Saturday, July 30, 2022

 


कविताओं की समीक्षा लिखने के लिए उनको पढ़ने की भी ज़रूरत नहीं होती। कुल जमा बीस-पच्चीस जुमले होते हैं जिन्हें कुछ शब्दांतर के साथ चेंप देना होता है। जैसे, दस-पंद्रह वर्षों से ऐसा ही एक जुमला कुछ हेरफेर के साथ, मैं पढ़ती आ रही हूँ: 'इन कविताओं के मर्म तक पहुँचने के लिए आलोचना के नये औजारों की ज़रूरत है, या, एक नये सौन्दर्यशास्त्र की ज़रूरत है।' 

मैं तो बरसों से खोज रही हूँ, आलोचना के वे नये औजार या वह नया सौन्दर्यशास्त्र कहीं मिलता ही नहीं! कोई उनका आविष्कार भी नहीं करता! मात्र ज़रूरत बताने से  क्या होगा भाई! ज़रूरत महसूस होती है तो बना लो!

यह सब सिर्फ़ जुमलेबाज़ी है। जो आलोचना की अभीतक की विकसित सैद्धांतिकी और विमर्शों से परिचित तक नहीं, वे भी (या वे ही) चटपट ऐसे फतवे सुना डालते हैं।

(30 Jul 2022)

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