Thursday, August 06, 2020

दन्त-नख-हीन चतुरसुजान

 

मैंने तो पहाड़ के बहुत सारे जन-बुद्धिजीवियों, संस्कृतिकर्मियों-लेखकों, आन्दोलनकारियों को शासन और अकादमी से पुरस्कार-सम्मान आदि, या पद्म-पुरस्कार आदि मिलते ही "दन्त-नख-हीन चतुरसुजान" बन जाते और सरकारी नीतियों-निर्णयों का अनुमोदन और पैरवी करते देखा है ! सत्ता ने मान्यता के टुकड़े फेंके नहीं कि अग्निवर्षी मुँहों से शीतलता बरसने लगती है I पहाड़ के हित की बात करने वाला इतिहासकार पद्म-पुरस्कार मिलने के बाद न फासिस्टों की काली कारगुजारियों पर जुबां खोलता है, न ही पहाड़ को तबाह करने वाली नीतियों पर कुछ बोलता है I वाम कतारों में बैठने वाले कवि-शिरोमणि कभी भाजपाई मुख्यमंत्री को पिता-तुल्य बताते हैं, तो कभी पहाड़ों में बड़े बाँध बनाने की कांग्रेसी नीतियों के पैरोकार बन जाते हैं और मजे की बात यह कि प्रगतिशील उत्तराखंडी बुद्धिजीवियों में फिर भी वह समादृत बने रहते हैं I


अक्सर यह पाया जाता है कि आबादी के दबे-कुचले हिस्सों से ऊपर उठकर बुद्धिजीवी के रूप में प्रतिष्ठा पा जाने वाले लोग अपनी मिट्टी और अपने लोगों के दुःख-दर्द को बिसरा देते हैं और जनता की आवाज़ उठाने के नाम पर कुछ जुबानी जमा-खर्च करते हुए समाज की विशेष सुविधाजीवी परत में व्यवस्थित हो जाते हैं ! हिमालय के पर्यावरण-आन्दोलनों के बहुतेरे पुरोधाओं का, बहुतेरे कुमाऊनी-गढवाली बुद्धिजीवियों का और उत्तराखंड आन्दोलन के कई-एक नेताओं का अतीत देखिये और वर्त्तमान देखिये I तथ्य मेरी बात का समर्थन करते मिलेंगे I मुझे तो लगता है कि उत्तराखंड के मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों का एक बड़ा हिस्सा समझौतापरस्ती, अवसरवाद और सत्ताधर्मिता के दलदल में बुरीतरह धँस चुका है और काले को काला और सफ़ेद को सफ़ेद कहने की कूव्वत खो चुका है I

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