Monday, August 29, 2022

मध्यवर्गीय लिबरल-सेकुलर शरीफ़ गृहस्थ नागरिकों का समूह-गान



मध्यवर्गीय लिबरल-सेकुलर शरीफ़ गृहस्थ नागरिकों का समूह-गान

ज़माना इतना ख़राब आ गया है कि अब

कुछ भी रास्ते पर आता नहीं दीखता

और लोग हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं

और धर्मान्धता अपने चरम पर है

और फ़िलहाल तो यही लगता है कि

चौबीस में भी फिर से मोदी ही आयेगा

लेकिन तमाम सेक्युलर ताकतों के किसी

चुनावी गठबन्धन की उम्मीद अभी भी बची हुई है

और मँहगाई की तो पूछिए ही मत

और गुंडागर्दी की क्या बात करें, 

अभी कल ही मोहल्ले के कुछ लौण्डों ने

पकड़ कर 'जै श्रीराम' के नारे लगवाये

और जेब से सारे पैसे निकाल लिये

और चंदे की रसीद काट दी

और कल आटो वाले ने भी दूने पैसे ले लिये

और गाँधी जी को तो लोग 

एकदम भूल ही गये हैं

और नेहरू जी का ज़माना देखे हुए लोग भी

अब नहीं बचे

और समाजवादी क्रान्तियाँ भी तो

बीसवीं सदी की सारी फेल हो गयी

और शराफ़त का तो ज़माना ही नहीं रहा

और भाई साहब, लिबरलाइज़ेशन और प्राइवेटाइज़ेशन को तो 

अब किसी का बाप भी नहीं रोक सकता

और सरकारी कर्मचारी भी तो 

बहुत कामचोर हो गये थे

और मज़दूरों में तो कोई वर्ग-चेतना रह ही नहीं गयी है

और संविधान की तो किसी को परवाह ही नहीं है

और कम्युनिस्ट भी अब एकदम 

नाकारे हो गये हैं 

और हम भी साली घर-गिरस्ती के चक्कर में

कोल्हू के बैल हो गये

और सेहत भी ऐसी चौपट कि रात को

पेट फूलकर तबला हो जाता है

और बवासीर अलग से जीना मुहाल किये रहता है

और पर्यावरण की अगर ऐसी ही तबाही होती रही

तो इस सदी के अंत तक तो

पृथ्वी पर जीवन ही नहीं बचेगा

और रूस-उक्रेन युद्ध भी लगता है लंबा खिंचेगा

और बैंक में सेविंग्स पर भी ब्याज कितना घट गया

और सरकार ने सीनियर सिटीजन्स को दी जाने वाली

सारी सहूलियतें भी खत्म कर दीं

और तीन साल से बेरोज़गार हमारे साहबज़ादे

हमें बूढ़े कुत्ते से अधिक कुछ नहीं समझते

और साहबज़ादी साहिबा किसी कुजात लुहेड़े से

इश्क़ फ़रमा रही हैं और

बीवी का तो काम ही मेरा जीना दूभर किये रहना है

और नौशाद, मदनमोहन, बर्मन दादा, सलिल चौधरी

और रफ़ी, मुकेश, किशोर कुमार का ज़माना भी बीत गया

और आजकल के फ़िल्मी हीरो 

दिलीप कुमार, राजकपूर, गुरुदत्त के आगे

कहाँ भला ठहरेंगे

और प्रेमचंद जैसी कहानियाँ और 

निराला, मैथिली शरण गुप्त, बच्चन और नीरज जैसी

कविताएँ लिखने की कूव्वत आजकल के

कवियों और लेखकों में कहाँ

और कर्नल रंजीत के जासूसी उपन्यास भी तो

अब आने बंद हो गये

और गांँव भी अब पहले जैसे कहाँ रहे

और शहर तो बस कांक्रीट के जंगल हैं

और लेबर माइग्रेशन देश की एक बड़ी समस्या है

और दलित-उत्पीड़न तो बढ़ता ही जा रहा है

और मोबाइल पर पोर्न देखना और पबजी खेलना

अब तो बच्चों से लेकर बूढ़ों तक का 

शग़ल हो गया है

और अब इस देश को तो

कोई चमत्कार ही बचा सकता है! 

लेकिन हम तो ठहरे अपने उसूल के पक्के! 

डेमोक्रेटिक, लिबरल और सेक्युलर होना 

हमारे संस्कार हैं, 

इन्हें तो न छोड़ेंगे! 

और कुछ करें न करें

कम से कम इतना तो हम कर ही सकते हैं! 

और इतना भी क्या कम है

हमारे जैसे शरीफ़ और भलेमानस शहरी के लिए! 

और क्या उम्मीद करते हो हमसे? 

बच्चे की जान लोगे क्या! 

**

(29 अगस्त 2022)

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