Saturday, September 18, 2021

क्रान्ति, पार्टी और मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी: मार्क्‍सवादी काउत्‍स्‍की के विचारों की समीक्षा


 क्रान्ति, पार्टी और मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी: मार्क्‍सवादी काउत्‍स्‍की के विचारों की समीक्षा

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जब काउत्‍स्‍की अभी मार्क्सवादी थे, तो वे यूरोपीय मज़दूर आन्दोलन व कम्युनिस्ट आन्दोलन के प्रमुख नेता थे। लेनिन भी काउत्‍स्‍की के विचारधारात्मक योगदान को तमाम प्रश्नों पर मानते थे और क़रीबी से उनके कई सही मार्क्सवादी विचारों पर अनुसरण भी करते थे, मसलन, कृषि प्रश्न, पार्टी अनुशासन का प्रश्न और कम्युनिस्ट विचारधारा और मज़दूर आन्दोलन के सम्बन्धों के प्रश्न पर। 

काउत्‍स्‍की ने मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों और पार्टी के रिश्तों पर भी अपने मार्क्सवादी दौर में सटीक नज़रिये से लिखा, जिसकी अनुशंसा लेनिन समेत सभी समकालीन क्रान्तिकारी कम्युुनिस्टों ने की थी। इस सन्दर्भ में उनके दो लेख विशेष तौर पर पढ़ने योग्य हैं: 

1. बुद्धिजीवी और मज़दूर (https://www.marxists.org/arc.../kautsky/1903/xx/int-work.htm) 

2. “बुद्धिजीवी” और पार्टी के उसूल (https://www.marxists.org/archive/kautsky/1912/xx/intell.htm) 

ये दोनों बेहद छोटे लेकिन बेहद महत्वंपूर्ण लेख हैं। इन दोनों ही लेखों को हम अनुवाद होने पर तत्‍काल ही प्रकाशित करेंगे। 

इन दो लेखों से कुछ महत्वपूर्ण अंश मैं अनुवाद करके पेश कर रहा हूँ। हालाँकि अभी दूसरे कामों में बहुत व्यस्‍तता थी, लेकिन आज सुबह इन लेखों पर कई वर्षों बाद दोबारा निगाह पड़ी, तो इन अंशों को आपके साथ साझा करने से ख़ुद को रोक नहीं पाया। ग़ौर करें, काउत्‍स्‍की लिखते हैं: 

“लेकिन यह अन्तरविरोध (मज़दूर और बुद्धिजीवी के बीच का अन्तरविरोध – अनु.) श्रम और पूँजी के बीच के अन्तरविरोध से भिन्न है। एक बुद्धिजीवी कोई पूँजीपति नहीं होता। सच है कि उसका जीवन-स्तर बुर्जुआ होता है और अगर उसे दरिद्र हो जाने से बचना है तो उसे यह जीवन-स्तर क़ायम रखना पड़ता है; लेकिन साथ ही वह अपने श्रम का उत्पाद और अक्सर अपनी श्रमशक्ति बेचता है; और अक्सर वह स्वयं पूँजीपतियों द्वारा शोषित और अपमानित होता है। इसलिए बुद्धिजीवी का सर्वहारा वर्ग से कोई आर्थिक अन्तरविरोध नहीं है। लेकिन उसके जीवन का स्तर और उसके श्रम की स्थितियाँ सर्वहारा नहीं होती हैं, और यह भावनाओं और विचारों में एक निश्चित अन्तरविरोध को जन्म  देता है। 

“एक अलग-थलग व्‍यक्ति के तौर पर सर्वहारा का कोई वजूद नहीं होता। उसकी शक्ति, उसकी प्रगति, उसकी उम्मीदें और अपेक्षाएँ पूरी तरह संगठन से, अपने साथियों के साथ की जाने वाली व्यवस्थित कार्रवाई से निकलतीं हैं। जब वह किसी बड़े और शक्तिशाली संगठित तंत्र का हिस्सा होता है, तो वह अपने आपको बड़ा और शक्तिशाली महसूस करता है। यह संगठन ही उसके लिए मुख्य वस्तु है; उसकी तुलना में एक व्‍यक्ति का महत्व बेहद मामूली होता है। सर्वहारा एक ऐसे समूह के अंग के तौर पर भी, जिसे कि वह नहीं जानता, अधिकतम समर्पण के साथ और किसी व्यक्तिगत लाभ या व्यक्तिगत यश की सम्भावना या उम्मीद के बिना किसी भी पद पर अपने कर्तव्यों का निर्वाह स्वैच्छिक अनुशासन के साथ करता है जो कि उसकी सभी भावनाओं और विचारों में समाया होता है।

“बुद्धिजीवी का मामला बिल्कुल अलग होता है। वह इस शक्ति के माध्यम से नहीं बल्कि अपनी दलीलों के माध्यम से लड़ता है। उसका हथियार उसका व्यक्तिगत ज्ञान, उसकी व्यक्तिगत क्षमता और उसके व्यक्तिगत विश्वास हैं। वह कोई पद केवल अपनी व्यक्तिगत क्षमताओं के आधार पर ही हासिल कर सकता है। इसलिए इनकी सबसे मुक्त क्रियाशीलता उसे अपनी सफलता की प्रमुख पूर्वशर्त लगती है। बड़ी मुश्किल से ही वह एक ऐसे अंश या अंग (part) के रूप में कार्य करने को स्वीकार करता है, जो कि सम्पूर्ण (whole) के अधीन हो, और तब भी वह ऐसा अनिवार्यता के कारण करता है, इसलिए नहीं कि उसका झुकाव इसके प्रति हो। वह अनुशासन की आवश्यकता महसूस करता है, लेकिन जनसमुदायों के लिए, उस चुनिन्दा अल्पसंख्या के लिए नहीं, जिसका कि वह खुद को, ज़ाहिरा तौर पर, हिस्सा मानता है।” 

(कार्ल काउत्‍स्‍की , ‘मज़दूर और बुद्धिजीवी’, 1903) 

इसी लेख में काउत्‍स्‍की अन्त में लिखते हैं: 

“इसीलिए हर बुद्धिजीवी को पार्टी में शामिल होने से पहले ईमानदारी से अपनी जाँच कर लेनी चाहिए। और इसीलिए पार्टी को भी उसकी जाँच कर लेनी चाहिए कि वह सर्वहारा वर्ग के वर्ग संघर्ष के साथ अपने आपको एकरूप कर सकता है या नहीं, और एक सामान्य सैनिक के समान उसमें डूब सकता है या नहीं, वह भी बिना किसी ज़ोर-ज़बर्दस्ती का अनुभव किये या बिना दमित महसूस किये। जो बुद्धिजीवी ऐसा करने में सक्षम हैं वे अपनी प्रतिभाओं के अनुसार सर्वहारा वर्ग को बहुमूल्य- सेवा प्रदान कर सकते हैं, अपनी पार्टी गतिविधि से विशाल आत्‍मसन्तोष का अनुभव प्राप्त कर सकते हैं। जो बुद्धिजीवी ऐसा करने में अक्षम होंगे वे भारी घर्षण, निराशा, टकरावों की अपेक्षा कर सकते हैं, जो न तो उनके लिए अच्छी होगी और न ही पार्टी के लिए। 

“एक ऐसे बुद्धिजीवी का आदर्श उदाहरण जिसने अपने आपको सर्वहारा वर्ग की भावनाओं के साथ साथ पूर्णत: एकरूप कर दिया, और जिसने एक शानदार लेखक होने के बावजूद बुद्धिजीवियों के विशिष्ट तौर-तरीकों का परित्याग कर दिया, जिसने आम मज़दूरों के साथ उल्लास के साथ मार्च किया, जिसने हर उस पद पर काम किया जो कि उसे सौंपा गया, जिसने अपने आपको पूरे दिल के साथ हमारे महान लक्ष्य के लिए समर्पित कर दिया, और जो वैयक्तिकता के दमन के बारे में उन मंद मिनमिनाहटों से घृणा करता था, जो कि नियत्शे और इब्सेेन के दर्शन में प्रशिक्षित वे सारे व्यक्ति आम तौर पर तब किया करते हैं, जब भी वे अल्पसंख्या में होते हैं – बुद्धिजीवी का वह आदर्श उदाहरण जिसकी आज समाजवादी आन्दोलन को ज़रूरत है, और कोई नहीं बल्कि विल्हेल्म  लीब्क़नेख़्त थे। हम मार्क्स का जिक्र भी कर सकते हैं, जिन्होंने अपने आपको कभी आगे करने का प्रयत्न नहीं किया, और इण्टरनेशनल में दिल से लागू किया गया उनका अनुशासन एक मिसाल था, वह भी एक ऐसे संगठन में जिसमें वे अक्सर अल्पसंख्या में रहा करते थे।”

(कार्ल काउत्‍स्‍की, उपरोक्त सन्दर्भ)

आइये अब कार्ल काउत्‍स्‍की की दूसरी रचना ‘“बुद्धिजीवी” और पार्टी के उसूल’ के कुछ महत्वपूर्ण अंशों को देखें जो कि मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों और पार्टी के रिश्ते के सवाल पर रोशनी डालता है। यह लेख 1912 का है। इस लेख में काउत्‍स्‍की   एक विशिष्ट घटना के बारे में लिखते हैं। पार्टी से अनुशासनहीनता करने वाले एक टुटपुँजिया बुद्धिजीवी का निष्कासन किया गया, जिस पर बर्नस्टाइन, सूडेकुम व फ्रैंक जैसे संशोधनवादियों ने एक विरोध-पत्र जारी किया। इस लेख में काउत्‍स्‍की उसी विरोध-पत्र का जवाब देते हैं। 

काउत्‍स्‍की बताते हैं कि यह टुटपुँजिया बुद्धिजीवियों की प्रवृत्ति होती है कि वे पार्टी और मज़दूर वर्ग से समस्त अनुशासन और कर्तव्यों के निर्वाह की उम्मीद करते हैं, लेकिन अपने लिए वे केवल अधिकारों और स्वतन्त्रता के सिद्धान्‍त को लागू करते हैं, कर्तव्‍यों और अनुशासन के नहीं। ‘राय की स्वतंत्रता’ और ‘विज्ञान के अधिकार’ के नाम पर पार्टी की कार्रवाइयों में अनुशासन का उल्लंघन किया जाता है जो कि एक मध्य्वर्गीय अराजकतावादी प्रवृत्ति ही है। देखिये काउत्‍स्‍की क्या लिखते हैं: 

“उल्टे उनके इस विरोध पर एक ऊर्जावान विरोध का जन्म होगा, क्योंकि विज्ञान की सभी आज़ादियों की हिफ़ाज़त के नाम पर, यह किसी और ही चीज़ का दावा कर रहा है। यह दावा कर रहा है कि वे लोग जो कि विज्ञान के लोग हैं या विज्ञान के लोग होने का दावा करते हैं, उन्हें उन साधारण कॉमरेडों पर लागू होने वाले अनुशासन से मुक्त कर दिया जाय, जिनके पास “हीनतर या सीमित तर्क शक्ति है”।

“और यही तो बात है। यह हालिया घोषणापत्र पार्टी में “बुद्धिजीवियों” के लिए विशिष्ट विशेषाधिकार सुरक्षित करने का एक और प्रयास है।

“पहले यह मांग की गयी कि संसद के सदस्योंं को, विशेषकर जो प्रान्तीय डायटों में हैं, पार्टी निर्णयों से बँधे होने की बाध्यता को ख़त्म कर दिया जाय। फिर समाजवादी मेयरों के लिए कहा गया कि उन्हेंं ऐसे निर्णयों से इतर बना दिया जाय। अब पार्टी कांग्रेस को इस अधिकार से वंचित करने की बात की जा रही है कि वह यह बताए कि कौन-सी धारणाएँ समाजवादी हैं और कौन-सी नहीं, विशेषकर जब वे धारणाएँ किसी “बुद्धिजीवी” की हों, जो किताबें लिखना जानता है।”

(काउत्‍स्‍की, ‘“बुद्धिजीवी” और पार्टी के उसूल', 1912) 

इसके ठीक आगे काउत्‍स्‍की एकदम सटीक बात पकड़ते हुए लिखते हैं: 

“बुद्धिजीवी के पास पार्टी कॉमरेड के सारे अधिकार होंगे, लेकिन उसके कोई कर्तव्य नहीं होंगे। 

“वैज्ञानिक शोध वाले हमारे ये लोग शान्तचित्तता के साथ ये कर्तव्य-निर्वाह करने वाला काम सर्वहारा वर्ग पर छोड़ देते हैं।

“हमें इस बात पर खुद को मुबारकबाद देने के लिए “गट्ठे पड़े हाथों” की राजनीति का प्रशंसक होने की कोई ज़रूरत नहीं है कि मज़दूरों ने पार्टी के भीतर विशेषाधिकार-प्राप्त स्थिति के “बुद्धिजीवियों” के अभिमान को हमेशा ठुकराया है, और यह उम्मीद की जा सकती है कि भविष्य में भी वे ऐसे अभिमानों को ठुकराएँगे।

“जाहिरा तौर पर, ऐसी माँगें भविष्य में और भी ज्‍़यादा उठायी जाएँगी। इन माँगों में हम पार्टी की वृद्धि में अन्तर्निहित एक परिघटना को ही देख रहे हैं। 

“इस बात में कुछ भी अजूबा नहीं है कि वे “बुद्धिजीवी” जो हमारे पास आएँगे वे जल्द ही या कुछ समय बाद इस या उस कारण के चलते अपने आपको पार्टी से असहमत पाएँगे। ऐसी चीज़ें सर्वहाराओं के साथ बिरले ही होती है क्योंकि वर्ग संघर्ष की अनिवार्यताएँ उन्हें पार्टी के साथ ज़्यादा नैसर्गिकता के साथ बाँधती हैं। 

“जब तक पार्टी छोटी थी, और काम गौण रूप से होता था, और संसदीय मैण्डेट्स की संख्या छोटी थी, तब तक पार्टी से व्यक्ति का अलगाव आसान और कष्टरहित था। लेकिन आज की कहानी अलग है, जब पार्टी इतने मैण्डेट्स व सम्पादन-कार्यों (जर्मनी में आज 71 समाजवादी दैनिक अख़बार हैं) का संचालन कर रही है और इतने अस्तित्व‍ उससे जुड़े हुए हैं। ऐसे में पार्टी से व्यक्ति का अलगाव एक कष्टदायक ऑपरेशन के समान ही हो सकता है, और यह नैसर्गिक है कि कई ऐसे बुद्धिजीवी लोग जो पार्टी से कोई अन्तरविरोध महसूस कर रहे हों, वे पार्टी से उम्मीद करें कि पार्टी ही अपने उसूलों में लचक पैदा कर दे। अगर ऐसे व्यक्ति पार्टी से ऐसा करवाने में कामयाब नहीं होते तो यह उन्हें अपनी राय की स्वतन्त्रता में असह्य बाधा प्रतीत होती है।” 

(काउत्‍स्‍की, उपरोक्त सन्दर्भ) 

अन्त में काउत्‍स्‍की निष्‍कर्ष के तौर पर लिखते हैं: 

“भौतिक और बौद्धिक उत्पादन के परिणामों में इस विरोध का हमारी पार्टी की गतिविधि पर भी असर पड़ता है। भौतिक उत्पादन में लगे लोग ज्‍़यादा आसानी से संगठित और अनुशासित होते हैं, बनिस्बत उनके जो कि बौद्धिक उत्पादन में लगे होते हैं। बौद्धिक उत्पादन में लगे लोगों में हमेशा अनुशासन की कमी और अराजकतावाद की ओर झुकाव होता है।

“इसे समझा ज़रूर जाना चाहिए, लेकिन वर्ग संघर्ष के लिए संगठित एक पार्टी में इसे नज़रन्दाज़ कतई नहीं किया जाना चाहिए। 

“हमें सिवाय ऐसे बुद्धिजीवियों के और किसी बुद्धिजीवी की आवश्यकता नहीं है, जो कि वर्ग संघर्ष द्वारा अनिवार्य बनाये गये अनुशासन के अधीन रहने के लिए सक्षम और इच्छुक हों। जो ऐसा नहीं कर सकता वह एक शानदार आदमी हो सकता है, या यहाँ तक कि एक प्रतिष्ठित वैज्ञानिक भी हो सकता है; लेकिन एक समाजवादी के तौर पर उसका कोई मूल्य नहीं है। ऐसे व्यक्ति को संगठन के बाहर अपने आदर्श की तलाश करनी चाहिए।” 

(काउत्‍स्‍की, उपरोक्त सन्दर्भ) 

काउत्‍स्‍की के उपरोक्त विचार उस दौर के हैं, जबकि अभी वे एक मार्क्सवादी थे। इस दौर में अभिव्यक्त ये विचार आज भी बेहद-बेहद प्रासंगिक हैं। 

सभी जनपक्षधर मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों को काउत्‍स्‍की के उपरोक्त दोनों लेख अवश्य पढ़ने चाहिए, क्योंकि ये लेख ठीक उस दुखती नब्ज़ पर हाथ रखते हैं, जो कि सभी मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों की समस्या होती है। 

पोस्ट ख़त्म करने से पहले मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों की ही एक अन्य प्रवृत्ति पर टिप्पणी यहाँ वांछित होगी।

फ़र्ज़ करिये कि उपरोक्त शब्द स्तालिन के होते, या माओ के होते, तो मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों के मस्तिष्क में ये अलग प्रकार की रासायनिक प्रतिक्रिया को जन्म‍ देते! लेकिन यदि ये शब्द काउत्‍स्‍की के या (उससे कम हद तक!) लेनिन के हों, तो यह अलग प्रकार की रासायनिक प्रतिक्रिया को जन्म देंगे! क्या बात की जा रही है की बजाय इस पर (भी) ध्यान देना कि बात कर कौन रहा है, यह भी मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों की एक ख़ासियत होती है। ठीक उसी प्रकार उद्धरणों के पूरे सन्दर्भ को समझे बग़ैर अपनी सहूलियत के अनुसार महान शिक्षकों के उद्धरणों को पेश करना, अनुमोदन करते हुए या नकारते हुए, यह भी मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों की एक आम आदत होती है। 

निश्चित तौर पर, क्रान्ति को आज जनपक्षधर मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों की भी आवश्यकता है। उपरोक्त बातों का यह अर्थ नहीं है कि क्रान्ति बिना उनकी भूमिका के सम्भ्व होगी। लेकिन साथ ही पार्टी मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों को साथ लेने में अपने उसूलों को तिलां‍जलि नहीं देती है। वह हरेक ऐसे मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी को पार्टी के उसूलों और अनुशासन पर कसती है और जो बुद्धिजीवी इस अनुशासन को पूरे दिल से स्वीकारते हैं और पार्टी के भीतर और बाहर आम जनसमुदायों से, ऊँचाई से नहीं बल्कि बराबरी के साथ, एकरूप होने को तैयार होते हैं, वे ही आने वाली समाजवादी क्रान्तियों में अपनी शानदार भूमिका निभा सकते हैं, जो कि उनके जीवन को भी सफल बनाएगी, उन्हें  बौनेपन, निराशा, हताशा, डिप्रेशन और लक्ष्यहीनता से बाहर निकालेगी।

-- Abhinav Sinha


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