"पहले मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं 'कंकाल' पर आपको बधाई दूं. मैंने इसे आदि से अंत तक पढ़ा और मुग्ध हो गया I आपसे जो मेरी पुरानी शिकायत थी वह बिलकुल मिट गयी I मैंने एक बार आपकी पुस्तक 'समुद्रगुप्त' की आलोचना करते हुए लिखा था कि आपने इसमें गड़े मुर्दे उखाड़े है I इस पर मुझे काफी सजा भी मिली थी, पर जो लेखनी वर्त्तमान समस्याओं को इतने आकर्षक ढंग से जनता के सामने रख सकती है, इस तरह दिलों को हिला सकती है, उसे, फिर वही बात मेरे मुंह से निकलती है क्षमा कीजिए I पूर्वजों की कीर्ति का भविष्य के निर्माण में भाग होता है, और बड़ा भाग होता है, लेकिन हमें तो नए सिरे से दुनिया बनानी है I अपनी किस पुरानी वस्तु पर गर्व करें -- वीरता पर ? दान पर ? तप पर ? वीरता क्या थी ? अपने भाइयों का रक्त बहाना I दान क्या था ? एकाधिपत्य का नग्न नृत्य I और तप क्या था ? वही जिसने आज कम से कम 80 लाख बेकारों का बोझ हमारी दरिद्र जनता पर लाद दिया है I अगर 5/- प्रति मास भी एक साधू की जीविका पर खर्च हो तो लगभग 20 करोड़ रुपये हमारी गाढ़ी कमाई के उसी पुराने 'तप' के आदर्श की भेंट हो जात्ते है I किस बात पर गर्व करें वर्णाश्रम धर्म पर ? जिसने हमारी जड़ खोद डाली I"
-- जयशंकर प्रसाद के नाम प्रेमचंद के पत्र का एक अंश, 24 जनवरी,1930, काशी.



No comments:
Post a Comment