Friday, August 05, 2022

एकदिन कुलीन काव्यात्मक अँधेरे में


 

एकदिन कुलीन काव्यात्मक अँधेरे में 

बहुत दिनों बाद जीते-जागते लोगों की बस्ती से बाहर 

जब मैं भद्र-सुसंस्कृत लोगों के मायालोक की ओर निकली 

तो शहर की रोशनी वैसी ही थी बदस्तूर 

धुएँ, शोर, उदासी, घुटन, उन्माद,

दिशाहीन क्रोध और इंतज़ार में सनी हुई l

वह रोशनी काफ़ी कुछ एक चमकते अँधेरे जैसी थी l

चमकीले अँधेरे जैसी चिलकती धूप से होकर 

मैं उनके बैठकखाने में पहुँची जहाँ

वैसा ही नीम अँधेरा था जैसा आम तौर पर 

बौद्धिकों के बैठकखानों में निवास करता है 

किताबों की निष्कलुष लेकिन सन्नाटे और 

आतंक से भरी सुन्दरता के साथ l

मैंने बैठकर उनकी प्रतीक्षा की  

जैसे ढलती शाम को अँधेरे की प्रतीक्षा की जाती है l

वह आये 

भीतर के अधिक अँधेरे भरे कमरे से निकलकर

और मुझसे बातें कीं 

अँधेरे दौर में कला-साहित्य के द्वारा 

उज्ज्वल, निष्कलुष, जादुई रहस्यों से भरी 

एक अलौकिक दुनिया 

धीरे-धीरे रचने के बारे में l

नाटकीय विकलता और बरसात में भीगे कपड़ों जैसी 

सीलन और बू से भरी उनकी बातों में

सरसराते रेशमी लिबास जैसा एक सम्मोहक अँधेरा था 

आत्मा पर उतरता हुआ 

जैसे शाम की छाया पेड़ों पर उतरती है 

और सबकुछ अँधेरे की चादर में ढँक जाता है l

बहुत सारी चमत्कृत करने वाली बातों के साथ 

उन्होंने बताया कि बचपन से अपनी ज़िंदगी के सभी अँधेरों को

उन्होंने साँवली लड़कियों के दुपट्टे का छोर 

पकड़कर पार किया है,

और आज भी उनके सपनों पर छतों पर खड़ी लड़कियों की 

परछाइयाँ गिरती रहती हैं और हर साल मार्च के महीने में 

कहीं न कहीं से कुछ न कुछ लड़कियाँ भागती रहती हैं 

और उनके सपनों में मौजूद लाल मोरंग की सड़क से गुज़रकर 

उनकी आत्मा तक पहुँचती रहती हैं l

उन्हें विश्वास है कि उनके कवित्व के प्रताप से 

बुढापे की दहलीज़ पर भी उनके लिए कोई लड़की 

सृष्टि के अँधेरे छोर से विकल भागती चली आयेगी l

कई बार वह दुहराते रहे यह बात कि सर्वहारा के संघर्ष नहीं, अब 

स्त्रियों का प्यार ही बचायेगा इस दुनिया को फासिज़्म से 

और तमाम दूसरी आपदाओं से l

स्त्रियों की क्षमाशीलता के प्रति वह कृतज्ञ थे 

और चुपचाप ज़ुल्म सहने की उनकी माद्दा से अभिभूत !

इस गुण से वंचित स्त्रियों को उन्होंने 'अभिशप्त प्रेतात्माएँ' बताया

जिनके पास कोई आँचल या दुपट्टा नहीं होता कि वे 

एक महान कवि के भी आँसू पोंछ सकें l

पूरे संवाद के दौरान वह बीच-बीच में कातर और दयनीय भी होते रहे

और रोते भी रहे l

तब अँधेरा नमकीन, खारे, काले पानी की तरह 

बैठकखाने की फ़र्श पर बहने लगता था l

सहसा वह मुझे रेलवे लाइन के किनारे पड़े 

परित्यक्त पुरातन कैनवास के जूतों जैसे लगे 

जिनके भीतर के अँधेरे में फफूँद और कीड़े 

शांतिपूर्वक निवास किया करते हैं !

दोपहर से शाम तक उन्होंने मुझसे 

सिर्फ़ अँधेरे से भरी हुई बातें कीं 

एकबार भी अँधेरे का नाम लिए बिना l

वह लगातार अपने भीतर के अँधेरे 

और बाहर के अँधेरे के बीच आवाजाही करते रहे 

और फिर अंततः अपने भीतर के अँधेरे में चले गये

बैठकखाने के बीमार नीम अँधेरे से उठकर 

भीतरी कमरे के अधिक गहरे अँधेरे की ओर जाते हुए !

*

(5 अगस्त, 2022)

No comments:

Post a Comment