अखबारों-पत्रिकाओं में काम करने वाले कई मित्रों ने कई बार कहा,'कुछ लिखिए हमारे लिए!' मैंने कहा,'बस, एक शर्त पर। अपने मन से, या आपके सुझाये विषय पर मैं जो भी लिखूं उसमें कोई भी काट-छांट नहीं होगी, एकदम यथावत छपेगा।'
इसके बाद प्रस्ताव रखने वाले पतली गली से निकल लेते और फिर कभी ऐसा प्रस्ताव लेकर नहीं आते। एकमात्र राजकिशोर जी ही ऐसे व्यक्ति मिले जिन्होंने गंभीर विचारधारात्मक मत-वैभिन्न्य के बावजूद मेरी शर्त को स्वीकार किया और 'रविवार डाइजेस्ट' में मेरे लेख हमेशा बिना किसी कांट-छांट के छापते रहे। हां, अलबत्ता लेखों के जिन बिंदुओं से उनकी असहमति होती थी, उनपर फ़ोन पर कभी-कभी तो घंटे भर तक बहस करते थे और तीखी असहमतियों पर भी बुरा नहीं मानते थे । हमारी सबसे अधिक बहसें हिंसा-अहिंसा के प्रश्न हुई थीं और सबसे अधिक बातें समाजवाद की समस्याओं तथा फ़ासिज़्म के प्रतिरोध की रणनीति पर हुआ करती थीं ।
हिन्दी पत्रकारिता की मुख्यधारा में वह ख़ुद्दार, समझदार, जानकार और लोकतांत्रिक मिजाज़ के लोगों की आखिरी पीढ़ी के सदस्य थे । अब ऐसे लोग बहुत कम हैं।
अब तो एक से एक चमचे, दल्ले, गधे, चूहे, ऊदबिलाव, तिलचट्टे और केंचुए हिन्दी पत्रकारिता की शान में चार चांद लगा रहे हैं । ये सेठों के जूते अपने रुमाल और अपनी जीभ से साफ़ करते हैं, उनका पिछवाड़ा धोते हैं और सिर में चंपी करते हैं !
ये कूपमण्डूक ही नहीं, महाडरपोंक लोग हैं जो किसी भी कीमत पर अपनी चाकरी खोने का जोखिम मोल नहीं ले सकते, एकजुट होकर अपने अधिकारों के लिए भी नहीं लड़ सकते और संघर्षरत जनसमुदाय के पक्ष में खड़ा होने की तो सोच भी नहीं सकते ।

No comments:
Post a Comment