंधन तो बन ही जायेगा

बहुतेरे भूतपूर्व कांग्रेसियों, समाजवादियों

और क्षेत्रीय क्षत्रपों को लेकर! 

इसतरह कम से कम संसदीय लोकतंत्र और

न्यायपालिका की कुछ लाज और

मर्यादा भी बची रहेगी

और हमारे बौद्धिक-सामाजिक धमाचौकड़ी के लिए

खेल का एक छोटा सा मैदान भी! 

लेकिन हम व्यावहारिक लोग हैं, 

कई विकल्पों पर एक साथ

सोचते रहते हैंI

जैसे अभी तो राहुल गाँधी के

'भारत जोड़ो' अभियान पर भी टिकी हैं

हमारी उम्मीद भरी निगाहें, 

और कनखी से हम केजरीवाल को भी

देखते रहते हैं 

और  केरल को और दीपंकर भट्टाचार्य के

 पैंतरापलटों को देखते हुए

 हमें कई बार ऐसा भी लगने लगता है कि

संसदीय वाम दलों का कम से कम 

इतना तो पुनरुत्थान हो ही जायेगा

कि किसी संयुक्त मोर्चे में

सम्मानजनक स्थान मिल जायेI

इतने व्यावहारिक हैं हम कि 

हमारी उम्मीदों और आकलनों के ठीक उलट

कल को अगर कोई मज़दूर क्रान्ति हो ही जाये

और अराजकता और तूफ़ानों के

आतंककारी दौर में

अगर हम देश छोड़कर भाग न पायें

सुरक्षित ठिकानों की ओर 

तो उस नयी सत्ता को भी

स्वीकार कर लेंगे, 

उसके स्वागत में ढोलक-पिपिहरी बजाने लगेंगे, 

जनता की सेवा करने के संकल्प की

घोषणा करके समाजवादी राज्य 

और पार्टी के तंत्र में जगह बना लेंगे

और धीरे-धीरे उसे भी अपने जुगाड़ से

अपने हित के अनुकूल ढालते रहेंगे! 

हम जिस सर्वहारा राज्य के ख़िलाफ़

निरंतर झींगुर की तरह चीखते हैं, 

उसे अंदर से दीमक की तरह

खाना भी जानते हैं! 

लेकिन हाँ, इतिहास से सबक लेकर

लोग अगर हमें पहचान लेंगे, 

हमारे मक़सद को ताड़ लेंगे, 

तब हमारी जो दुर्गत होगी

उसे सोचकर रूह फ़ना हो जाती है! 

लेकिन तब, हमारी आने वाली पीढ़ियाँ

दुनिया को सैकड़ों पुस्तकें लिखकर बतायेंगी 

कि सर्वहारा अधिनायकत्व 

कितना आततायी होता है

और कितना सर्वसत्तावादी! 

लेकिन हम निश्चिन्त हैं अभी कि 

ऐसा कुछ होने की संभावना

हमें नज़र नहीं आती दूर-दूर तकI

फ़िलहाल तो हमारी शिक़ायत

बस मोदी-शाह के अत्याचार से है

और हमारी पूरी कोशिश है कि

किसीतरह से थोड़ा सा भी, 

15-20 फीसदी भी संसदीय लोकतंत्र, 

सौ-दो सौ ग्राम भी कल्याणकारी राज्य, 

लाज रखने भर के लिए  

कटोरी- दो कटोरी भी क़ानून व्यवस्था, 

लंगोटी भर की भी संविधान की इज़्ज़त-मर्यादा

और हमारे जीने का सहारा

हमारी अकादमिक आज़ादी

साँस लेने भर को बची रहे! 

हम तो ठहरे संतोषी जीव, 

बस इतने से काम चला लेंगे, 

थोड़ा गा-बजा लेंगे, 

थोड़ा लेक्चर पेल लेंगे! 

और क्या! 

हमें चाँद थोड़े ही न चाहिए!!

(27 Aug 2022)

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