जिस समाज में तुम रहते हो
यदि तुम उसकी एक शक्ति हो
जैसे सरिता की अगणित लहरों में
कोई एक लहर हो
तो अच्छा है.
जिस समाज में तुम रहते हो
यदि तुम उसकी सदा सुनिश्चित
अनुपेक्षित आवश्यकता हो
जैसे किसी मशीन में लगे बहु कल-पुर्जों में
कोई भी कल-पुर्जा हो
तो अच्छा है.
जिस समाज में तुम रहते हो
यदि उसकी करुणा ही करुणा
तुम को यह जीवन देती है
जैसे दुर्निवार निर्धनता
बिल्कुल टूटा-फूटा बर्तन घर किसान के रक्खे रहती
तो यह जीवन की भाषा में
तिरस्कार से पूर्ण मरण है.
जिस समाज में तुम रहते हो
यदि तुम उसकी एक शक्ति हो
उसकी ललकारों में से ललकार एक हो
उसकी अमित भुजाओं में दो भुजा तुम्हारी
चरणों में दो चरण तुम्हारे
आँखों में दो आँख तुम्हारी
तो निश्चय समाज-जीवन के तुम प्रतीक हो
निश्चय ही जीवन, चिर जीवन !
-- त्रिलोचन
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